लोक-साहित्य समाज - folklore society

लोक-साहित्य समाज - folklore society


लोक कवि समाज की जड़ में निवास करता है और वहीं से वह अपने कथ्य का चयन करता है। अतः लोक-साहित्य का महत्त्व समाज के लिए सर्वाधिक है। समाज के कार्य व्यवहार, प्रथाएँ, विश्वास, अन्धविश्वास, परम्परा, रीतियाँ, कुरीतियाँ, कुण्ठाएँ, संवेदनाएँ, स्वाभिमान आदि मानव-मन के समस्त भावों और अभिव्यक्ति का अध्ययन लोकसाहित्य के माध्यम से किया जा सकता है। इसके अध्ययन से हमें ज्ञात होगा कि वस्तुतः हमारा समाज कैसा था, वे कौन-सी परम्पराएं हैं जो हमें ऊर्जा से भर देती हैं और वे कौन-सी कुरीतियाँ, रूढ़ियाँ या मान्याताएँ हैं जो समाज को खोखला बनाती हैं।

अन्ततः हमारी आदिम खोज तो यही है कि कैसे हम उस प्रवाहमान प्रकाश तत्त्व की खोज करें जो मानव हृदय के अन्धकार को दूर मिटा सके "तमसो मा ज्योतिर्गमय । " विद्वान् का अर्थ हैं, 'प्रकाश तत्त्व का उद्घाटनकर्त्ता ।' सम्भव है कि लोक-साहित्य से ही हमें वह ऊर्जा मिले जो एक विचार बन कर लोगों के मन को एकता के सूत्र में पिरो दे और एक संगठित समाज तथा राष्ट्र का निर्माण करे। आज जो जीवन-मूल्य धराशायी पड़े हैं वे ही भविष्य में संस्कारवान् होकर सुदृढ़ हो सकें। एकल परिवार संकल्पना से उभरी समस्याओं के विपरीत संयुक्त परिवार की समरस संकल्पना को प्रस्तुत लोक गीत में देखा जा सकता है-


सइ विरिइ जिया अमवा लगवलें, नेबुल बिना बगिया ना सोहे राजा। भाई भतीजा बिना नइहर ना सोहे, भउजी बिना अँगना ना सोहे राजा । ससुर-मसुर बिना सभवा ना सोहे, देवर बिना, ससुरा ना भावे राजा । देवर बिना.... I


सासू बिना ओसरा मचिया ना सोहे, ननद बिना मनवा ना लागे राजा


ननद बिना....


इस गीत में एक स्त्री स्वयं की इच्छा और भावना को व्यक्त करती है। वह दोनों परिवारों को भरा-पूरा देखना चाहती है। स्त्री स्वयं की पूर्णता संयुक्त परिवार में ही महसूस करती है। लोकसाहित्य और समाज का घनिष्ठ सम्बन्ध है। लोक और समाज की परम्परा अनन्तकालीन है। किसी भी युग में 'लोक बिना समाज के' और 'समाज बिना लोक के' की संकल्पना तक नहीं की जा सकती है।