मनोविश्लेषणवादी आलोचना - psychoanalytic criticism

आप अपने पाठ्यक्रम के द्वितीय सेमेस्टर की तृतीय पाठ्यचर्या 'पाश्चात्य काव्यशास्त्र' के खण्ड- 3: 'सिद्धान्त और वाद' के अन्तर्गत इकाई 3 में मनोविश्लेषणवाद के बारे में विस्तार से पढ़ चुके हैं। यहाँ हम एक बार फिर इस आलोचना पद्धति के मूलभूत सिद्धान्तों को दोहराते हुए हिन्दी आलोचना में उसके स्वरूप पर अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे।


मनोविश्लेषणवादी आलोचना को मनोवैज्ञानिक आलोचना भी कहा जाता है। इस आलोचना के अन्तर्गत लेखक और पाठक के मन पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया जाता है।

किसी रचना के निर्माण के पीछे रचनाकार की क्या मनःस्थिति रही है और वह रचना पाठक की मनःस्थिति को किस रूप में प्रभावित करती है ?, यह जानना ही इस पद्धति का उद्देश्य है। इसके माध्यम से एक ओर जहाँ लेखक की मानसिक संरचना की व्याख्या की जाती हैं वहीं रचना के पात्रों, परिस्थितियों तथा विषयवस्तु और रूप का विश्लेषण भी मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के आधार पर किया जाता है।


मनोविश्लेषणवाद ऑस्ट्रिया के मनोचिकित्सक सिग्मंड फ्रायड के आधारभूत सिद्धान्तों और परवर्ती मनोवैज्ञानिकों के महत्त्वपूर्ण योगदान से निर्मित मानव मन को समझने एक मनोवैज्ञानिक पद्धति है।

मनोविज्ञान व्यापक रूप से मनुष्य के व्यवहार का अध्ययन करता है। इसकी मान्यता है कि मनुष्य के मन और शरीर में निरन्तर क्रिया-प्रतिक्रिया चलती रहती है। इसलिए मनुष्य के व्यवहार का सम्पूर्ण अध्ययन और रोगों का निदान मनो- दैहिक उपागम से ही किया जा सकता है। मूलतः एक मनोचिकित्सकीय सिद्धान्त होते हुए भी मनोविश्लेषण कला और साहित्य सहित अन्य अनुशासनों के लिए भी एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त सिद्ध हुआ है। इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य का जीवन उसके अवचेतन मन से जितना संचालित होता है उतना चेतन मन से नहीं। मुख्य रूप से व्यक्ति की दमित कामनाएँ और यौन इच्छाएँ उसके सम्पूर्ण जीवन व्यवहार का निर्धारण करती हैं।

मनोविश्लेषणवाद के अनुसार मानव-जीवन के असली द्वन्द्व और संघर्ष उसके मानस जगत में घटित होते हैं। फ्रायड का विश्वास था कि हमारा अवचेतन हमारे बाल्यकाल की घटनाओं से प्रभावित और प्रेरित होता है।


फ्रायड तथा अन्य कई मनोवैज्ञानिकों ने मनुष्य के व्यवहार में उसकी काम वृत्ति को प्रधान माना है। उसके बाद के कुछ विद्वानों ने फ्रायड के मत से असहमत होकर अपना अलग-अलग मत प्रस्तुत किया है। इनमें अल्फ्रेड एडलर, कार्ल गुस्ताफ़ युंग और ज्यॉक लकों के नाम प्रमुख हैं।


फ्रायड का मनोविश्लेषण- सिद्धान्त


मनोविश्लेषण सिद्धान्त के जनक ऑस्ट्रिया के चिकित्सक सिग्मंड फ्रायड (1856-1939) थे। फ्रायड अपने इस सिद्धान्त को जीवन के सभी क्षेत्रों में लागू करने का विचार रखते थे। कला और साहित्य का मनोविश्लेषण विधि से सृजन और मूल्यांकन किया जाना चाहिए। स्वयं फ्रायड का लेखन अनेक साहित्यिक उदाहरणों और सन्दर्भों से भरा हुआ है। विशेष रूप से उन्होंने गेटे और शिलर जैसे क्लासिकीय जर्मन लेखकों की रचनाओं का बहुत उपयोग किया है।


फ्रायड के अनुसार मनुष्य के व्यक्तित्व के निर्धारण में माता और पुत्र का जन्मजात सम्बन्ध बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

माता के प्रति अपनी अप्रकट यौन भावना के नकार को फ्रायड ने आदिम आत्म-दमन की संज्ञा दी है। आत्म-दमन के कारण ही व्यक्ति के अवचेतन की सृष्टि होती है। अवचेतन की मानसिक प्रक्रियाएँ व्यक्ति के व्यक्तिगत और सामाजिक व्यवहार की निर्धारक होती हैं।


फ्रायड ने मनुष्य के अवचेतन को उसकी मूल प्रवृत्तियों और पाशविक आवेगों का भण्डार माना है। इसके अन्तर्गत वे सभी विचार और इच्छाएँ होती हैं जिनकी पूर्ति व्यक्ति नहीं कर पाता है। ये विचार और भावनाएँ चेतन स्थिति से छिपे हुए और अवचेतन में दबे हुए होते हैं। ये दबे-छिपे संवेग मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व पैदा करते हैं।

इनमें से अधिकांश का सम्बन्ध व्यक्ति की कामेच्छाओं से होता है जिन्हें अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता इसलिए उनका दमन कर दिया जाता है । मनुष्य की चेतना का 'अवचेतन' स्तर आवेगों की अभिव्यक्ति के समाज-स्वीकृत तरीके ढूंढता है अथवा उन आवेगों को अभिव्यक्त होने से रोकने के लिए संघर्ष करता है। इस संघर्ष में असफल होने पर व्यक्ति असामान्य व्यवहार करता है।


फ्रायड के मनोविश्लेषण सिद्धान्त के अनुसार व्यक्तित्व के तीन भाग होते हैं इदम् (इड), अहं (ईगो) और पराहम् (सुपर ईंगो) ।

इदम् (इड) व्यक्ति की मूल प्रवृत्ति का स्रोत होता है। इसका सम्बन्ध व्यक्ति की आदिम आवश्यकताओं, कामेच्छाओं और आक्रामक आवेगों की तात्कालिक तुष्टि से होता है। अहं (ईगो) का विकास इदम् (इड) से होता है और यह व्यक्ति की मूल प्रवृत्ति की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि व्यावहारिक आधार पर करता है। अहं (ईगो) तर्क और धैर्य के साथ वास्तविकता के सिद्धान्त से संचालित होता है। पराहम् (सुपर ईंगो) आदर्शवादी या नैतिकता के सिद्धान्त से संचालित होता है। यह व्यक्ति को बताता है कि किसी अवसर विशेष पर उसकी खास इच्छा की सन्तुष्टि नैतिक है या नहीं। फ्रायड के अनुसार इदम् व्यक्ति की मूलप्रवृत्तिक ऊर्जा का स्रोत होता है।

इदम् को 'जीवन मूल प्रवृत्ति' (इरोस ) और 'मृत्यु मूल प्रवृत्ति' (थेनेटोस) के नाम से जानी जाने वाली दो शक्तियों से ऊर्जा प्राप्त होती है। फ्रायड ने यौन प्रवृत्ति को जीवन मूल प्रवृत्ति से अलग महत्त्व देते हुए इसकी ऊर्जा को 'लिबिडो' या कामशक्ति कहा है।


फ्रायड के अनुसार मनुष्य का अधिकांश व्यवहार दुश्चिन्ता के प्रति उपयुक्त समायोजन अथवा पलायन को प्रतिबिम्बित करता है । लोग दमन, प्रक्षेपण, युक्तिकरण, अस्वीकरण- प्रतिक्रिया निर्माण आदि रक्षा युक्तियों के माध्यम से दुश्चिन्ता का परिहार करते हैं।

ये रक्षा युक्तियाँ वास्तविकता का रूप बदल देती हैं जिससे व्यक्तित्व का विचलन टल जाता है। लेकिन यदि इन युक्तियों का उपयोग इस हद तक किया जाए कि वास्तविकता सच में विकृत हो जाए तो व्यक्ति कुसमायोजित व्यवहार करने लगता है। ये युक्तियाँ वस्तुतः दुश्चिन्ता से उत्पन्न असुविधाजनक भावनाओं से अहं को बचाने के अवचेतन तरीके हैं।


फ्रायड के सिद्धान्त में अवचेतन का स्थान सर्वोपरि है। यह पूर्ण रूप से मनोवृत्तियों की सन्तुष्टि और आनन्द की आकांक्षा का क्षेत्र है।

फ्रायड के अनुसार सपने हमारी इच्छा पूर्ति के विविध रूप हैं। मनुष्य के अवचेतन द्वारा उसके किसी द्वन्द्व के समाधानस्वरूप सपनों की संरचना होती है। स्वप्न के दौरान व्यक्ति का 'पूर्व- 'चेतन' जाग्रत अवस्था की अपेक्षा अपने कर्त्तव्य के प्रति अधिक लापरवाह, फिर भी सचेत होता है। सपने एक प्रकार का समझौता है जिससे दमित इच्छाओं की प्रच्छन्न रूप से पूर्ति होती है। सपनों के विश्लेषण से व्यक्ति की मानसिक समस्याओं को सुलझाया जा सकता है।


अल्फ्रेड एडलर और कार्ल गुस्ताफ़ युंग


अल्फ्रेड एडलर के सिद्धान्त को 'वैयक्तिक मनोविज्ञान' के रूप में जाना जाता है उसकी आधारभूत मान्यता यह है कि व्यक्ति का व्यवहार उद्देश्यपूर्ण और लक्ष्योन्मुख होता है।

प्रत्येक व्यक्ति अपर्याप्तता और अपराध की भावनाओं से ग्रसित होता है। इससे उसमें 'हीनता मनोग्रन्थि' उत्पन्न होती है। यह 'हीनता ग्रन्थि' उसके मन में बाल्यावस्था से ही पैदा हो जाती है। व्यक्तित्व के उचित विकास के लिए इस मनोग्रन्थि पर विजय प्राप्त करना आवश्यक होता है। यह विजय अहं की स्थापना है।


कार्ल गुस्ताफ़ युग ने लिबिडो का व्यापक अर्थ लिया और फ्रायड द्वारा कामवृत्ति पर जरूरत से ज्यादा बल देने की आलोचना की की।

उन्होंने 'विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान' नाम से व्यक्तित्व का एक नया सिद्धान्त प्रस्तुत किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्तित्व में प्रतिस्पद्ध भावनाएँ और शक्तियाँ सन्तुलन के नियम तहत समन्वयात्मक रूप में कार्य करती हैं। व्यक्तित्व के विभिन्न घटकों के ऊर्जा आवेगों के बीच एक सन्तुलन पाया जाता है, जिससे व्यक्ति के कार्यों में सार्थकता होती है। युग ने लिबिडो के अर्थ का विस्तार किया और उसे जिजीविषा का अर्थ देकर फ्रायड की काम केन्द्रित संकीर्णतावादी दृष्टि से जीवन और साहित्य को मुक्त किया।

उसने कहा कि मनुष्य की ऊर्जा का उपयोग यौन सन्तुष्टि के लिए ही नहीं होता, बल्कि व्यापक और विविधतापूर्ण जीवन के लिए होता है। उसने मनुष्य के चेतन जीवन को अचेतन के 'आद्य प्ररूप' (आर्किटाइप) से जोड़कर मिथकों और पुराणों के नये सन्दर्भ और अर्थ खोजने की दिशा में प्रेरित किया। 'आद्य प्ररूप' सामूहिक अचेतन की अन्तर्वस्तु होते हैं, जो व्यक्तिगत स्तर पर अर्जित नहीं किए जाते, बल्कि वंशानुगत रूप से प्राप्त होते हैं। युंग ने अपने प्ररूप विज्ञान में 'अन्तर्मुखी' और 'बहिर्मुखी' दो प्रकार के व्यक्तित्वों का उल्लेख किया है। अन्तर्मुखी व्यक्ति भावुक, एकान्तप्रिय, शर्मीले और व्यावहारिक जीवन में अकुशल होते हैं, जबकि बहिर्मुखी व्यक्ति व्यवहार- कुशल, सक्रिय और लोकप्रिय होते हैं।


मनोविश्लेषणवाद और साहित्य


मनोविश्लेषण ने मनुष्य की रुचियों और चिन्तन के क्षेत्र में बहुत महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों की राह खोली । मनुष्य के व्यवहार को समझने में आसानी हुई। परम्परागत रूप से लागू अनेक निषेध और नियन्त्रण शिथिल हुए और मनुष्य का प्राकृतिक रूप सामने आया । यौन भावनाओं और क्रियाओं पर बात करने का संकोच समाप्त हुआ और साहित्य में भी उनका वर्णन सहजता से होने लगा।


सन् 1920 के आस-पास यूरोपीय साहित्य पर मनोविश्लेषण का स्पष्ट प्रभाव लक्षित किया जाने लगा था। मनोविश्लेषण के प्रभाव से सर्जनात्मक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं।

फ्रायड के स्वप्न-विश्लेषण ने कलाओं के सर्जन और मूल्यांकन पर व्यापक रूप से प्रभावित किया। मनुष्य के अचेतन व्यवहार को समझने की दृष्टि से फ्रायड के अनुसंधान लेखकों और कलाकारों को नये सर्जनात्मक प्रयोग करने के लिए प्रेरित करने लगे । साहित्य में मनोविश्लेषण के प्रयोग से भाषा की क्षमता में भी अभिवृद्धि हुई, क्योंकि उसमें नये अर्थ भरे जाने लगे और परम्परागत प्रतीकों की व्याख्या के नये द्वार खुले । साहित्य में 'चेतना प्रवाह' नाम से नवीन शिल्पविधि का विकास हुआ। अतियथार्थवाद जैसे साहित्यिक उपागम का उद्भव भी मनोविश्लेषण के गर्भ से ही हुआ है। मनोविश्लेषण ने मनुष्य के व्यवहार और उसकी अभिप्रेरणाओं के सम्बन्ध में नयी दृष्टि प्रदान की जिसका साहित्य भरपूर उपयोग किया जाने लगा। साहित्य की विभिन्न विधाओं में पात्रों और परिस्थितियों के चित्रण में अधिक सूक्ष्मता और गहराई आई तथा साहित्य की बारीकियों को समझने के लिए नये वैचारिक आधार उपलब्ध हुए।


सामाजिक जीवन में अनेक अच्छी और बुरी चीजें हमें देखने को मिलती हैं। इसमें जहाँ एक ओर सुन्दरता, सुख और समृद्धि हैं तो वहीं दूसरी ओर अनेक प्रकार की कुरूपताएँ, समस्याएँ और दुःख-दर्द भी हैं। इन सभी का प्रभाव मनुष्य के अन्तर बाह्य दोनों स्तरों पर पड़ता है। मनुष्य के अन्तर्मन को उद्वेलित करने वाली परिस्थितियों और मानस पर पड़ने वाले उनके प्रभाव का अध्ययन और चित्रण साहित्य-सृजन और आलोचना का एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। साहित्यकार के मनोजगत् में प्रवेश कर उसकी मानसिक गुत्थियों को समझने-सुलझाने तथा उनके व्यक्तिगत और सामाजिक परिणामों की दृष्टि से साहित्य का विश्लेषण और मूल्यांकन करने के लिए जो समीक्षा-दृष्टि विकसित हुई उसे मनोविश्लेषणवादी या मनोवैज्ञानिक आलोचना कहा जाता है।