प्रसाद की सौन्दर्य चेतना - Prasad's aesthetic consciousness
प्रसाद की सौन्दर्य चेतना
महादेवी वर्मा ने 'दीपशिखा' की भूमिका में लिखा है कि "सत्य काव्य का साध्य और सौन्दर्य साधन है। एक अपनी एकता में असीम रहता है और दूसरा अपनी अनेकता में अनन्त इसी से साधन के परिचय - स्निग्ध खण्डरूप से साध्य की विस्मय भरी अखण्ड स्थिति तक पहुँचने का क्रम आनन्द की लहर पर लहर उठता चलता है।" आज सौन्दर्य का जो आदर्श है, कल वह नहीं था और भविष्य में भी वह वैसा नहीं रहेगा। इसी रुचि भेद के कारण सौन्दर्य सम्बन्धी अनगिनत सिद्धान्तों का प्रतिपादन होता चला आ रहा है। इमानुएल कांट से पूर्व सौन्दर्य सम्बन्धित सिद्धान्तों में एक यह सिद्धान्त था कि "सौन्दर्य ऐन्द्रिक प्रसन्नता का साधन मात्र है।" किन्तु इसमें अव्याप्ति दोष दृष्टिगोचर होता है।
सुन्दरता केवल इन्द्रियों को ही नहीं हमारी आत्मा को भी प्रसन्न करती है। दूसरा सिद्धान्त था कि "सुन्दरता अनुपात, सुडौलता और सुघड़ता में सन्निहित है।"
प्राचीन सौन्दर्य-सम्बन्धी सर्वाधिक लोक प्रसिद्ध सिद्धान्त यह रहा कि सौन्दर्य अनेकता में एकता के प्रदर्शन में अन्तर्निहित है। उस सिद्धान्त के अनुसार फूल इसलिए सुन्दर है कि उसके भिन्न भिन्न भाग एवं विशेषताएँ मिलकर एक हो रहे हैं। उस सिद्धान्त के प्रतिपादक से जीवन में सौन्दर्य के दर्शन होते हैं, क्योंकि उसमें विविधता के साथ गतिशीलता है। अस्तु सुन्दर वह है, जो पूर्ण, निर्मित और सुघड़ है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सौन्दर्य की स्थिति प्रकृति, विचार, भावना तथा कार्य के अतिरिक्त उनके समन्वय में है। वह तीन प्रकार का है
- शारीरिक, बौद्धिक एवं नैतिक । इमानुएल कांटके पश्चात् कला क्षेत्र में 'सीलर' का आविर्भाव होता है। 'सीलर' के विचार से भावना एवं विचार और भौतिकता एवं आध्यात्मिकता की एकता ही सौन्दर्य है। सौन्दर्य के विषय में विश्व कवि रवीन्द्र का मत है कि कवि जब सत्य की उपलब्धि कर लेता है, तभी उसे समझ पड़ता है कि सत्य का प्रकाश सहज सुन्दर है।
प्रसादजी का सौन्दर्य-सम्बन्धी अपना स्वतन्त्र विचार है।
वे ज्ञान और सौन्दर्य बोध को विश्वव्यापी वस्तु मानते हुए इस बात को स्वीकार करते हैं कि उनके केन्द्र देश, काल और परिस्थितियों से तथा प्रधानतः संस्कृति के कारण भिन्न-भिन्न अस्तित्व रखते हैं। उनका कहना है कि 'खगोलवर्ती ज्योति केन्द्रों की तरह आलोक लिए उनका परस्पर सम्बन्ध हो सकता है, किन्तु वही आलोक शुक्र की उज्ज्वला और शनि की नीलिमा में सौन्दर्य बोध के लिए अपनी अलग-अलग सत्ता बना लेता है।" उस समय जब योरोपीय सौन्दर्य सिद्धान्त की धूम मच रही थी, प्रसाद को सौन्दर्य का पश्चिमीय मान स्वीकार्य नहीं है।
वे पश्चिम की सौन्दर्य भावना को भारतीय सौन्दर्य- भावना के प्रतिकूल पाते हैं। उन्हें अलकों के भूरेपन नेत्रों की नीलिमा, चंचल गति आदि में सौन्दर्य दिखाई नहीं देता। इसके विपरीत वे अलकों की नीलिमा, नेत्रों के भोलेपन, गति की मंथरता, झुकी पलकों आदि में सौन्दर्य देखते हैं। उनके अनुसार यह आवश्यक नहीं कि किसी देश एवं काल का सौन्दर्य आदर्श दूसरे देश एवं काल को मान्य ही हो। जैसे महादेवी वर्मा को सर्वत्र सुन्दरता दिखाई पड़ती है और उन्हें कोई वस्तु असुन्दर नहीं लगती जैसे ही प्रसादजी को जीवन और जगत् की प्रत्येक वस्तु सुन्दर जान पड़ती है। उन्हें प्रकृति, नर, नारी, ब्रह्म, पशु, कुंज- कुटीर ग्राम, नगर कल-कारखाने आदि सब कुछ में सौन्दर्य दिखाई पड़ता है।
वार्तालाप में शामिल हों