समाज सुधारक स्त्रियाँ एवं उनकी दृश्यता - Social reformer women and their visibility

समाज सुधारक स्त्रियाँ एवं उनकी दृश्यता - Social reformer women and their visibility


उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध एवं ब्रिटिश काल में विभिन्न आंदोलन औरतों के उत्थान के लिए हुए। यही वह काल है जब यूरोप में महिला आंदोलन हो रहे थे। यही काल महिला जनजागृति का काल कहा • गया। उस समय महिलाओं की स्थिति गुलामों से भी बदतर थी। शिक्षा का अभाव, संपत्ति में न के बराबर हिस्सेदारी, दहेज प्रथा, सती-प्रथा, बाल विवाह (जहां बच्चों की शादिया पालने में हो जाती), बाल- विधवा जैसी अनेक परंपराएं विद्यामान थी। उस समय सावित्री बाई फुले, पंडित रमाबाई, आनंदीबाई रखमाबाई जैसी अनेक महिलाओं ने अतुलनीय कार्य किया था। 


सावित्रीबाई फुले


सावित्रीबाई फुले का जन्म महाराष्ट्र के नायगांव में 1831 को हुआ था। उनके परिवार में सभी खेती करते थे। 9 साल की आयु में ही उनका विवाह 1840 में 12 साल के ज्योतिराव फुले से हुआ। सावित्रीबाई और ज्योतिराव को दो संताने है। जिसमे से यशवंतराव को उन्होंने दत्तक लिया है जो एक विधवा ब्राह्मण का बेटा था। सावित्रीबाई ज्योतिराव फुले भारतीय समाजसुधारक और कवियित्री थीं अपने पति, ज्योतिराव फुले के साथ उन्होंने भारत में महिलाओ के अधिकारों को बढ़ाने में महत्वपूर्ण काम किये हैं। उन्होंने 1848 में पुणे में देश की पहली महिला स्कूल की स्थापना की। सावित्रीबाई फुले जातिभेद, रंगभेद और लिंगभेद के सख्त विरोध में थीं।

सावित्रीबाई एक शिक्षण सुधारक और समाज सुधारक दोनों ही तरह का काम करती थीं। ये सभी काम वह विशेष रूप से ब्रिटिश कालीन भारत में महिलाओ के विकास के लिये करती थीं। 19 वीं शताब्दी में कम उम्र में ही विवाह करना हिंदूओं की परंपरा थी। इसीलिये उस समय बहुत सी महिलाये अल्पायु में ही विधवा बन जाती थीं, और धार्मिक परंपराओं के अनुसार महिलाओं का पुनर्विवाह नहीं किया जाता था। 1881 में कोल्हापुर की गज़ेटिय में ऐसा देखा गया की विधवा होने के बाद उस समय महिलाओं को अपने सर के बाल काटने पड़ते थे, और बहुत ही साधारण जीवन जीना पड़ता था।सावित्रीबाई और ज्योतिराव ऐसी महिलाओ को उनका हक दिलवाना चाहते थे।

इसे देखते हुए उन्होंने नाईयों के खिलाफ आंदोलन करना शुरू किया और विधवा महिलाओ को सर के बाल कटवाने से बचाया। उस समय महिलाओ को सामाजिक सुरक्षा न होने की वजह से महिलाओ पर काफी अत्याचार किये जाते थे, जिसमे कही कही तो घर के सदस्यों द्वारा ही महिलाओं पर शारीरिक शोषण किया जाता था। गर्भवती महिलाओं का कई बार गर्भपात किया जाता था, और बेटी पैदा होने के डर से बहुत सी महिलायें आत्महत्या करने लगती।


एक बार ज्योतिराव ने एक महिला को आत्महत्या करने से रोका, और उसे वादा करने करवाया कि बच्चे के जन्म होते ही वह उसे अपना नाम दे।

सावित्रीबाई ने भी उस महिला और अपने घर रहने की आज्ञा दे दी और गर्भवती महिला की सेवा भी की। सावित्रीबाई और ज्योतिराव ने उस बच्चे को अपनाने के बाद उसे यशवंतराव नाम दिया। यशवंतराव बड़ा होकर डॉक्टर बना। महिलाओ पर हो रहे अत्याचारों को देखते हुए सावित्रीबाई और ज्योतिराव ने महिलाओ की सुरक्षा के लिये एक सेंटर की स्थापना की, और अपने सेंटर का नाम "बालहत्या प्रतिबंधक गृह' रखा। सावित्रीबाई महिलाओं की जी जान से सेवा करती थी और चाहती थीं की सभी बच्चे उन्ही के घर में जन्म लें घर में सावित्रीबाई किसी प्रकार का रंगभेद या जातिभेद नही करती थीं वह सभी गर्भवती महिलाओ का समान उपचार करती थीं। सावित्रीबाई फुले 19वीं शताब्दी की पहली भारतीय समाजसुधारक थीं और भारत में महिलाओं के अधिकारों को विकसित करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा।

सावित्रीबाई फुले और दत्तक पुत्र यशवंतराव ने वैश्विक स्तर 1897 में मरीजों का इलाज करने के लिये अस्पताल खोल रखा था। उनका अस्पताल पुणे के हडपसर में सासने माला में स्थित है। उनका अस्पताल खुली प्राकृतिक जगह पर स्थित है। अपने अस्पताल में सावित्रीबाई खुद हर एक मरीज का ध्यान रखती, उन्हें विविध सुविधा प्रदान करती। इस तरह मरीजो का इलाज करते-करते वह खुद एक दिन मरीज बन गयी। और इसी के चलते 10 मार्च 1897 को उनकी मृत्यु हो गयी।


सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं। हर बिरादरी और धर्म के लिये उन्होंने काम किया। जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी,

कीचड़, गोबर तक फेका करते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं। अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत अच्छे से देती हैं। उनका पूरा जीवन समाज में वंचित तबके खासकर महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष में बीता। उनकी एक बहुत ही प्रसिद्ध कविता है जिसमें वह सबको पढ़ने लिखने की प्रेरणा देकर जाति तोड़ने की बात करती है:-


जाओ जाकर पढ़ो लिखो, बनो आत्मनिर्भर, बनो मेहनती काम करो ज्ञान और धन इकट्ठा करो ज्ञान के बिना सब खो जाता है, ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते हैं इसलिए खाली ना बैठो,

जाओ, जाकर शिक्षा लो तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है, इसलिए सीखो और जाति के बंधन तोड़ दो।


पंडित रमाबाई


प्रख्यात विदुषी समाजसुधारक और भारतीय नारियों को उनकी पिछड़ी हुई स्थिति से ऊपर उठाने के लिए समर्पित थीं। पंडिता रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल, 185 ई में मैसूर रियासत में हुआ था। उनके 'पिता 'अनंत शास्त्री' विद्वान थे शिक्षा के समर्थक थे।परंतु उस समय की पारिवारिक रुढिवादिता स्त्री शिक्षा के समर्थन में बाधा बनी रही। पिता रमा के बचपन में ही साधुसंतों की मेहमानदारी के कारण- गांव में पौराणिक कथाएँ - रमा की एक बहन और भाई के साथ गांव निर्धन हो गए और उन्हें पत्नी तथा सुनाकर पेट पालना पड़ा। रमाबाई असाधारण प्रतिभावान थी।

अपने पिता से संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त करके 12 वर्ष की उम्र में ही 20 हज़ार श्लोक कंठस्थ कर लिए थे। देशाटन के कारण उसने मराठी के साथ- साथ कन्नड़, हिंदी, तथा बंगला भाषाएँ भी सीख लीं। उसके संस्कृत के ज्ञान के लिए रमाबाई को सरस्वती और पंडिता की उपाधियाँ प्राप्त हुई। तभी से वे पंडिता रमाबाई के नाम से जानी गई। 1876- 77 के भीषण अकाल में दुर्बल पिता और माता का शीघ्र ही देहांत हो गया। अब ये बच्चे पैदल भटकते रहे और तीन वर्ष में इन्होंने 4 हज़ार मील की यात्रा की।


22 वर्ष की उम्र में रमाबाई कोलकाता पहुंचीं उन्होंने बाल विधवाओं और विधवाओं की दयनीय दशा सुधारने का बीड़ा उठाया। उनके संस्कृत ज्ञान और भाषणों से बंगाल के समाज में हलचल मच गई।

भाई की मृत्यु के बाद रमाबाई ने 'विपिन बिहारी' नामक अछूत जाति के एक वकील से विवाह किया, परंतु एक नन्हीं बच्ची को छोड़कर डेढ़ वर्ष के बाद ही हैजे की बीमारी में वह भी चल बसा। अछूत से विवाह करने के कारण रमाबाई को कट्टरपंथियों के आक्रोश का सामना करना पड़ा और वह पूना आकर स्त्रीशिक्षा के काम में लग गई। उसकी स्थापित संस्था आर्य महिला समाज की शीघ्र ही महाराष्ट्र भर में शाखाएं खुल गई। अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए पंडिता रमाबाई 1883 ई. में इंग्लैण्ड गई। वहां दो वर्ष तक संस्कृतकी प्रोफेसर रहने के बाद वे अमेरिका पहुंचीं। उन्होंने इंग्लैंड में ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। अमेरिका में उनके प्रयत्न से रमाबाई एसोसिएशन बना जिसने भारत के विधवा आश्रम का 10 वर्ष तक खर्च चलाने का जिम्मा लिया।

इसके बाद वे 1889 में भारत लौटीं और विधवाओं के लिए शारदा सदन की स्थापना की। बाद में कृपा सदन नामक एक और महिला आश्रम बनाया। पंडिता रमाबाई के इन आश्रमों में अनाथ और पीड़ित महिलाओं को ऐसी शिक्षा दी जाती थी जिससे वे स्वयं अपनी जीविका उपार्जित कर सकें। पंडिता रमाबाई का जीवन इस बात का प्रमाण है कि यदि व्यक्ति दृढ निश्चय कर ले तो गरीबी, अभाव, दुर्दशा की स्थिति पर विजय प्राप्त करके वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सकता है। उनकी सफलता का रहस्य था प्रतिकूल परिस्थितियों में साहस के साथ संघर्ष करते रहना।


आनंदीबाई जोशी (1865-1888)


आनंदी बाई जोशी पहली भारतीय महिला चिकित्सक थी जिन्होने यू. एस. ए. से वेस्टर्न चिकित्सा में डिग्री प्राप्त किया था। आनंदी बाई का जीवन उतार चढ़ाव भरा था।

वह एक परंपरागत महाराष्ट्रीयन परिवार से थीं। इनकी शादी नौ वर्ष की आयु में बीस वर्ष के पुरुष से कर दी गई थी। चौदह वर्ष की उम्र में इन्होने संतान को जन्म दिया लेकिन बच्चे के जन्म के दस दिनों बाद ही वह बच्चा मर गया। इसके फलस्वरूप उन्होंने चिकित्सक बनने की प्रेरणा ली जिसमे उनके सपने को पूरा करने में उनके पति ने उनका योगदान दिया। जो महिला शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी कदम था। उन्होने 1883-1886 में चिकित्सा की शिक्षा के लिए अमेरिका कूच किया और महिला मेडिकल कालेज पेंसिल्वेनीय में आवेदन किया। उन्होने अपने आवेदन पत्र में लिखा था “ एक दृढ़ संकल्प जो मेरे दोस्तों और जाति व्यवस्था के विरोध के खिलाफ मुझे एक लम्बा रास्ता तय करना है और मुझे अपने उद्देश्यों को पूरा कर बाहर ले जाना है।

मेरे गरीब पीड़ित देश की महिलाएं जो एक वैकल्पिक चिकित्सा सहायता को एक पुरुष डॉक्टर के हाथों नहीं प्राप्त कर पा रही हैं और पुरुष चिकित्सकों के हाथों से मर रही हैं। मानवता की आवाज मेरे साथ है और मै असफल नहीं होना चाहती। मेरी आत्मा उन लोगों की मदद करना चाहती है जो अपनी मदद नहीं कर पा रहे है।" आनंदी बाई जोशी अमेरिका से लौटने के बाद गरीब महिलाओं कों चिकित्सा प्रदान करती रहीं। क्षय रोग के कारण उनकी मृत्यु हुई। 


रमाबाई (1864-1955)


रक्माबाई भारत की पहली प्रशिक्षित महिला डॉक्टर थीं, जिन्होने चिकित्सा के क्षेत्र में 35 साल तक सेवा की थी। अपने चिकित्सक व्यवसाय को अपनाने में उन्हें बहुत कठिनाइयों और विरोध का सामना करना पड़ा।

11 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह 19 साल के दादाजी भीखाजी से हुआ था, पर सौतेले पिता सखाराम अर्जना जो शिक्षा और सामाजिक सुधार के अगुआ थे के सहयोग से रुखमाबाई शादी के बाद अपने घर पर रह कर अपनी शिक्षा को पूरा करने के लिए अपने माता-पिता के साथ रहने लगीं। जब अपने पति के पास जाने का समय आया तो उन्होंने अपने पति के पास जाने से माना कर दिया और कहा कि शादी के समय उनकी उम्र बहुत कम थी इसलिए यह शादी अमान्य थी। तब उनकी उम्र 22 वर्ष थी। शादी की उम्र सहमति अधिनियम 1891 के अंतर्गत उनके पति ने कोर्ट में मुकदमा कर दिया, कोर्ट का नियम उनके पक्ष में नहीं था इसलिए कोर्ट की सजा से बचने के लिए उन्होने विवाह विच्छेद कर लिया और मुआवजा राशि का भुगतान किया। रुखमाबाई के इस संघर्स का परिणाम रहा कि महिलाओं को शादी में उम्र की पसंद की स्वतंत्रता आने वाले वर्षों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 1889 में वह लंदन गई और चिकित्सा कालेज से शिक्षा लेने के उपरांत भारत लौटीं भारत लौट कर कई वर्षों तक चिकित्सक की सेवाए दी।