जैन दर्शन और शिक्षा - Jain Philosophy and Education
जैन दर्शन और शिक्षा - Jain Philosophy and Education
भारतीय चिंतनधारा में जैन दर्शन की पर्याप्त स्वतंत्रता दृष्टिगत होती है, जो वेदों की सत्ता को स्वीकार नहीं करता है। जैन-दर्शन की मान्यता है कि "ईश्वर की अवधारणा के बिना इस ब्रहमांड के रहस्य को सुलझाना और पूर्णतया प्राप्त कर लेना संभव है।"
शिक्षा से अभिप्राय
जैन-दर्शन के अनुसार जो ज्ञान व्यक्ति को सद्जीवन की और प्रेरित करता है वही विद्या है। जान चाहे सांसारिक हो अथवा धार्मिक अथवा व्यावसायिक, यदि वह व्यक्ति तथा समाज के लिए हितकारी है तो उसे शिक्षा का अंग माना जाएगा अन्यथा नहीं। वह सभी ज्ञान उपयोगी है, जो मनुष्य को सदचरित्र की और प्रेरित करे। जैन दर्शन में शिक्षा उदात्त जीवन हेतु एवं निर्वाण प्राप्ति हेतु सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन एवं सम्यक्-चरित्र की प्रक्रिया है।
जैन-दर्शन के अनुसार सम्यन्जान तो अध्ययन द्वारा अर्जित किया जा सकता है परंतु सम्यग्दर्शन का उदय तभी होता है, जब अजान तथा अकरणीय के प्रति विरक्ति होती है, जिसे जैन-दर्शन की शब्दावली में निर्जरा कहा गया है। सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक दर्शन का समाहार सम्यक्-चरित्र में होना चाहिए। अहित कार्यों का निवारण तथा हित-कार्यों का आचरण सम्यक्-चरित्र कहलाता है। ज्ञान और श्रद्धा की परिणति आचरण में होनी चाहिए जैन शिक्षा व्यक्ति को पांच महाव्रत, चार धर्म तथातीन अनुशासन प्रदान करती है। इसके अतिरिक्त यह शिक्षा मनुष्य को सामाजिक तथा व्यक्तिगत जीवन उचित व्यवहार करना सिखाती है।
शिक्षा के उद्देश्य
उपर्युक्त चर्चा के आधार पर जैन-दर्शन के शिक्षा संबंधी उद्देश्यों को संक्षेप रूप में निम्नप्रकार से देखा जा सकता है-
• सम्यक ज्ञान-प्रदान करना
• व्यक्ति को सद्बुल्लियों से संयुक्त करना
• व्यक्तित्व का समुचित विकास करना व्यक्ति का सामाजिक विकास करना
• मोक्ष या निर्वाण प्राप्त करना
पाठ्यचर्या
जैन-दर्शन में ज्ञान को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। मनुष्य को पहले ज्ञान प्राप्त करना चाहिए तभी वह अहिंसा का पालन कर सकता है।" जैन-दर्शन में आत्मा तथा जगत् दोनों की वास्तविकता को स्वीकार किया गया हैअतः शैक्षिक पाठ्यक्रम में सांसारिक तथा अध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के विषयों को उचित स्थान प्रदान किया गया है।
जगत् संबंधीव्याख्या जो जैनों के 'षद्रव्य निरूपण में मिलती है, उसमें वैज्ञानिकता एवं आध्यात्मिकता का उचित समन्वय दिखाई देता है। जगत् की यह व्याख्या एक और यथार्थता लिए हुए है तो दूसरी और आदर्श से रहित नहीं है। जैनदर्शन शिक्षा संबंधी पाठ्यक्रम में इस जगत् का ठोस ज्ञान, जीवन को बेहतर बनाने के लिए, इसके रहस्यों का उद्घाटन करने के लिए तथा जीवन की सुविधाएँ जुटाने के लिए उपयोगी बताया गया है।
जैन-दर्शन में वनस्पति, मिट्टी, अग्नि, जल तथा वायु में भी जीव माना गया है तथा उनकी आंतरिक शारीरिक संरचना की कल्पना की गई है। उक्त तत्वों का अध्ययन भी शिक्षा क्रम का आवश्यक अंग है। काल अध्ययन तथा जीवन का अध्ययन करने हेतु क्रमशः इतिहास, समाज अध्ययन, कला, कौशल, व्यवसाय, वाणिज्य तथा धार्मिक, नैतिक, शारीरिक क्रियाएं और व्यवसाय संबंधी क्रियाएं जैन-पाठ्यचर्या में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। कहा जा सकता है कि जैन्स्पाठ्यचर्या का जीवन व समाज से गहरा संबंध है।
शिक्षण-विधि
जैन-दर्शन में ज्ञान के पाच प्रकारों का वर्णन किया गया है। यथा-मति, श्रुति, अवधि, मनः पर्यव तथा कैवल्य
• मतिज्ञान साधारण ज्ञान है जो इंद्रियों के माध्यम से प्राप्त होता है (अन्य भारतीय दर्शन में इसे प्रत्यक्ष' की सजा दी गई हैं)।
• श्रुतिज्ञान अथवा शब्द ज्ञान वह है जो लक्षणों, प्रतीकों अथवा शब्दों के द्वारा प्राप्त होता है।
• देश और काल की परिधि को पार करके जो इंद्रियातीत ज्ञान प्राप्त होता है वह अवधिज्ञान कहलाता है।
• मनः पर्यव ज्ञान की प्राप्ति के द्वारा हम अन्य व्यक्तियों के वर्तमान तथा अतीत, विचारों एवं मनोभावों को जान सकते हैं।
• कैवल्यज्ञान वह पूर्ण ज्ञान है जिसके द्वारा सभी द्रव्यों तथा उनके पर्यायों का संपूर्ण ज्ञान हो जाता है। जैन-दर्शन की जान संबंधी मान्यताओं के संदर्भ में स्यादवाद एक अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदु है। स्यादवाद अस्ति नास्तिवाद है जिसका अर्थ यह है कि कोई वस्तु एक ही समय में है और नहीं भी है। किसी वस्तु की पूर्णतः पुष्टि अथवा उसका पूर्णतः निषेध कर सकना असंभव है। उपर्युक्त विचार विमर्श के संदर्भ में जैन दर्शन में ज्ञान प्राप्त करने की निम्नलिखित विधियों का उल्लेख किया जा सकता है-
• इन्द्रिय-प्रत्यक्ष विधि
• तर्क विधि
• वर्णन विधि
• चिंतनमनन विधि
• उपयोग या व्यावहारिक विधिः अंतर्दृष्टि अथवा अंर्तज्ञान विधि
• मनः पर्यव विधि
• कैवल्य ज्ञान की विधि
अध्यापक एवं छात्र-संकल्पना
जैन-दर्शन में छात्र को एक सचेतन, बुद्धि-विवेक युक्त भावनापूर्ण, सज्जीवनोन्मुखी जानेन्द्रियों पर नियंत्रण रखने वाली जीवात्मा कहा गया है। शिक्षा जन्म जन्मान्तर चलने वाली प्रक्रिया या कर्म है। पूर्व जन्म के कर्मानुसार सभी छात्र एक्टूसरे से बुद्धि, मन, भावना में भिन्न होते हैं और उनका विकास अलग-अलग होता है। इनकी भिन्नता के अनुकूल पाठ्यवस्तु को आयोजित किया जाता है।
विद्यार्थी दो प्रकार के होते हैं-
'श्रावक तथा श्रमण' श्रावक अणुव्रती होता है। परंतु दोनों के लिए संयम एवं ब्रह्मचर्य आवश्यक है। श्रावक से यह अपेक्षा रहती है कि वह जैसा भी जीवन व्यतीत करे उसमें पाँच व्रत सूक्ष्म तथा सीमित रूप में प्रतिबिम्बित हाँ श्रमण की शिक्षा पारमार्थिक होती है। उसका प्रयोजन आत्म-कल्याण होता है। अतः उसके लिए कठोर संयम का प्रावधान किया गया है। जैन दर्शन के अनुसार शिक्षक के भी दो स्तरों की चर्चा की गई है। एक शिक्षक अनुशासन तथा चरित्र निर्माण को देखने वाला होता है जिसे आचार्य कहा जाता है। दूसरा शिक्षक जो अध्ययन-अध्यापन का कार्य करता है उसे उपाध्याय कहते हैं। उपाध्याय ज्ञान की विशिष्ट शाखा में निष्णात होता है तथा साथ ही उसका सामान्य ज्ञान उच्च कोटि का होता है। जैन दर्शन में अध्यापक के (आचार्य के अनेक गुणों की भी चर्चा की गई है। जैसे - निष्कलंक चरित्र पंचमहाव्रतों का पालन, जितेन्द्रिय, कषायों (मान, लोभ, मोह, माया) का त्याग, प्रभावशाली व्यक्तित्व आदि।
उपाध्याय में निम्न गुणों की अपेक्षा की गई है। जैसे-लिखित विशिष्ट विषय का पूर्ण ज्ञाता, व्यापक दृष्टिकोण, शिक्षण विधियों में निष्णात अथवा कुशल, समाज में सम्मानित व्यक्तित्व, सांसारिक व्यवहार में कुशल, छात्रों की जिज्ञासा को पूर्ण करने में दक्ष आदि। सार रूप में कहा जा सकता है कि जैन दर्शन की शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तित्व का इस प्रकार समुचित विकास करना है, जिसमें सम्यक् ज्ञान की प्रतीति हो, श्रद्धा हो, भावनाओं का इन्मेष हो तथा चरित्र में ज्ञान एवं विश्वास की परिणति हो।
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