सामाजिक नियोजन एक प्रक्रिया के रूप में - Social Planning as A Process
सामाजिक नियोजन एक प्रक्रिया के रूप में - Social Planning as A Process
नियोजन प्रक्रिया के क्रमबद्धता का पालन तार्किक रूप से करना अत्यंत आवश्यक होता है ताकि कार्यक्रम समुदाय के सदस्यों की समस्याओं एवं आवश्कताओं के साथ सार्थक रूप से संबंधित रह सके साथ ही स्थ ही साथ वे समुदाय के निर्धारित उद्देश्यों लक्ष्यों एवं सामाजिक मूल्यों की व्यवस्था के अनुरूप प्रतिपादित एवं कार्यान्वित की जा सके विकास के लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को ध्यान में रखकर जो कार्यक्रम प्रस्तावित किये जाते है उन्हें निवेश या लागत का क्रम नाम दे देते है। क्षेत्र तथा सेवार्थियों को जिन्हें इन कार्यक्रमों से विशेष लाभ होता है, कार्यान्वयन हेतु जो निश्चित कार्य किये जाते है, उन्हें लक्ष्य कहते हैं। सामाजिक नियोजन के अंतर्गत विकास की सेवाओं का मूल्यांन न केवल लक्ष्यों की उपलब्धि के आधार पर जाता है, बल्कि यह उद्देश्यों के संदर्भ में कार्यक्रम की प्रभाविता के आधार पर भी किया जाता है। इस प्रभावित या प्रभाव को हम परिणाम (Output) कहते हैं। इस प्रकार के प्रभाव को कार्यक्रम का प्रतिफल कहते हैं।
लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अनेक उद्देश्यों को ध्यान में रखना पड़ता है। वे उद्देश्य परस्पर अन्तर्संबंधित होते हैं जिसे कार्यक्रम की रणनीति कहा जाता है। लक्ष्यों का निर्धारण करने से पहले हम उस क्षेत्र के विषय में मूलभूत जानकारियाँ प्राप्त करते हैं तथा उस क्षेत्र में कार्यान्वित किये गये कार्यक्रमों तथा उनकी कमियों का विश्लेषण करते हैं। इस संदर्भ विश्लेषण (Context analysts) के लिए, कुछ सूचकों को आधार मानकर अध्ययन आधार वर्ष (Base Year) निर्धारित कर लेते हैं। कार्यक्रम का मूल्यांकन निश्चित किए गए लक्ष्य की प्राप्ति के आधार पर की जाती है। इन मध्यवर्ती मूल्यांकनों की इस प्रक्रिया को खण्डीय विश्लेषण के अंतर्गत किय गये कार्यक्रमों का मूल्यांकन, कमियों (gaps) की जानकारी, कार्यक्रमों में आने वाली बाधाओं आदि का साथ-साथ है जिसे स्थितिपरक य विश्लेषण करते विश्लेषण (Sectoral analysis) कहते हैं।
स्थिति परक विश्लेषण के आधार पर ही किसी क्षेत्र में प्रस्तावित कार्यक्रमों के उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है। ये उद्देश्य राज्य तथा केन्द्र द्वारा संचालित कार्यक्रम एवं लक्ष्यों के अनुरूप ही होते हैं। नियोजनकर्ता इन उद्देश्यों को निर्धारित कर, वर्तमान कमियों को ध्यान में रखते हुए ऐसे कार्यक्रम प्रस्तुत करता है जिससे इन कमियों को दूर किया जा सके। इन कमियों के गुणात्मक प्रभाव के साथ-साथ भौतिक उपलब्धि के दृष्टिकोण को भी ध्यान में रखना पड़ता है। इस प्रकार इनका कार्य गुणात्मक एवं परिमाणात्मक प्रतिमानों को निश्चित करना भी होता है। यह अवश्य ही ध्यान में रखा जाता है कि जो प्रतिमान केन्द्रीय सरकार ने निर्धारित किया है वे इस क्षेत्र के लिए उपयुक्त है अथवा नये प्रतिमानों की आवश्यकता है। इन प्रतिमानों के आधार पर ही कार्यक्रमों का नियोजन किया जाता है।
योजना के निर्माण एवं कार्यान्वयवन में सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह होता है कि उपलब्ध एवं प्रत्याशित संसाधनों का मूल्यांकन करना होता है। संसाधनों को स्थानीय स्तर पर किस प्रकार एवं कैसे गतिशील बनाया जाए। इसे भी दो भागों में विभक्त किया जाता है -
I. मानव शक्ति संसाधन या मानवीय संसाधन
II. भौतिक संसाधन
मानवीय शक्ति संसाधन के अंतर्गत श्रमिकों तथा कार्यकर्ताओं की उपलब्धता, तथा भौतिक संसाधनों के अंतर्गत इकाईयों की संख्याप्रौद्योगिकी के स्तर संसाधनों की लागत इत्यादि को सम्मिलित किया जा सकता है।
सामाजिक नियोजन की प्रक्रिया को विभिन्न चरणों के माध्यम से गुजरना पड़ता है जो इस प्रकार है -
1) विकास के लक्ष्यों तथा मूल्यों का निर्धारण
2) परिस्थिति विश्लेषण
3) वर्तमान में चल रही योजनाओं के गुणात्मक तथा परिमाणात्मक आयामों का ज्ञान
4) क्षेत्रीय संगठनों का गठन ताकि सेवाओं का समुचित उपयोग हो सके
5) विशिष्ट उद्देश्यों तथा रणनीति का निर्धारण
(6) खण्डीय नियोजन का कार्य (निवेश, लक्ष्य, क्षेत्र इत्यादि का निर्धारण)
7) आर्थिक तथा सामाजिक निवेशों के बीच अन्तर्सम्बन्धों की स्थापना
8) प्रशिक्षण तथा संसार सम्बन्धी प्रस्ताव
9) क्रिया नियोजन तथा कार्यों का स्पष्टीकरण
10) बजट की स्थापना
(क) सामाजिक तथा आर्थिक विकास योजनाओं का एकीकरण
(ख) प्रशिक्षण तथा अभिमुखीकरण
(ग) परिवीक्षण तथा मूल्यांकन
(घ) कार्य के लिए अपेक्षित उपकरणों का निर्माण
(ङ) सेवायें प्रदान करने की विधि का निर्धारण
(च) संस्था की स्थापना
सामाजिक नियोजन की आधारभूत कार्यरीति नियोजन की प्रक्रिया के अर्न्तगत निम्न बातों का स्पष्ट विवरण प्रस्तुत किया जाता है:
1. सम्भावित साधनों तथा कार्य लक्ष्यों से सम्बन्धित मूल्यों की प्राथमिकताओं का स्पट चित्रण।
2. सामाजिक समस्या का उचित निदान जिस पर कार्य करने की आवश्यकता है (यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि कौन-कौन सी स्थितियाँ किस समस्या को उत्पन्न करने तथा बनाये रखने के लिए उत्तरदायी हैं)।
3. प्रचलित सामाजिक मूल्यों के साथ प्रक्रिया प्रारूप, जिसका उपयोग समाधान के लिये किये जा रहा है, की अनुरूपता का निर्धारण (यदि यह अनुरूपता सकारात्मक है तो निरोधात्मक अथवा उपचारात्मक विधि कार्य करेगी अन्यथा असफलता हाथ आयेगी।)
4. उपलब्ध ज्ञान का अवलोकन (उपलब्ध सभी सम्बन्धित तथ्यों का वर्तमान समस्या के सन्दर्भ में अध्ययन।
5. अध्ययन के आधार पर योजना का प्रस्तुतीकरण
6. सम्भावित परिणामों का अवलोकन
7. सम्पूर्ण कार्यान्वयन प्रक्रिया का मूल्यांकन
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