सामाजिक समूह का अवधारणा, विशेषता, प्रकार और तत्व, अर्थ, परिभाषा - Social Groups

Concept, Characteristics, Types and Elements of Social Group, Meaning, Definition

Concept, Characteristics, Types and Elements of Social Group, Meaning, Definition

सामाजिक समूह का अवधारणा, विशेषता, प्रकार और तत्व, अर्थ, परिभाषा

सामाजिक जीवन की प्रमुख विशेषता यह है कि मनुष्य परस्पर अन्तर्क्रिया करते हैं, संवाद करते हैं तथा सामाजिक सामूहिकता को निर्मित भी करते हैं। मनुष्य अपना जीवन अकेले न बिताकर अन्य मनुष्यों के साथ समूहों के अन्तर्गत बिताता है। इसके सर्वप्रमुख दो कारण है- प्रथम वह सामाजिक प्राणी होने के कारण समूह में रहना पसन्द करता है तथा दूसरे, उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य व्यक्तियों पर आश्रित होना पड़ता है। मनुष्य की जन्म से लेकर मृत्यु तक अनेक आवश्यकताएँ होती हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समूह में रहना आवश्यक है। सामाजिक समूहों का समाजशास्त्रीय अध्ययन 20वीं शताब्दी में ही प्रारम्भ हुआ है। इससे पहले अधिकांश विद्वान् समाज के उद्भव एवं विकास को समझने में ही लगे हुए थे औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप सामाजिक समूहों के सदस्यों में पाए जाने वाले सम्बन्धों में तीव्र गति में परिवर्तन हुए जिसे समझने के प्रयास किए जाने लगे।

सामाजिक समूह का अर्थ एवं परिभाषाएँ

सामाजिक समूह केवल व्यक्तियों का संग्रह मात्र ही नहीं है। इन व्यक्तियों के मध्य पारस्परिक सम्बन्धों का होना अत्यावश्यक है। जिस समय दो या दो से अधिक व्यक्ति कतिपय सामान्य उद्देश्यों अथवा लाभों की पूर्ति हेतु परस्पर सम्बन्धों की स्थापना करते हैं और अपने व्यवहार द्वारा एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, तो उसे सामाजिक समूह की संज्ञा दी जा सकती है।

मेकाइवर एवं पेज के अनुसार "समूह से हमारा तात्पर्य ऐसे व्यक्तियों के संग्रह से है जो एक-दूसरे के साथ सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं।"

 बोगार्डस के अनुसार "एक सामाजिक समूह का अर्थ हम दो या अधिक व्यक्तियों के ऐसे संग्रह से लगा सकते हैं जिनके ध्यान के कुछ सामान्य लक्ष्य होते हैं, जो एक-दूसरे को प्रेरणा देते हैं, जिनमें सामान्य वफादारी पाई जाती है और जो समान क्रियाओं में भाग लेते हैं।"





. ऑगबर्न एवं निमकॉफ के अनुसार "जब कभी दो या दो से अधिक व्यक्ति एकत्र होकर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं तो वे एक सामाजिक समूह का निर्माण करते हैं।" 

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि सामाजिक समूह केवल व्यक्तियों का संग्रह मात्र ही नहीं है। इन व्यक्तियों के मध्य पारस्परिक सम्बन्धों का होना अत्यावश्यक है। अतः कहा जा सकता है कि जिस समय दो या दो से अधिक व्यक्ति कतिपय सामान्य उद्देश्श्य अथवा लाभों की पूर्ति हेतु परस्पर सम्बन्धों की स्थापना करते हैं और अपने व्यवहार द्वारा एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, तो उसे सामाजिक समूह की संज्ञा दी जा सकती है।

 

सामाजिक समूह की विशेषताएँ

समूह व्यक्तियों का संग्रह है- समूह के लिए व्यक्तियों का होना आवश्यक है। यह आवश्यक नहीं है कि समूह के सदस्यों में शारीरिक निकटता ही हो, परन्तु उनके मध्य अन्तर्क्रिया का होना आवश्यक है।

समूह की अपनी सामाजिक संरचना होती है- प्रत्येक समूह की एक सामाजिक संरचना होती है। फिचर के अनुसार प्रत्येक समूह की अपनी सामाजिक संरचना होती है। उस संरचना में व्यक्तियों की प्रस्थिति निर्धारित होती है। प्रत्येक समूह में आयु, लिंग, जाति, व्यवसाय आदि के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण पाया जाता है।


• समूह में कार्यात्मक विभाजन होता है- समूह में संगठन बनाए रखने के लिए प्रत्येक सदस्य विविध कार्य करता है। शिक्षण संस्था में प्रत्येक शिक्षक अलग-अलग विषय को पढ़ाते हैं तथा ज्ञान देने के लक्ष्य को पूरा करते हैं । प्रधानार्चाय, लिपिक वर्ग अपने निर्धारित कार्यों को करते है ।


 समूह विशेष की सदस्यता एच्छिक होती है- परिवार जैसे समूह को छोड़कर अन्य सभी समूहों की सदस्यता ऐच्छिक होती है। यह व्यक्ति की व्यक्तिगत रुचि तथा लक्ष्यों की प्रकृति पर निर्भर करता है कि वह किस समूह का सदस्य बनेगा।

 




सामाजिक मानदण्ड समूह में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं- समूह अपने अस्तित्व के लिए कुछ मानदण्डों या आदर्श नियमों की स्थापना करता है। इनके द्वारा वह अपने सदस्यों के व्यवहार को नियन्त्रित करता है।

 

समूह एक मूर्त संगठन है- सामाजिक समूह समान उद्देश्यों व लक्ष्यों वाले व्यक्तियों का संकलन है क्योंकि यह व्यक्तियों का संकलन है अतएव यह मूर्त होता है।

 

 सामाजिक समूहों के प्रकार 

(अ) समनर का वर्गीकरण- समनर ने समूह के सदस्यों में घनिष्ठता व सामाजिक दूरी के आधार पर समस्त समूहों को निम्नलिखित दो प्रकारों में वर्गीकृत किया है

1. अन्तः समूह - 

जिन समूहों के साथ कोई व्यक्ति पूर्ण एकात्मकता या तादात्म्य स्थापित करता है उन्हें उसका अन्तःसमूह (In-group) कहा जाता है। अन्तः समूह के सदस्यों के मध्य अपनत्व की भावना पाई जाती है। वे अन्तःसमूह के अपना सुख तथा दुःख को अपना दुःख मानते हैं। 

2. बाह्यसमूह - 

कोई व्यक्ति बाह्यसमूह का उल्लेख अपने अन्तःसमूह के सन्दर्भ में करता है। बाह्यसमूहों (Out-groups) के लिए वह 'वे' या 'अन्य' जैसे शब्दों का प्रयोग करता है। बाह्यसमूह में जो गुण पाए जाते हैं वे अन्तःसमूह से विपरीत होते हैं। इसमें इस तरह की भावना होती है व्यक्ति इसे दूसरों का समूह समझता है। इसी कारण बाह्यसमूह के प्रति सहयोग, सहानुभूति, स्नेह आदि का सर्वथा अभाव होता है।

(ब) कूले का वर्गीकरण चार्ल्स कूले ने प्राथमिक (Primary) एवं द्वितीयक (Secondary) समूह में भेद किया है।





1. प्राथमिक समूह-  

चार्ल्स कूले ने 1909 ई० में अपनी कृति 'सामाजिक संगठन' (Social Organization) में प्राथमिक समूह की अवधारणा का प्रयोग किया। चार्ल्स कूले ने प्राथमिक समूहों के तीन प्रमुख उदाहरण दिए हैं- 

1. परिवार 

2. क्रीड़ा समूह 

3. पड़ोस

मानव के जीवन में स्नेह, प्रेम, सहानुभूति आदि भाव महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन भावों के विकास में प्राथमिक समूह की मुख्य भूमिका है। ऐसे गुणों के कारण समाज के संगठन को स्थायित्व प्राप्त होता है। मानव जब जन्म लेता है तो उसका रूप पूर्णतः जैविक होता है। सर्वप्रथम वह परिवार के सम्पर्क में आता है। तथा परिवार उसे सामाजिक प्राणी बनाता है। चूँकि परिवार मनुष्य के जीवन में प्रथम या प्राथमिक है, इसलिए इसे प्राथमिक समूह कहा जाता है। प्राथमिक समूह से अभिप्राय उन समूहों से है जिनमें प्रत्यक्ष अनौपचारिक घनिष्ठ एवं प्राथमिक सम्बन्ध पाए जाते हैं।

 

2. द्वितीयक समूह

 आज सभ्यता की उन्नति के साथ-साथ द्वितीयक समूहों - की संख्या में वृद्धि होती जा रही है। द्वितीयक समूह की प्रकृति प्राथमिक समूह की प्रकृति के विपरीत होती है। किंग्सले डेविस का कथन है कि, "स्थूल रूप से द्वितीय समूहों को, जो चीजें प्राथमिक समूह के बारे में कही गई हैं उनके विपरीत कहकर परिभाषित किया जा सकता है। द्वितीयक समूह इतने विस्तृत क्षेत्र में फैले होते हैं कि इनके सदस्यों को निकटता में रहने की आव यकता नहीं होती। न ही सभी एक दूसरे को वैयक्तिक रूप में जानते हैं। इनमें ऐसे सम्बन्ध होते हैं जो स्वयं में लक्ष्य नहीं होते, न वैयक्तिक और न ही संयुक्त होते हैं। अतः प्राथमिक समूह के विपरीत विशेषताओं वाले समूह को द्वितीयक समूह की संज्ञा दी जाती है। यह समूह का वह रूप है जो अपने सामाजिक सम्पर्क और औपचारिक संगठन की मात्रा में प्राथमिक समूहों की घनिष्ठता से भिन्न है।





सन्दर्भ समूह - 

सामाजिक समूह के प्रमुख प्रकारों में सुप्रसिद्ध अमेरिकी समाजशास्त्रीय रोबर्ट के० मर्टन द्वारा प्रतिपादित सन्दर्भ समूह की अवधारणा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस अवधारणा का प्रयोग मनोविज्ञान में भी किया जाता है। मर्टन ने 'द अमेरिकन सोल्जर पुस्तक से सामग्री लेकर अपने सैद्धान्तिक विचारों को व्यावहारिक रूप से समझाने का प्रयास किया है। यद्यपि सन्दर्भ समूह से सम्बन्धित कुछ तथ्य इस अवधारणा से पहले ही प्रकाश में आ गए थे तथापि इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम हाइमन द्वारा अपनी सुप्रसिद्ध कृति प्रस्थिति का मनोविज्ञान में 1972 में किया गया जिसके पश्चात् यह अवधारणा समाजशास्त्र में प्रचलित हुई।

 

सन्दर्भ समूह -  

समूह से अभिप्राय उस समूह से है जिसे आधार मानकर व्यक्ति अपने आप का मूल्यांकन करता है तथा अपने आप को उस समूह की भाँति बनाने का प्रयास करता है। ये एक प्रकार से वह समूह है जिसका प्रयोग कोई व्यक्ति तुलना के लिए मापदण्ड के रूप में करता है। मर्टन के अनुसार सन्दर्भ समूह के सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य सामान्य रूप से मूल्यांकन की उस प्रक्रिया को व्यवस्थित रूप प्रदान करना है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी तुलना अन्य समूहों अथवा व्यक्तियों से करके उनके मूल्यों एवं प्रतिमानों को प्राप्त करने का प्रयास करता है । सन्दर्भ समूह अन्तःसमूह भी हो सकते हैं अथवा बाह्यसमूह भी।

निष्कर्ष  

व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है तथा वह प्रारम्भ से ही सामाजिक समूहों में निवास करता रहा है। सामाजिक समूह अनेक प्रकार के होते हैं। सबसे चर्चित सामाजिक समूह समनर द्वारा वर्णित अन्तःसमूह एवं बाह्यसमूह तथा कूले द्वारा वर्णित प्राथमिक एवं द्वितीयक समूह हैं। अन्तःसमूह को व्यक्ति अपना समूह मानता है तथा इसके सदस्यों में अपनत्व की भावना पाई जाती है। बाह्यसमूह को पराया माना जाता है तथा इसके सदस्यों के प्रति अपनत्व की भावना का अभाव पाया जाता है। प्राथमिक समूह आकार में छोटे होते हैं। सदस्यों में भौतिक निकटता पायी जाती है। तथा इसके सदस्यों के सम्बन्धों में स्थायित्व पाया जाता है। प्राथमिक समूह के विपरीत विशेषताओं वाले समूह को द्वितीयक समूह कहते हैं। सुप्रसिद्ध अमेरिकी समाजशास्त्री रोबर्ट के० मर्टन द्वारा प्रतिपादित 'सन्दर्भ समूह' की अवधारणा भी अत्यन्त चर्चित है। सन्दर्भ समूह से अभिप्राय उस समूह से हैं जिससे व्यक्ति अपने आप का मूल्यांकन करता है तथा उस समूह की भाँति अपने को बनाने का प्रयास करता है ।