दुर्खीम द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत - Theory of Emile Durkheim

दुर्खीम द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत - Theory of Emile Durkheim

यद्यपि दुखॉम की वैचारिक संरचना को सैद्धांतिक ढांचे में सीमित कर पाना दुष्कर है परंतु इनकी मूल वैचारिकी के रूप में समाज की वस्तु के रूप में सामाजिक तथ्य, विपटनकारी व्यवहार के रूप में आत्महत्या, जनसंख्या के पनत्व में वृद्धि से उत्पन्न श्रम विभाजन, टोटम के आधार पर धर्म की सामाजिक व्याख्या आदि सिद्धांत शामिल किए जा सकते हैं। 


सामाजिक तथ्य

सामाजिक तथ्य का प्रतिपादन दुखॉम ने अपनी पुस्तक 'The Rules of Sociological Method में किया है। सामाजिक तथ्यों का वैज्ञानिक रूप से अध्ययन करने के लिए दुखींन के अनुसार पहला और मौलिक नियम यह है कि सामाजिक तथ्य एक वस्तु है और उस पर विचार भी वस्तु के रूप में ही किया जाए अर्थात वैज्ञानिक विश्लेषण करने हेतु सामाजिक पटना अथवा समस्या को एक वस्तु के रूप में पक्षपातरहित होकर अवलोकित किया जाए और इस प्रकार से ही यथार्थ को जाना जा सकता है। दुखम ने सामाजिक तथ्य को परिभाषित करते लिखा है,


सामाजिक तथ्य व्यवहार करने, विचार करने व अनुभव करने का वह तरीका है, जो मनुष्य की चेतना के बाहर अवस्थित होता है और उनमें मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित करने की दबाबमूलक क्षमता होती है।" इस प्रकार सभी नियम मूल्यमान्यताएं प्रतिमान, भाषा, आर्थिक व्यवस्था आदि सामाजिक तथ्य के उदाहरण है। दुखाँम ने सामाजिक तथ्यों की मूल रूप से दो विशेषताओं का उल्लेख किया है


● पहली विशेषता यह है कि यह व्यक्ति की चेतना और प्रभाव से बाह्य होता है अर्थात इसमें बाह्यता का गुण पाया जाता है।


दूसरी विशेषता यह है कि सामाजिक तथ्यों में बाध्यता का गुण पाया जाता है। इन दोनों विशेषताओं को एक उदाहरण की सहायता से सरलता से समझा जा सकता है। हिंदीभाषा एक सामाजिक तथ्य है हिंदी भाषा का अस्तित्व किसी व्यक्ति विशेष यथा भारतेंदु हरिश्चंद्र अथवा मैथिलीशरण गुम के अस्तित्व में पहले से ही है और न ही किसी व्यक्ति विशेष के मर जाने अथवा हिंदी भाषा के त्याग कर देने से इसके अस्तित्व पर कोई संकट आ जाता है। अर्थात् यह व्यक्ति से परे है और इसमें बाह्यता का गुण पाया जाता है। इसी प्रकार यदि हिंदी भाषी समाजों में संचार अथवा वार्तालाप करना है तो उसके लिए माध्यम के रूप में हिंदी भाषा का सहारा लेना पड़ेगा। अतः इसमें बाध्यता का गुण भी पाया जाता है। दुखीम ने सामाजिक तथ्य के दो प्रकारों की चर्चा की है


* सामान्य सामाजिक तथ्य का तात्पर्य उन घटनाओं से है जो लगभग विभिन्न समाजों में निश्चित दर से घटित होती रहती हैं और जिनकी भूमिका समाज को संगठित करने में महत्वपूर्ण होती है। सामान्य सामाजिक सथ्यों को कुछ विशेषताओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है


• सामान्यता (सभी समाजों में विद्यमान)


• निश्चित र


संगठनकारी शक्ति


विशिष्टता


● उपयोगिता


* व्याधिकीय सामाजिक तथ्य से आशय उन पटनाओं से है जो सामाजिक मूल्यों के विरुद्ध होती है और ये समाज में विचलन विसंगति उत्पन्न करती है।


आत्महत्या का सिद्धांत

दुःखीम ने अपनी पुस्तक Le Stuicide" (The Suicide) में विविध आंकड़ों के आधार पर आत्महत्या सिद्धांत का प्रस्तुत किया। उन्होंने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि अत्महत्या किसी व्यक्तिगत कारण का परिणाम नहीं है वरन यह एक सामाजिक तथ्य है और इसका संबंध सामाजिक दशाओं और वैयक्तिक असमायोजन से उत्पन्न प्रतिध्वनि से है। दुख के अनुसार


"आत्महत्या का सामाजिक पर्यावरण की अनेक दशाओं के मध्य सबंध उतना ही अधिक प्रत्यक्ष और सटीक होता है जितना कि जैक और भौतिक दशा आत्महत्या के साथ अनिश्चित और अस्पष्ट को अभिव्यक्त करती है।


आत्महत्या के लिए दुखम सीधे तौर पर समाज को जिम्मेदार मानते हैं और वे कहते हैं कि इसके लिए सामाजिक संरचना व्यवस्था के साथ जब व्यक्ति सामजस्य स्थापित नहीं कर पाता है, तो वह समाज से अगावित होकर आत्महत्या कर लेता है। दुखीम ने आत्महत्या के निम्न प्रकारों का उल्लेख किया है


★ अहम्वादी आत्महत्या- यह एक ऐसी सामाजिक स्थिति का परिणाम है जिसमें समूह के नियंत्रण में बहुत कमी हो जाने के कारण व्यक्ति और समूह वा समाज का संबंध अत्यंत कामोर पड़ने लगता है और कुछ समय के उपरांत व्यक्ति स्वयं को समाज से कटा हुआ महसूस करने लगता है। दुखीम ने इसका मूल कारण अवाद को बताया है। वह सोचने लगता है कि उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज नहीं कर सकता है और न ही समाज का उसके प्रति कोई उत्तरदायित्व है। इस परिस्थिति में वह निराश होकर अत्महत्या कर लेता है। दुखीम ने अपने अध्ययन के दौरान यह पाया कि इस प्रकार की आत्महत्या विवाहितों की अपेक्षा अविवाहितों में अधिक होती है, क्योंकि वे सामाजिक और भावनात्मक दृष्टि से समाज से अपेक्षाकृत दूर होते हैं।


परार्थवादी अत्महत्या वह अहंवादी आत्महत्या का विपरीत रूप है। इसमें व्यक्ति समूह या समाज से इतना घुल-मिल जाता है कि वह स्वयं को समाज काही अंश मानने लगता है और उससे अलग नहीं हो पाता। यथा- सती प्रथा में स्त्रियों का पति के शव के साथ ही सती हो जाना, युद्ध के दौरान सैनिकों द्वारा की गई आत्महत्या आदि।


* आदर्शविहीन अत्महत्या इसका मूल कारण समाज में प्रतिमानहिनता की दशा है। जब किंचित आकस्मिक दशाओं के परिणामस्वरूप समाज का संगठन और उसका नैतिक संतुलन बिगड़ जाता है और इन परिस्थितियों में व्यक्ति उनसे समायोजन स्थापित नहीं करता है तो वह आत्महत्या कर लेता है। यथा- अकाल के समय हुई आत्महत्या, दहेज के बोझ से की गई आत्महत्या आदि।


* भाग्यवादी आत्महत्या इसके लिए उत्तरदायी कारक आवश्यकता से अधिक नियंत्रण, आदर्शवादिता और दृढ़ नियम पालन होता है और इससे तंग आकार व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। यथा- संतानहीन श्री द्वारा की गई आत्महत्या गुलाम द्वारा अत्याचारों से तंग आकर की गई आत्महत्या आदि।


श्रम विभाजन का सिद्धांत


इसका प्रतिपादन दुखीम ने अपनी पुस्तक The Division of Labour in Socien" में किया है। यद्यपि दुखॉम से पूर्व एडम स्मिथ हर्बर्ट स्पेन्सर जे.एम. मित आदि विद्वानों द्वारा आर्थिक आधार पर क्षम विभाजन के सिद्धांत को प्रस्तुत किया जा चुका है परंतु दुखीम द्वारा प्रतिपादित श्रम विभाजन का सामाजिक सिद्धांत एक पृथक अस्तित्व रखता है। उनके अनुसार श्रम विभाजन प्रत्येक समाजों की एक अनिवार्य विशेषता रही है। दुखीम ने श्रम विभाजन के दो कारणों का उल्लेख किया है।


जनसंख्या के भौतिक घनत्व में वृद्धि - जनसंख्या के नैतिक पनत्व में वृद्धि दुर्खीम का मानना है कि आरंभ में मानव समाज की जनसंख्या कम थी और उनकी आवश्यकताएँ कम थी तथा उनके सापेक्ष साधन अधिक थे। सभी लोग अपनी आवश्यकतानुसार कार्य करने में संलग्न थे। समय परिवर्तित हुआ और जनसंख्या में वृद्धि हुई जिससे लोगों की आवश्यकताओं में वृद्धि हुई और इससे समाज का नैतिक दायित्व भी बढ़ा। इसके परिणामस्वरूप समाज में प्रतिस्पर्धा और संघर्ष के स्थान पर सामजस्व और सहयोग को स्थापित करने के लिए उनके कार्यों का बंटवारा किया गया। समाज की इसी आवश्यकता ने श्रम विभाजन की नींव रखी। दुखीम ने श्रम विभाजन को दो भागों में बांटा है 


1. सामान्य श्रम विभाजन- यह श्रम विभाजन सामाजिक एकता में वृद्धि करता है।


2. व्याधिकीय श्रम विभाजन- यह श्रम विभाजन सामाजिक एकता को कमजोर करने का काम करता है। इसके दो प्रकार हैं। अप्रतिमानित अम विभाजन- जब श्रम विभाजन बिलकुल अतिवादी ढंग से लागू किया जाता है और इसके परिणामस्वरूप मजदूरपूरी उत्पादन प्रणाली से स्वयं को अलग-थलग महसूस करने लगता है।


● विवशतामूलक श्रम विभाजन- जब किसी वैकल्पिक रोजगार के अभाव में मजदूर किसी भी कार्य को करने के लिए मजबूर हो जाता है। यथा- बंधु आमजदूर दास प्रथा आदि। 


धर्म का सामाजिक सिद्धांत

अपनी पुस्तक 'The Elementary Forms of Religions Life में दुखॉम ने धर्म की उत्पत्ति और सामाजिक प्रकार्गों को आधार बनाकर धर्म की सामाजिक व्याख्या प्रस्तुत की है। उन्होंने आस्ट्रेलिया की अरुण्टा जनजाति के आनुभविक अध्ययन के आधार पर धर्म का सामाजिक सिद्धांत प्रतिपादित किया है। वास्तव में, धर्म का संबंध कुछ वस्तुओं और व्यवहारों को पवित्र मानने तथा विभिन्न अनुष्ठानों क विश्वासों के आधार पर अपवित्र वस्तुओं और व्यवहारों को उनसे दूर रखने से है। पवित्रता की धारणा ही समाज में समूहिक चेतना का सृजन करता है। अरुण्टा जनजाति के लोग जिस वस्तु पत्थर, पेड़ अथवा पक्षी को अपना टोटम मानते हैं, उसको पवित्र मानकर सदैव उसकी रक्षा करते हैं। इस तरह धर्म का प्रकार्य समाज की एकता को बढ़ाना और उनके अनुयायियों के व्यवहार को अनुशासित करके सामूहिक चेतना में वृद्धि करना होता है।