मैथिलीशरण गुप्त की भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीय भावना - Indian culture and national spirit by Maithilisharan Gupta

मैथिलीशरण गुप्त आधुनिक हिन्दी काव्यजगत् में राष्ट्रीय भावना के प्रतिनिधि कवि हैं। उनका सम्पूर्ण काव्य उस युग की राष्ट्रीय और सांस्कृतिक चेतना विकास के प्रत्येक चरण का प्रभाव ग्रहण करता गया और हिन्दी में नवजागरण, जनमानस में स्वदेश-प्रेम और सांस्कृतिक चेतना जाग्रत करने में अपना योगदान देता रहा। उनके काव्य में वर्णित भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीय चेतना को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर समझा जा सकता है -


भारतीय संस्कृति


'संस्कृति' का शाब्दिक अर्थ है- उत्तम या सुधरी हुई। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो संस्कृति का वर्तमान रूप किसी समाज के दीर्घकाल तक अपनायी गई पद्धत्तियों का परिणाम होती है।

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है और सहिष्णुता, त्याग, तपस्या, वैष्णव भावना, समन्वयवाद, संयुक्त परिवार, वर्गाश्रम आदि इसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं। गुप्तजी के सम्पूर्ण काव्य में भारतीय संस्कृति का व्यापक चित्रण मिलता है। विश्व बन्धुत्व और मानवता की रक्षा हमारी संस्कृति का प्रमुख गुण है जिसे व्यक्त करते हुए 'मनुष्य' कविता में उन्होंने कहा है-


विचार लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी। मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करें सभी । वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे । वही पशु है कि जो आप आप ही चरे।


भारतीय संस्कृति में कर्म को विशेष महत्त्व दिया गया है।

मैथिलीशरण गुप्त ने भी गीता के इस सन्देश को विस्मृत नहीं किया है। वे स्वयं कर्म में विश्वास करते हैं और परिणामस्वरूप उनका प्रत्येक पात्र कर्मप्रधान जीवन जीता है। यथा-


माना पाप सभी भाग्य का भोग है, किन्तु भाग्य भी पूर्व कर्म का योग है।


संस्कृति का विकास सामाजिक जीवन में होता है। गुप्तजी के काव्य में हमें भारतीय सामाजिकता के जिस रूप के दर्शन होते हैं, उसमें मर्यादा को विशेष महत्त्व दिया गया है। इसके साथ ही स्वहित के साथ-साथ परहित को भी पर्याप्त महत्त्व दिया गया है-


केवल उनके लिए ही नहीं यह धरणी, है औरों की भी भार-धरणी धारणी ।



भारतीय संस्कृति में परिवार को समाज के मूल आधार के रूप में स्वीकार किया जाता है। परिवार के सभी सदस्य अपनी-अपनी मर्यादा में रहते हुए परस्पर स्नेह, सौहार्द और सहयोग का आचरण करते हैं। अपने- अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करते हुए सुखी जीवन यापन करते हैं। गुप्तजी ने 'साकेत' में दशरथ के पारिवारिक जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए सुख-शान्तिपूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा दी है-


नहीं कहीं गृह कलह प्रजा में हैं संतुष्ट तथा सब शान्त उनके आगे सदा उपस्थित दिव्य राज कुल का दृष्टान्त


आर्यों की उक्ति 'यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता' के महत्त्व को स्वीकार करते हुए गुप्तजी ने अपने काव्य में नारी को उचित सम्मान और प्रतिष्ठा प्रदान की है।

उनकी दृष्टि में स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं और पारस्परिक सहयोग के द्वारा ही वे अपना और समाज का हित कर सकते हैं। उनकी रचनाओं में वर्णित नारी पात्र पातिव्रत धर्म का पालन करती हैं तो वहीं पुरुष एकपत्नी व्रत का 'साकेत' में लक्ष्मण एकपत्नी व्रत को अपनी सबसे बड़ी शक्ति मानते हुए कहते हैं-


यदि मैंने निज वधु ऊर्मिला को ही जाना। तो, बस, अब तू सँभल, बाण यह मेरा छूटा ॥


भारतीय संस्कृति में व्रत, उपवास, पूजा-पाठ, यज्ञ-अनुष्ठान, तीर्थ स्नान आदि का विशेष महत्त्व है।

'साकेत' में ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ पर पूजा-अर्चना, व्रत, अनुष्ठान आदि का वर्णन किया गया है। सरयू नदी को गंगा से भी अधिक श्रेष्ठ बताती प्रस्तुत पंक्तियाँद्रष्टव्य हैं-


वह मरों को मात्र पार उतारती, यह यहीं से जीवितों को तारती ।


भारतीय संस्कृति कला साहित्य और संगीत की दृष्टि से सदैव ही समृद्ध रही है। गुप्तजी ने अपने काव्य में इसी तथ्य की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा है-


जो दिव्य दर्शन शास्त्र की, विख्यात है जन्म स्थली पहले जहाँ पर अंकुरित हो, सभ्यता फूली फली । संगीत कविता शिल्प की, जननी वही भारत मही होगी किसे स्पर्धा कहें, जो परमुखापेक्षी रही।


इस प्रकार स्पष्ट है कि गुप्तजी का काव्य भारतीय संस्कृति का दस्तावेज है। लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित होकर उन्होंने अपनी रचनाओं में भारतीय संस्कृति के विविध पक्षों का चित्रण कर उसके गौरव की रक्षा और प्रतिष्ठा की है। इसके साथ ही उन्होंने अपने युगधर्म का भी निर्वाह किया है। परिणामस्वरूप उनके काव्य में प्राचीन और नवीन का सुन्दर सामंजस्य देखने को मिलता है।


राष्ट्रीय भावना


मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में राष्ट्रीय प्रेमभावना को विशेष स्थान मिला है। उन्होंने अपनी अनेक रचनाओं में देश की महिमा का गान किया है।

'स्वदेशी संगीत' में संकलित उनकी कविता स्वतन्त्रता आन्दोलन में भारतीय जनता के कोटि-कोटि कण्ठों से गायी जाती थी। इस कविता में मातृभूमि को ईश्वरीय रूप में प्रतिष्ठित कर, उसकी वन्दना करते हुए वे कहते हैं-


नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है, सूर्य-चन्द्र युग मुकुट मेखला रत्नाकर है,


करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की । हे मातृभूमि तू सत्य ही, सगुण- मूर्ति सर्वेश की।


उस समय गाँधीजी के नेतृत्व में स्वतन्त्रता आन्दोलन चरम पर था, उनके प्रभावस्वरूप स्वदेशीकरण, अहिंसा, सत्याग्रह, छुआछूत की समाप्ति,

हिन्दू-मुस्लिम एकता जैसे विचारों को पर्याप्त महत्त्व मिला। प् स्वतन्त्रता आन्दोलन और गाँधीवादी विचारधारा के प्रतिनिधि कवि हैं। गाँधीजी के विचारों को स्वर देते हुए 'भारत-भारती' में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिए वे कहते हैं-


यदि हम विदेशी माल से मुँह मोड़ तो सकते हैं नहीं- तो हाय ! उसका मोह भी क्या छोड़ सकते हैं नहीं ? क्या बन्धुओं के हित तनिक भी त्याग कर सकते नहीं ? निज देश पर क्या अल्प भी अनुराग कर सकते नहीं ?


गुप्तजी ने प्राचीन काल के कथानकों के माध्यम से स्वदेश-प्रेम और राष्ट्रीय भावना को वाणी दी है। 'साकेत' में विदेशी शक्ति से देश की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए राम कृतसंकल्प हैं-


पुण्य भूमि पर पाप कभी हम सह न सकेंगे, पीड़क पापी यहाँ और अब रह न सकेंगे।


उस युग में स्वतन्त्रता आन्दोलन ने संघर्ष का रूप धारण कर लिया था और इसी समय गुप्तजी का राष्ट्रप्रेम की भावना से परिपूर्ण काव्य 'भारत भारती' प्रकाशित हुआ। ब्रिटिश शासन द्वारा किए जा रहे आर्थिक शोषण और सांस्कृतिक हास के कारण गुप्तजी अत्यधिक चिन्तित थे, उनकी यह चिन्ता इस काव्य में अनेक प्रसंगों में व्यक्त हुई है। वे कहते हैं -


हम कौन थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी आओ विचारें आज मिलकर, यह समस्याएँ सभी ।


गुप्तजी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से प्राचीन गौरव का स्मरण करवाकर देशवासियों के हृदय में पुनः वैसी या उससे भी बेहतर स्थिति को प्राप्त करने की चेतना जाग्रत् करने का प्रयास किया। 'भारत भारती' में वे कहते हैं-


इस देश को हे दीनबन्धु ! आप फिर अपनाइए, भगवान् ! भारतवर्ष को फिर पुण्य भूमि बनाइए ।


वर मंत्र जिसका मुक्ति था परतन्त्र पीड़ित है वही, फिर वह परम पुरुषार्थ इसमें शीघ्र ही प्रकटाइए ।


इसी प्रकार ऐतिहासिक प्रसंगों पर आधारित रचनाओं के माध्यम से गुप्तजी ने स्वदेश के लिए आत्मबलिदान की भावना भी व्यक्त की है। यद्यपि मध्यकालीन कथानकों में यह भाव सीमित राष्ट्रीयता की भावना को व्यक्त करते हैं, किन्तु गुप्तजी ने अपने युग के अनुरूप भारतवर्ष के प्रति अपना सर्वस्व न्योछावर करने के अर्थ में उनका प्रयोग किया है। जैसे-


जन्मदायी धाय ! तुझसे उऋण अब होना मुझे, कौन मेरे प्राण रहते देख सकता है तुझे, मैं रहूँ चाहे जहाँ, हूँ किन्तु तेरा ही सदा, फिर भला कैसे ना रक्खु ध्यान तेरा सर्वदा ।


'साकेत' में ऊर्मिला की विरह भावना


आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रतिनिधि महाकाव्य 'साकेत' के माध्यम से मैथिलीशरण गुप्त ने रामकथा को एक नवीन परिवेश में चित्रित किया है। रामकथा को नये रूप में प्रस्तुत करने की प्रेरणा गुप्तजी को द्विवेदीजी से प्राप्त हुई। इसके साथ ही छोटेलाल बार्हस्पत्य ने भी अनूठे सुझाव देते हुए 'साकेत' के सृजन में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। उन्होंने गुप्तजी को रामायण की अछूती घटनाओं और ऊर्मिला के पात्र को नये रूप में प्रस्तुत करने का आग्रह किया। इसके साथ ही शान्तिप्रसाद द्विवेदी के लेख 'काव्य की उपेक्षिता ऊर्मिला' से भी गुप्तजी को प्रेरणा प्राप्त हुई।


साकेत में कुल 12 सर्गों में रामकथा की विविध घटनाओं का चित्रण किया गया है। किन्तु ऊर्मिला का विरह 'साकेत' की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है।

गुप्तजी ने विरहिणी ऊर्मिला की क्षण-क्षण बदलती मनोदशाओं के अनेक मार्मिक चित्र अंकित किए हैं। विरह की अग्नि में तपकर ऊर्मिला का प्रेम ऐहिक न रहकर आध्यात्मिक रूप धारण कर लेता है। स्वयं गुप्तजी ने एक स्थान पर लिखा है कि- " 'साकेत' में मैंने कालिदास की प्रेरणा से उस प्रेम की झलक देखने की चेष्टा की है, जो भोग से प्रारम्भ होकर, वियोग झेलता हुआ, योग में परिणत हो जाता है।" तभी तो ऊर्मिला मानस-मन्दिर में प्रियतम की मूर्ति स्थापित कर स्वयं आरती बन जाती है-


मानस मन्दिर में पति की प्रतिमा थाप । जलती से उस विरह में बनी आरती आप। आँखों में प्रिय मूर्ति थी, भूले थे सब भोग हुआ योग से भी अधिक उसका विषम वियोग ।


काव्यशास्त्रीय दृष्टि से विरह के चार भेद माने जाते हैं- पूर्वराग, प्रवासजनित, मानजनित, करुणाजनित । ऊर्मिला का विरह प्रवासजन्य है। लक्ष्मण अपने भाई राम की सेवार्थ 14 वर्षों के लिए वनवास चले जाते हैं और तब ऊर्मिला का विरह जाग्रत होता है। गुप्तजी ने विरहिणी ऊर्मिला का विरह इतने मार्मिक रूप में प्रस्तुत किया है कि सहृदय पाठक / श्रोता के हृदय में भी पीड़ा होने लगती है। ऊर्मिला के विरह को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर समझा जा सकता है-


तीव्र विरहानुभूति


ऊर्मिला के विरह-वर्णन में गुप्तजी ने उसकी क्षण-क्षण बदलती हुई मनोदशाओं का मार्मिक चित्रण किया हैं। लक्ष्मण के वनगमन के पश्चात् ऊर्मिला निरन्तर विरहाग्नि में जलती रहती है।

उसे अपने संयोग की सुखद स्मृतियाँ याद आती हैं, जो उसकी वेदना को और अधिक तीव्र बना देती है। हृदय में प्रिय की स्मृतियों को सँजोए वह अपनी सुध-बुध भूलकर उसे 'आओ' कहकर आमन्त्रित करती है तो कभी निद्रा में भी लम्बी विरहावधि को स्मरण कर उसे जाने को कहती है-


भूल अवधि-सुधि प्रिय से कहती जगती हुई कभी 'आओ'। किन्तु कभी सोती तो उठती वह चौंक बोलकर 'जाओ'।


ऊर्मिला के विरह-वर्णन में गुप्तजी ने नारीहृदय की विवशता, दीनता, सहनशीलता को अत्यन्त सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है।

ऊर्मिला का विरह जीवन के बाहर की वस्तु नहीं, उसका प्रतिफलन नित्यप्रति के गृहस्थ जीवन में हुआ है। उसकी दिनचर्या में ही विरह का समावेश है। जब सखी सुलक्षणा उसे भोजन करने को कहती है, तब वह कहती है-


कहे जो मानूँ सो, किस विध बता धीरज धरूं ? अरी, कैसे भी तो पकड़ प्रिय के वे पद मरूँ ।


ऊर्मिला की दशा भाग्यहीन और निराश्रित प्राणी की तरह है। उसकी दारुण दशा को देखकर सभी को दया आती है, स्वयं सीता कहती है- 'आज भाग्य है जो मेरा। वह भी हुआ न हा! तेरा।' हृदय में तीव्र व्याकुलता के उपरान्त भी ऊर्मिला वेदना में मधुरता का आभास पाती है क्योंकि उसी के प्रभावस्वरूप प्रिय की स्मृति निरन्तर हृदय में बनी रहती है-


वेदने तू भी भली बनी,


पाई मैंने आज तुझी में अपनी चाह घनी । नयी किरण छोड़ी है तूने, तू वह हीर कनी। सजग रहूँ मैं, साल हृदय में, ओ प्रिय-विशिख-कनी ।


आदर्शीकरण


गुप्तजी ने 'साकेत' में अनेक ऐसे प्रसंगों की रचना की है जिनसे ऊर्मिला की विरह वेदना में परम्परा और आधुनिकता का समन्वय दिखलाई देता है और ऊर्मिला की सहृदयता, उदारता, लोकमंगल की भावना, कर्त्तव्य- परायणता की भावना पर प्रकाश पड़ता है। ऊर्मिला के हृदय में ईर्ष्या लेशमात्र भी नहीं है, वह आदर्श भावों से युक्त होकर रीतिकालीन सभी विरहणियों से आगे निकल जाती है।

सूर की गोपियाँ तो अपनी ही तरह मधुबन को झुलसा हुआ देखना चाहती हैं, जबकि ऊर्मिला गम्भीर वियोगावस्था में भी सबल बनी रहती है। उसके हृदय में लताओं, विहगों के प्रति संवेदनशीलता है-


सीचें ही बस मालिने कलश ले कोई ना ले कर्तरी । शाखा फूल फले यथेच्छ बढ़के फैले लताएँ हरी ॥


ऊर्मिला परम्परागत भारतीय नारी की तरह पति की सिद्धि में ही अपनी सिद्धि समझती है। जब लक्ष्मण राम के साथ जाने का निर्णय लेते हैं तो हृदय में प्रेरित विछोह के कारण कितने ही भाव उद्दीप्त होते हैं परन्तु वह उनके मार्ग की बाधा नहीं बनती और दीर्घ विछोह को स्वीकार कर लेती है। इस अवधि में वह स्वयं एक पल भी अपने प्रिय को नहीं भूलती किन्तु ईश्वर से प्रार्थना करती है कि लक्ष्मण उसे भूलकर श्रीराम और सीता की सेवा करें-


मुझे भूलकर ही विभुवन में विचरें मेरे नाथ । मुझे न भूले उनका ध्यान, हे मेरे प्रेरक भगवान् ।


विरह की लम्बी अवधि को व्यतीत करने के लिए ऊर्मिला कभी घरेलू कामों को करके अपना समय व्यतीत करती है तो कभी चित्रकारी, संगीत आदि क्रियाकलापों से मन को बहलाती है। इसके साथ ही वह ऐसे काम भी करती है जिससे प्रजा का कल्याण हो । प्रोषितपतिकाओं को बुलवाना, पुरबाला शाखा खुलवाना और उन्हें ललित कलाओं का ज्ञान प्रदान करना आदि इसी श्रेणी में आते हैं-



प्रोषित पतिकाएँ हों जितनी भी सखी, उन्हें निमन्त्रण दे आ। समदुःखिनी मिले तो दुःख बँटे जा प्रणय पुरस्सर ले आ॥


प्रकृति-चित्रण


विरह-वर्णन की सुदीर्घ परम्परा में ऋतु वर्णन के माध्यम से विरह वेदना को उद्घाटित किया जाता रहा है।

गुप्तजी का ऊर्मिला विरह भी इससे अछूता नहीं है, लेकिन यहाँ परम्परा में नवीनता का समायोजन भी देखने को मिलता है। परम्परागत विरह-वर्णन में प्राकृतिक उपादान विरहणी की व्यथा को और भी अधिक दारुण बना देते हैं, जबकि ऊर्मिला प्रिय के वियोग में प्राकृतिक उपादानों में अपने प्रियतम के अंगों का आरोपण कर अपने हृदय का रंजन करती है-


निरख सखी ये खंजन आये,


फेरे उन मेरे रंजन ने नयन इधर मन भाये।


इसी प्रकार शिशिर ऋतु के उपादान उसे स्वयं के शरीर में ही दिखलाई पड़ते हैं-


le="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt;">शिशिर, न फिर गिरि-वन में।

जितना माँगे पतझड़ दूंगी मैं इस निज नन्दन में ।


वसन्त ऋतु के आगमन पर जब काम ऊर्मिला को तप्त करता है तो वह विरहणी दीन होकर निवेदन करती


मुझे फूल मत मारो,


मैं अबला बाला वियोगिनी कुछ तो दया विचारो ।


प्रस्तुत विवरण के आधार कहा जा सकता है कि ऊर्मिला का विरह-वर्णन आधुनिक हिन्दी काव्य में अद्वितीय है, ऊर्मिला के विरह-वर्णन में गुप्तजी ने शास्त्रीय पद्धत्तियों और नवीनता का अद्भुत समन्वय किया है । उन्होंने आदर्शों और कर्त्तव्यों का सुन्दर समायोजन कर ऊर्मिला को एक सती नारी के रूप में स्थापित कर दिया है।

ऊर्मिला के विरह मर्म का हृदयबेधक उद्घाटन करने वाली नवम सर्ग की अन्तिम पंक्तियों, जो ऊर्मिला के सम्पूर्ण विरही जीवन चरित्र को अपने अन्दर समेटे हुए हैं, द्रष्टव्य हैं-


अवधिशिला का उर पर था गुरु-भार, तिल-तिल काट रही थी दृग-जल-धार ।


 'साकेत' में लोक-कल्याण की भावना


साहित्यजगत् में प्राचीन काल से दो प्रकार की काव्यधाराएँ प्रवाहित होती रही हैं। एक की प्रवृत्ति अन्तर्मुखी है और उसका लक्ष्य आनन्द है, वहीं दूसरी की प्रवृत्ति बहिर्मुखी है और लक्ष्य कल्याण है । पहली में संसार को आत्मा में देखने और भोगने का भाव रहता है,

वहीं दूसरी में आत्मा का जगत् के माध्यम से विस्तार और विकास करने का दृष्टिकोण विद्यमान रहता है। मैथिलीशरण गुप्त का स्थान दूसरी काव्यधारा के प्रतिनिधि कवियों मैं स्वीकार किया जाता है।


गुप्तजी के काव्य में आधुनिक युग की राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना और मध्ययुगीन वैष्णव भावना का संयोग हुआ है। परिणामस्वरूप उनके जीवन मूल्यों में मानव मूल्य, सांस्कृतिक मूल्य और धार्मिक मूल्य परस्परगुँथे हुए हैं। वे अपने काव्य में आनन्दवादी मूल्यों की अपेक्षा कल्याणवादी मूल्यों की प्रतिष्ठा करते हैं। उनकी काव्य- साधना का मूल साध्य लोक-कल्याण है। उनके अपने शब्दों में 'अर्पित हो मेरा मनुज काय बहुजन हिताय, - बहुजन हिताय ।'


'साकेत' का कथानक लोकप्रिय पौराणिक रामकथा पर आधारित है। परन्तु इस प्राचीन और पौराणिक कथा को लेकर भी गुप्तजी ने अपने बुद्धि कौशल से नवीन उद् भावनाओं के माध्यम से आधुनिक युग की विचारधाराओं के अनुसार बना दिया है।

उन्होंने 'साकेत' में समसामयिक जीवन और उसकी समस्याओं का चित्रण ही नहीं किया वरन् लोक-कल्याण का सार्थक सन्देश भी दिया है। जिससे इस महाकाव्य का महत्त्व और भी अधिक बढ़ गया है। गुप्त के राम परम ब्रह्म का प्रतिरूप नहीं है, वे तो एक ऐसे आदर्श पुरुष हैं जिसने सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए इस धरा पर जन्म लिया है। तभी तो वे कहते हैं-


सन्देश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया, इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।


वह भौतिक मद से मत्त यथेच्छाचारी, मेदूंगा उसकी कुगति कुमति मैं सारी ।


गुप्तजी ने जिस प्रकार राम को ईश्वर नहीं मानव के रूप में चित्रित किया है। वैसे ही उनकी सीता भी एक स्वावलम्बी नारी के रूप में उभरकर आई है, जो लोक-कल्याण की भावना से युक्त होकर भोली-भाली वनवासी बालाओं को जीवन को बेहतर ढंग से जीने की प्रेरणा देती है -


तुम अर्द्धनग्न क्यों रहो आशेष समय में, आओ, हम काते-बुनें, गान की लय में।


भरत के माध्यम से गुप्तजी ने एक सच्चे और लोक-कल्याणकारी राजा की छवि को प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार राज्य जनता की थाती है और राजा उसका सेवक । अतः राज्य की रक्षा और जन-कल्याण के लिए राजा को अपने प्राणों का बलिदान करने के लिए भी उद्धत रहना चाहिए।



तात, राज्य नहीं किसी का वित्त,


वह उन्हीं के सौख्य- शान्ति निमित स्वबलि देते हैं उसे जो पात्र, नियत शासक लोक-सेवक मात्र ।


माण्डवी के माध्यम से जन-कल्याणकारी व्यक्तित्व की विशेषताओं को बताते हुए गुप्त जी ने कहा है कि जीवन सुख और दुःख का मिश्रण है सुख का भोग करके प्रत्येक मनुष्य आनन्द की अनुभूति करता है। किन्तु जन- कल्याण की भावना से युक्त व्यक्ति दुखों को भी आनन्द के साथ स्वीकार कर लेता है-


जीवन में सुख-दुःख निरन्तर आते-जाते रहते हैं,


सुख तो सभी भोग लेते हैं, दुःख धीर ही सहते हैं।

मनुज दुग्ध से दनुज रुधिर से, अमर सुधा से जीते हैं, किन्तु हलाहल भव-सागर का


शिव शंकर ही पीते हैं।


'साकेत' महाकाव्य में आत्म सुखों का बलिदान करने वाले पात्रों में सर्वाधिक प्रभावशाली पात्र है. - ऊर्मिला । जो स्वयं विविध कष्टों को सहन करते हुए भी लोक-कल्याण की भावना से परिपूर्ण है। वह कभी मेघों से जल वर्षा करके संसार का कल्याण करने का अनुरोध करती है तो कभी शिशिर ऋतु से पतझड़ द्वारा प्राकृतिक सौन्दर्य को नष्ट न करने का आग्रह करती है-


बरसो परसो घन बरसो,


सरसो जीर्ण-शीर्ण जगती के तुम नव यौवन, बरसो ।


शिशिर न फिर गिरि-वन में,


जितना माँगे, पतझड़ दूंगी, मैं इस निज नन्दन में ।


'साकेत' में ऊर्मिला का विरह अपनी चरम सीमा तक पहुँचा है। विरह की वेदना उसका जीवन बन गई है और प्रिय की स्मृति का आधार भी। तभी तो वह कहती है 'वेदने तू भी भली बनी पाई मैंने आज तुझी में, - अपनी चाह घनी ।' लेकिन यह तीव्र विरह वेदना और प्रिय के प्रति अनुराग की भावना उसकी लोक-कल्याणकारी भावना में बाधक नहीं बनते हैं। लक्ष्मण के वनवास में लोक-कल्याण को लक्षित कर वह कहती है-


भ्रात-स्नेह-सुधा बरसे,


भू पर स्वर्ग भाव सरसे।



विरह वियोगिनी ऊर्मिला में इतनी सहृदयता और कल्याणकारी भावनाएँ विद्यमान हैं कि वह विरह की


दुखद घड़ी में भी परदुखकातर है और दूसरों की पीड़ा को कम करने के लिए प्रयत्नशील है -


प्रोषितपतिकाएँ हों जितनी सखी, उन्हें निमन्त्रण दे आ । समदुःखिनी मिलें तो दु:खबँटे जा प्रणयपुरस्सर ले आ ।


ऊर्मिला की सहृदयता अप्रतिम है क्योंकि वह लोक-कल्याण से भी बढ़कर जीव मात्र के कल्याण की भावना से युक्त है। तभी तो वह पेड़-पौधों को काटना नहीं चाहती,

मकड़ी का जाला हटाना नहीं चाहती क्योंकि इससे उन्हें पीड़ा पहुंचेंगी -


सीचें ही बस मालिनें कलश लें कोई न ले कर्तरी । शाखा फूल फलें यथेच्छ बढ़के, फैलें लताएँ हरी ॥


गुप्तजी की सभी पात्र विश्व कल्याण की भावना से युक्त हैं। 'साकेत' के एकादश सर्ग में "वसुधैव कुटुंबकम्" की भावना का सुन्दर उदाहरण विभीषण के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। रावण का भाई विभीषण राक्षसकुल में जन्म लेकर भी लोक-कल्याण की भावना को अपने जीवन का ध्येय बनाता है और विश्व कल्याण की भावना को व्यक्त करते हुए कहता है-


पर वह मेरा देश नहीं जो करे दूसरों पर अन्याय । किसी एक सीमा में बँधकर रह सकते हैं क्या मन प्राण ? एक देश क्या, अखिल विश्व का, तात, चाहता हूँ मैं त्राण ।


मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित 'साकेत' में लोक-कल्याण की भावना को विशेष महत्त्व दिया गया है। 'साकेत' का प्रत्येक पात्र किसी न किसी रूप में स्व से अधिक पर उपकार को महत्त्व देता है और यह कल्याणकारी भावना मनुष्य मात्र के लिए नहीं वरन् समग्र जीवों के प्रति प्रकट हुई है। इस प्रकार गुप्तजी ने भारतीय संस्कृति की समग्र विशेषताओं और कल्याणकारी भावनाओं को जन जन तक पहुँचाने का सार्थक प्रयास किया है।