शोध प्रारूप का अर्थ एवं परिभाषाएँ - Meaning and Definitions of Research Design

शोध प्रारूप का अर्थ एवं परिभाषाएँ - Meaning and Definitions of Research Design

शोध प्रारूप या प्ररचना का तात्पर्य अध्ययन के उस प्रकार से होता है जिसे एक सामाजिक शोधकर्ता द्वारा किसी समस्या को भली-भांति समझने के उद्देश्य से सर्वाधिक उपयुक्त मानकर चुना जाता है। शोधकार्य प्रारम्भ करने के पूर्व सम्पूर्ण शोध प्रक्रियाओं की एक स्फ्ट संरचना, शोध प्रारूप/रचना/अभिकल्प के रूप में जानी जाती है।


कई समाज वैज्ञानिकों ने इसे परिभाषित करने का प्रयास किया है। उसमें से कुछ प्रमुख हैं: 


1. एफ.एन. करलिंगर (1964)-


शोध प्रारूप अनुसंधान के लिए कल्पित एक योजना, एक संरचना तथा एक प्रणाली है, जिसका एकमात्र प्रयोजन शोध संबंधी प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करना तथा प्रसरणों का नियंत्रण करना होता है। "


2. पी.वी. यंग (1977)-

"क्या, कहाँ, कब, कितना, किस तरीके से इत्यादि के संबंध में निर्णय लेने के लिए किया गया विचार अध्ययन की योजना या अध्ययन प्रारूप का निर्माण करता है।" 


3. आर. एल. एकॉफ (1953)-

'निर्णय लिये जाने वाली परिस्थिति उत्पन्न होने के पूर्व ही निर्णय लेने की प्रक्रिया को प्रारूप कहते हैं।" इसके अतिरिक्त विभिन्न वेबसाइटों पर भी शोध प्रारूप की कुछ परिभाषाएँ प्रस्तुत की गई हैं 'शोध प्रारूप को शोध की संरचना के रूप में विचार किया जा सकता है-यह 'गोंद' होता है जो किसी शोध कार्य के सभी तत्वों को बाँधे रखता है।

(www.socialresearchmethods.net/kb/design.php)


"शोध उद्देश्यों के उत्तर देने के लिए शोध की योजना है; विशिष्ट समस्या के समाधान की संरचना या खाका है।"

(www.decisionanalyst.com/glossary) 


ऐसी योजना जो शोध प्रश्नों को परिभाषित करे, परीक्षण की जाने वाली उपकल्पनाओं और अध्ययन किए जाने वाले चरों/परिवयों की संख्या और प्रकार स्पष्ट करें। यह वैज्ञानिक जाँच के सुविकसित सिद्धान्तों का प्रयोग करके चरों/परिवयों में संबंधों का आँकलन करती है। "

(www.globalhivmeinfo.org/Digital Library) 


''क्या तथ्य इकट्ठा करना है, किनसे, कैसे और कब तक इकठ्ठा करना है और प्राप्त तथ्यों को कैसे विश्लेषित करना है कि योजना शोध प्रारूप है।"

(www.ojp.usdoj.gov/BJA/evaluation/glossary)


उक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शोध प्रारूप प्रस्तवित शोध की रूपरेखा होती है, जिसे वास्तविक शोध कार्य को प्रारम्भ करने के पूर्व सजगता से निर्मित किया जाता है। शोध की प्रस्तावित रूपरेखा का निर्धारण विभिन्न बिन्दुओं पर विचारविमर्श के पश्चात किया जाता है।






 पी.वी. यंग (1977) ने शोध से संबंधित विविध प्रश्नों द्वारा इसे स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है -  


• अध्ययन किससे संबंधित है और आवश्यक आँकड़े किस प्रकार के है ?


• कहाँ अथवा किस क्षेत्र में अध्ययन किया जाएगा ?


• कब या कितना समय अध्ययन में लगेगा ?


• अध्ययन क्यों किया जा रहा है ?


• आवश्यक आँकड़े कहाँ से प्राप्त होंगे ?


• चुनावों के किन आधारों का प्रयोग होगा ?


• तथ्य-संकलन की कौन-सी प्रविधि का प्रयोग किया जाएगा ?


• कितनी सामग्री या कितने धन की आवश्यकता होगी ?


इसे उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है। एक भवन का निर्माण करते समय सामग्री का आर्डर देने या उसके पूजन की तिथि निश्चित करने का कोई मतलब नहीं है, जब तक कि हमें यह न मालूम हो कि वह भवन किस प्रकार का निर्मित होना है। सबसे पहले यह निश्चित करना है उस भवन की संरचना क्या होगी अर्थात आवासीय मकान होगा, एक स्कूल होगा, एक फैक्ट्री होगी। इसके बाद हमें एक प्रारूप की आवश्यकता होगी कि उसमें किन-किन वस्तुओं की आवश्यकता पड़ेगी। ठीक इसी प्रकार से सामाजिक शोध को प्रारूप या अभिकल्प की आवश्यकता होती है या तथ्य संकलन के पूर्व अथवा विश्लेषण आरंभ करने के पूर्व एक संरचना की आवश्यकता होती है। 


गेराल्ड आर. लेस्ली (1994) के अनुसार

'शोध प्रारूप ब्लू प्रिन्ट है, जो चरों/परिवर्त्यां को पहचानता और तथ्यों को एकत्र करने तथा उनका विवरण देने के लिए की जाने वाली कार्य प्रणालियों को अभिव्यक्त करता है। "


सौमेन्द्र पटनायक (2006)

शोध प्रारूप का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत करते हुये कहते हैं कि "शोध प्रारूप एक प्रकार की रूपरेखा है, जिसे आपको शोध के वास्तविक क्रियान्वयन पहले तैयार करना है। यह योजनाबद्ध रूप से तैयार एक खाका होता है जो उस रीति को बतलाता है जिसमें आपने अपने शोध की कार्य योजना तैयार की है। आपके पास अपने शोध कार्य पर दो पहलुओं से विचार करने का विकल्प है। अनुभवजन्य पहलू और विश्लेषणपरक पहलू। ये दोनों ही पहलू एक साथ आपके मस्तिष्कमें रहते हैं, जबकि व्यवहार में आपको अपना शोध कार्य दो चरणों में नियोजित करना है: एक सामग्री संग्रहण का चरण और दूसरा उस सामग्री के विश्लेषण का चरण। आपकी मनोगत सैद्धान्तिक उन्मुखता और अवधारणात्मक प्रतिदर्शताएँ आपको इस शोध सामग्री के स्वरूप को निर्धारित करने में मदद करती हैं जो आपको एकत्र करनी है और कुछ हद तक यह समझने में भी कि आपको उन्हें कैसे एकत्र करना है। तदुपरान्त अपनी सामग्री का विश्लेषण करते समय फिर से आमतौर पर सामाजिक यथार्थ संबंधी सैद्धान्तिक और अवधारणात्मक समझ के सहारे आपको अपने शोध परिणामों को स्पष्ट करने में और उसे प्रस्तुत करने के लिए शोध सामग्री को वर्गीकृत करने में और विन्यास विशेष को पहचानने में दिशा निर्देशन मिलता है।" 


श्रीमती पी.वी. यंग (1977) का मानना है कि,

'जब एक सामान्य वैज्ञानिक मॉडल को विविध कार्य विधियों में परिणत किया जाता है तो शोध प्रारूप की उत्पत्ति होती है। शोध प्रारूप उपलब्ध समय, कर्म शक्ति एवं धन, तथ्यों की उपलब्धता, उस सीमा तक जहाँ तक यह वांछित या सम्भव हो उन लोगों एवं सामाजिक संगठनों पर थोपना जो तथ्य उपलब्ध कराएंगे, के अनुरूप होना चाहिए।"


ई.ए. सचमैन (1954) के अनुसार,

"एकल या सही प्रारूप जैसा कुछ नहीं है... शोध प्रारूप सामाजिक शोध में आने वाले बहुत से व्यावहारिक विचारों के कारण आदेशित समझौते का प्रतिनिधित्व करता है... (साथ ही) अलग-अलग कार्यकर्ता अलग-अलग प्रारूप अपनी पद्धति शास्त्रीय एवं सैद्धांतिक प्रतिस्थापनाओं के पक्ष में लेकर आते है... एक शोध प्रारूप विचलन का अनुसरण किए बिना कोई उच्च विशिष्ट योजना नहीं है, अपितु सही दिशा में रखने के लिए मार्गदर्शक स्तम्भों की श्रेणी है।"


अन्य शब्दों में, शोध प्रारूप एक काम चलाऊ संयंत्र के रूप में होता है। अध्ययन जैसे-जैसे प्रगति करता है, नई दशाएँ, नए पक्ष और तथ्यों में नवीन संबंधित पक्ष प्रकाश में आते हैं और यह परिस्थितियों की जरूरत के अनुसार आवश्यक होता है कि योजना परिवर्तित/संशोधित कर दी जाए। परियोजना का लोचदार होना आवश्यक होता है। लोचपन का न होना पूरे अध्ययन की उपयोगिता को नष्ट कर सकता है। (उद्धृत पी. वी. यंग 1977 : 131)