समाज सुधारक स्त्रियाँ एवं उनकी दृश्यता (2)- Social reformer women and their visibility(2)

समाज सुधारक स्त्रियाँ एवं उनकी दृश्यता (2)- Social reformer women and their visibility(2)

जानकी अम्मल (1897-1984)


विश्व प्रसिद्ध वनस्पति विज्ञानी जानकी अम्मल 1950 में भारतीय वनस्पति विज्ञान सर्वे की प्रमुख थी। वह हाइब्रिड गन्ने के विकास में लगी टीम का हिस्सा थीं, जो भारतीय भूमि में विकसित एवं अधिक उत्पादन वाले गन्ने के विकास में योगदान दिया था। जानकी अम्मल मूलतः केरल की रहने वाली थीं। उन्होने वनस्पति विज्ञान में पीएचडी मिशिगन विश्वविद्यालय से किया था। अपने अनुसंधान कार्यों को पूरा करने के लिए वे लंबे समय तक इंग्लैंड में रहीं। डॉ. सुब्रमण्यम ने अपने निबंध में उनके जीवन के बारे में अनुमान लगाया कि वह एक मातृवंशीय परिवार से थीं, जहाँ उस समय केरल में महिलाओं को शिक्षा के विकास पर जोर दिया जाता था

और उन्हें प्रोत्साहित किया जाता था। जिसके परिणाम उन्हे अपने अनुसंधान कार्यों को पूरा करने में सहयोग मिला। उन्होने क्रोमोसोम की संख्या और पौधों के पैटर्न का अध्ययन किया जिसे उन्होंने सह लेखक सी. डी. डार्लिंगटन के साथ “ the Chromosome Atlas of Cultivated Plants के नाम से प्रकाशित किया। उनके द्वारा किया गया यह कार्य वैज्ञानिकों को भविष्य में इन पौधों पर कार्य करने की अंतर्दृष्टि प्रदान की। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनसे निजी तौर पर भारत आने का अनुरोध किया था, तत्पश्चात उन्होने देश के वनस्पति सर्वेक्षण के प्रमुख का पद धारण किया। 1977 में उन्होने पदमश्री पुरस्कार प्राप्त किया। 1999 में उनके नाम से क्रिया वर्गीकरण गठन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार का गठन किया गया है। 


कमला शाहनी (1912-1998)


कमला पेशे से बायोकेमिस्ट थीं। 1933 में बंबई विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद वे भारतीय विज्ञान संस्थान में डॉ. सी वी रमन की लैब में काम करने के लिए आवेदन किया, लेकिन मेरिट में उच्च होने के बावजूद उनका आवेदन एक महिला होने के नाते अस्वीकार कर दिया गया। उनके अनुरोध करने पर उन्हें एक साल के प्रोबेशन पर रखने की सहमति बनी। बाद में उनके काम से प्रभावित हो कर उन्हे वहा काम करने दिया गया। उसके बाद के वर्षों में वे कहती हैं, हालांकि रमन एक महान वैज्ञानिक थे, लेकिन वे बहुत ही संकीर्ण दिमाग के थे। मैं कभी नहीं भूल सकती जो व्यवहार मेरे साथ किया गया क्योकि मै एक औरत थी।

फिर भी मुझे रमन ने नियमित छात्र के रूप मे स्वीकार नहीं किया। यह मेरे लिए महान अपमान था। महिलाओं के साथ उस समय पूर्वाग्रह इतना बुरा था। क्या नोबल पुरस्कार विजेता तरह इस के बर्ताव की है, तो उम्मीद कर सकते हैं। मैं भाग्यशाली थी कि मेरे संघर्ष के नतीजे डॉ. रमन को अपने लैब में महिला शोधकर्ताओं को स्वीकार करना पड़ा और उन्होने महिलाओं के प्रवेश शुरू कर दिये।


कैम्ब्रिज में साइटोक्रोम ओक्सिडस के मूल की खोज और उसकी प्रकृति पर काम किया, जो सेलुलर श्वसन में शामिल एक इंजाइम की गतिविधि प्रदर्शित करने में सक्षम था।

भारत में उन्होने विभिन्न किस्मों की नाड़ी और पेय नीरा के पोषक मूल्यों को लेकर कार्य किया जिससे की कुपोषण का मुकाबला किया जा सके। वह भारत में उपभोक्ता मार्गदर्शन समाज (1982-1983) की अध्यक्ष रही और राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त किया।



अन्ना मनी (1918-2001 )


अन्ना मनी प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक थी, उनके बहुत से पेपर भौतकी एवं मौसम विज्ञान उपकरण पर प्रकाशित हुए थे। एक स्नातक छात्र (1940) के रूप में उन्होने भारतीय विज्ञान संस्थान के प्रोफेसर सी वी रमन लैब में काम किया। बाद में वे भारतीय मौसम विज्ञान केंद्र पुणे में उप-निदेशक बनीं और 1976 में सेवानिवृत्त हुई।

उनका अधिकांश काम डिजाइनिंग एवं मौसम उपकरणों में सुधार पर केंद्रित था। पर्यावरण के प्रति लगाव होने से उन्होंने पर्यावरण के प्रमुख क्षेत्रों सौर विकिरण, पर्यावरणीय ओज़ोन और पवन ऊर्जा को अपने कार्यों में शामिल किया। भारतीय ओज़ोन को मापने के लिए उपकरण का विकास किया, जिसके परिणाम पर्यावरणीय ओज़ोन मापना संभव हुआ और भारत उस समय के गिने-चुने देशों की श्रेणी मे शामिल हुआ। 1983 में उनके द्वारा प्रकाशित पवन ऊर्जा डाटा भारत के लिए आगे चल कर भारत में सफलता पूर्वक स्थापित किया गया। हमारे शैक्षणिक तंत्र की विफलता कही जा सकती है कि उनके द्वारा पीएचडी की थीसिस समाप्त होने के बावजूद मद्रास विश्वविद्यालय से उन्हे पीएचडी की उपाधि देने से इंकार कर दिया गया।


आशिमा चटर्जी (1917-2006)


आशिमा चटर्जी पहली महिला थी जिन्हे भारतीय विश्वविद्यालय से विज्ञान में डॉक्टर डिग्री प्राप्त किया था।

रसायनशास्त्री आशिमा मूलतः पश्चिम बंगाल की रहने वाली थीं। उनकी विशेषज्ञता का क्षेत्र पौधो से प्राप्त रसायनों में था। उनका व्यापक काम VincaAlkaloids के लिये जाना जाता है जिसका उपयोग अब कैंसर की दवा के रूप में किया जाता है। इसके अलावा मिरगी एवं मलेरिया रोधी पौधों के रसायन निकासी के लिए भी जाना जाता है। उनके द्वारा लगभग 400 शोध पत्र सम्मानित वैज्ञानिक पत्रिकाओं में प्रकाशित किया गया जो आज भी प्रासंगिक है। 1914 में उनके द्वारा लेडी ब्रेबार्न कालेज में रसायन विभाग की स्थापना की गयी, जो भारत में महिलाओं के लिए एक प्रमुख शिक्षण संस्थान है। आशिमा चटर्जी 1961 में प्रसिद्ध शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार प्राप्त करने वाली पहली महिला प्राप्तकर्ता थी। 1975 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस संघ की पहली महिला अध्यक्ष के रूप में उन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं के लिए एक पथ तोड़ने वाली सिद्ध हुई। 


अर्चना शर्मा (1932-2008)


अर्चना शर्मा भारत की एक प्रसिद्ध वनस्पति विज्ञानियों में थी। उनकी विशेषज्ञता क्रोमोसोम और आनुवांशिक तकनीकों में था। उनके द्वारा दाग और पूर्व गुणसूत्रों के अध्ययन का नया तरीका विकसित किया गया, जो तकनीक आज पूरे विश्व में वनस्पति अनुसंधान में प्रयोग की जाती है। इस उपलब्धि को उनके कार्यों में सर्वश्रेष्ट माना जाता है। उनके द्वारा प्रकाशित शोध पत्र “ए न्यू कान्सैप्ट ऑफ स्पीशिएशन एंड फिक्सीटी ऑफ क्रोमोसोम नम्बर इन ओब्लिगेट वेजीटेटीवली रीप्रोडूसिंग प्लांट्स इन नेचर एक अंतर्राष्ट्रीय जर्नल विज्ञान में एक धरातलीय खोज थी। बाद में उन्होने कोशिका प्रजनन के क्षेत्र (आनुवांशिक विरासत के संबंध में सेल संरचना के अध्ययन में अधिक योगदान दिया।

1958 में उन्होने अपने पति के साथ कोशिकाविज्ञान की “द नुक्लियस ” नामक अंतर्राष्ट्रीय जर्नल की स्थापना की। 1958 में उनके द्वारा क्रोमोसोम तकनीक: सिद्धांत एवं अभ्यास पर किताब लिखी गई जो पौधों और मानव अनुवंशिकी के क्षेत्र में वरदान मनी जाती है। वह दूसरी महिला थी जिन्हे 1975 में शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार प्राप्त हुआ था और 1974 में जी सी बोस अवार्ड। वे भारतीय विज्ञान कांग्रेस संघ की अध्यक्ष 1986-1987 तक रही उसके बाद 1989 में उन्हें भारतीय बाटनी सोसाइटी का अध्यक्ष बनाया गया। 1984 में उन्हे पद्मम भूषण प्राप्त हुआ था। राजेश्वरी चटर्जी (1922-2010)


राजेश्वरी चटर्जी कर्नाटक राज्य की प्रथम महिला इंजीनियर थीं।

यह शायद उनके दादी कमलाम्मा दासप्पा का प्रयास था, जहां उस समय कर्नाटक में महिलाओं के लिए उच्च शिक्षा दुर्लभ थी जो उनकी शिक्षा के लिए एक अग्रणी कदम था। भारत सरकार की एक शोधवृत्ति की मदत से वह अमेरिका के मिशिगन विश्वविद्यालय से पीएचडी के लिए अपनी यात्रा आरंभ की थी। राजेश्वरी चटर्जी भारतीय विज्ञान संस्थान की पहली महिला अकादमिक सदस्य थी। उनके द्वारा 1953 में अपने पति के साथ मिलकर भारतीय विज्ञान संस्थान में माइक्रोवेव इंजीनियरिंग में अपनी तरह का पहला अनुसंधान प्रयोगशाला शुरू की थीं। वह बंगलौर के भारतीय विज्ञान संस्थान के इलेक्ट्रोकम्यूनिकेसन इंजीनियरिंग डिपार्टमेन्ट के चेयरपर्सन के पद पर कई वर्षों तक रहीं। उनके द्वारा 100 से अधिक शोध पत्र एवं 7 किताबें प्रकाशित की गई थी। अपने क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने के बावजूद उन्हे राज्य सरकार या भारत सरकार से कोई पुरस्कार नहीं प्राप्त हो सका।