स्त्रियों की प्रस्थिति में सुधार हेतु किए गए प्रमुख प्रयास - Major efforts made to improve the status of women

स्त्रियों की प्रस्थिति में सुधार हेतु किए गए प्रमुख प्रयास - Major efforts made to improve the status of women


स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात निर्मित संविधान में महिलाओं को विधिक समानता के अधिकार दिये गये हैं तथा उनसे किसी भी प्रकार के भेदभाव को रोकने हेतु अनुच्छेद 14 एवं 15 में विभिन्न उपबंध किये गये हैं। 1954 के विशेष विवाह अधिनियम द्वारा अंतर्जातीय एवं अंतर-धर्म विवाह को कानूनी मान्यता दी गयी। 1955 के हिंदू मैरिज एक्ट द्वारा एक पत्नी के रहते हुये पुरुष द्वारा दूसरा विवाह करने पर रोक लगा दी गयी तथा ऐसा करने पर दण्ड एवं जुर्माने का प्रावधान किया गया। 1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम द्वारा लड़की को भी पुत्र के बराबर उत्तराधिकारी बनने की व्यवस्था की गयी। हिंदूगोद एवं व्यय अधिनियम द्वारा लड़की को भी इस संबंध में लड़के के बराबर मान लिया गया।

1961 में मातृत्व लाभ अधिनियम बना, जिसे अप्रैल 1976 में संशोधित करके गर्भावस्था के दौरान कार्यालयों में कार्यरत महिलाओं के लाभार्थ अनेक उपायों की घोषणा की गयी। संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांत, समान कार्य के लिए महिलाओं को पुरुषों के बराबर वेतन दिए जाने की पहल करते हैं। समान पारितोषिक (पारिश्रमिक) अधिनियम 1976 महिलाओं को पुरुषों के समान वेतन देने एवं नौकरियों में उनसे किसी भी प्रकार का भेदभाव रोकने की व्यवस्था करता है। कारखाना अधिनियम 1976 द्वारा सभी कारखानों के लिये यह अनिवार्य बना दिया गया है

कि यदि किसी कारखाने में 30 या उससे अधिक महिला कर्मचारी कार्यरत हैं तो कारखाने के मालिक या प्रबंधकक्रेच ( शिशु पालन गृह) की स्थापना करेंगे, जहां कार्य के दौरान महिलाओं के छोटे बच्चों की देखभाल की जायेगी। 1983 में संसद ने फौजदारी कानून (संशोधित) प्रोसीजर कोड में महिलाओं को अत्याचार से बचाने हेतु अनेक नये अधिनियम जोड़े गये। महिलाओं के साथ बलात्कार तथा पति या ससुराल द्वारा सताये जाने पर कठोर दण्ड एवं कारावास की सजा निर्धारित की गयी है। महिला व्याभिचार अधिनियम एवं बालिका अधिनियम 1956 में, वर्ष 1986 में संशोधन किया गया तथा यह नियम बना दिया गया कि किसी महिला या बालिका को लैंगिक रूप से प्रताड़ित किये जाने पर कठोर दण्ड एवं कारावास की सजा दी जायेगी। इस अधिनियम द्वारा यह भी व्यवस्था की गयी है किसी महिला का व्यावसायिक उद्देश्यों से दैहिक शोषण गंभीर अपराध माना जायेगा।

1886 में दहेज निवारण अधिनियम में 1961 में अनेक संशोधन किये गये तथा दहेज देना या ग्रहण करना दोनों ही जुर्म की श्रेणी में रख दिये गये। वर्ष 1987 में एक अधिनियम पारित करके सती प्रथा को अक्षम्य मानव हत्या अपराध घोषित कर दिया गया। 19वीं शताब्दी से ही स्त्रियों की स्थिति में सुधार हेतु प्रयास किए जाने लगे थे। महिलाओं को लेकर किए जाने वाले भेदभावपूर्ण के नजरिए में बदलाव को आगे भी महत्व दिया गया। इन सुधारों को मूल रूप से तीन भागों में वर्गीकृत करके देखा जा सकता है-


समाज सुधारकों द्वारा किए गए प्रयास-


स्त्रियों की स्थित में सुधार का सर्वप्रथम प्रयास राजाराम मोहन राय द्वारा किया गया। इनके द्वारा 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना की गई और इनके प्रयास के कारण ही 1829 में सती प्रथा उन्मूलन कानून की व्यवस्था की गई।

इनके द्वारा बाल विवाह के निषेध और विधवा पुनर्विवाह के प्रचलन के लिए बहुत प्रयास किए गए। स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिंदू समाज को वैदिक संस्कृति की ओर लौटने का आह्वान किया। इन्होने बाल विवाह पर रोक, स्त्री शिक्षा को बढ़ावा देना और पर्दा प्रथा को समाप्त करने की दिशा में उल्लेखनीय प्रयास किए। ईश्वर चंद्र विद्यासागर द्वारा बहुपत्नी विवाह और विधवा पुनर्विवाह निषेध की कटु आलोचना की गई और उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप ही सन 1856 में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम को नियोजित किया गया। इन्होने स्त्री शिक्षा को भी महत्व दिया और कहा कि महिलाओं की जागृति के लिए आवश्यक है कि वे शिक्षित हों।

केशवचन्द्र सेन के प्रयत्नों के प्रयासों के फलस्वरूप सन 1872 में विशेष विवाह अधिनियम को क्रियान्वित किया गया और इसके द्वारा विधवा पुनर्विवाह और अंतर्जातीय विवाह को मान्यता प्रदान की गई। साथ ही इसके द्वारा एक विवाह को भी अनिवार्य स्वरूप प्रदान किया गया। इस शताब्दी के मध्य में स्त्री शिक्षा को बढ़ावा दिये जाने के रूप में कई प्राथमिक स्कूलों की स्थापना की गई और सन 1902 में विभिन्न शिक्षण संस्थानों में लड़कियों की संख्या 2,56,000 हो गई। कई स्त्रियाँ शिक्षा के कारण जागरूक हुई और नौकरियों में संलिप्त हो गई। इसी दौरान कई महिलाएं भी आगे आयीं और महिलाओं के हितों को लेकर आवाज बुलंद की, यथा- रमाबाई रानाडे, मेडम कामा,

तोरुदत्त, स्वर्णकुमारी देवी आदि। इनके अलावा महात्मा गांधी ने स्त्रियों को राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी करने हेतु प्रेरित किया और उन्हें स्वयं की शक्ति को पहचानने का मौका दिया, जिससे वे प्रगति के मार्ग पर आगे की उन्मुख हुई। उन्होने बाल विवाह और कुलीन विवाह का विरोध किया तथा विधवा पुनर्विवाह और अंतर्जातीय विवाह का पुरजोर समर्थन किया। महिला संगठनों द्वारा किए गए प्रयास-


20 वीं शताब्दी की शुरुआत में ही स्त्रियों को उचित स्थान दिलाने के प्रयोजन से स्त्री आंदोलन का प्रादुर्भाव होता है। एनी बेसेंट मारग्रेट नोबल व मारग्रेट कुशनस ऐसी पश्चिमी महिलाएं थीं,

जिन्होने भारत में स्त्री आंदोलन को मजबूत स्थिति पर काबिज होने के लिए उपयुक्त दशाएँ उपलब्ध कराई है। मद्रास में सन 1917 में भारतीय महिला समिति की स्थापना की गई। अनेक महिल संगठनों के प्रयास के पश्चात अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की स्थापना की गई और पूना में सन 1927 में इसका पहला अधिवेशन किया गया। इस संगठन ने स्त्री शिक्षा को विशेष महत्व दिया और इसके प्रचार-प्रसार हेतु अनेक प्रयास किए। बाद में इसने बाल विवाह, बहुपत्नी विवाह, दहेज आदि प्रकार की कुप्रथाओं का विरोध किया और स्त्रियों के लिए पुरुषों के ही समान संपत्ति पर अधिकार व वयस्क मताधिकार की मांग की। इस संगठन के अतिरिक्त विश्वविद्यालय महिला संघ भारतीय ईसाई महिला मंडल, अखिल भारतीय स्त्री शिक्षा संस्था, कस्तूरबा गांधी स्मारक ट्रस्ट आदि संगठन भी स्थापित किए गए, जिन्होने महिलाओं पर लगे निषेध और असमानता के व्यवहार का विरोध किया तथा उनके लिए समतापूर्ण समाज की व्यवस्था करने की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किए।


उन्नीसवीं सदी तक समाजसुधार और राष्ट्रवाद की ओर उन्मुख स्त्री संघर्ष बीसवीं सदी के आरंभ में स्त्री अधिकारों के प्रति भी सचेत हुआ। यह समय ऐसा रहा जब पूरे भारत में स्त्रियाँ राष्ट्रीय स्तर के मंचों पर संगठित हुई और अनेक स्थानीय संगठन भी इनसे जुड़े। 1908 में हुआ लेडिज कांग्रेस का सम्मलेन हो या 1917 में गठित विमेंस इंडियन असोसिएशन ऐसे ही बड़े संगठन थे। भारत में स्त्रियों के ऐसे संगठनों की सबसे बड़ी विडंबना रही हिंदू धर्म और उस समय की पुनरुत्थानवादी राष्ट्रीय विचारधारा। एक ओर जहाँ रमाबाई जैसी स्त्री को हिंदू धर्म छोड़ना पड़ा वहीं दूसरी ओर होमरूल जैसे आदलनों का हिंदुत्व से ओत- प्रोत धार्मिक स्वरुप जिसमें स्त्रियों की बड़े स्तर पर सक्रिय भागीदारी थी। यही एक बड़ा कारण रहा दलित आदलनों और स्त्री आंदलनों की संवेदनात्मक स्तर की दूरी का भी।

फिर भी संघर्ष की इस लंबी परंपरा को किसी भी स्तर से नकारा नहीं जा सकता है जहाँ स्त्रियाँ अपने अधिकारों की माँग के साथ खड़ी हो रही थीं| सरला देवी जैसी पुनरुत्थानवादी स्त्री ने भी विधवाओं की शिक्षा और उनके अधिकारों की माँग की थी| इस रूप में उस समय स्त्रियों की लड़ाई दोहरे स्तर पर चल रही थी, एक तो उपनिवेशवादी ताकतों के खिलाफ दूसरे अपने घर में उनकी नियति निर्धारित करने वाली पुरुषवादी मानसिकता के खिलाफ पूर्ण मसले थे।