तुलनात्मक आलोचना - comparative criticism

साहित्यिक रचनाओं की पारस्परिक तुलना की परम्परा बहुत पुरानी है। एक भाषा की किसी कृति का विवेचन जब उसी भाषा अथवा किसी अन्य भाषा की कृति की विशेषताओं को सामने रखकर किया जाता है, तब तुलनात्मक या तुलना- प्रधान आलोचना प्रकट होती है। व्यापक अर्थ में दो या दो से अधिक भाषाओं और राष्ट्रों के साहित्यों का अध्ययन और मूल्यांकन उनके पारस्परिक सम्बन्धों या गुणों की तुलना के आधार पर किया जाता है, तो उस विवेचन को तुलनात्मक आलोचना या तुलनात्मक साहित्य कहा जाता है। हिन्दी में इस प्रकार की आलोचना की लम्बी परम्परा रही है। प्रत्येक आलोचक कृतियों और लेखकों के विवेचन में किसी न किसी रूप में इस पद्धति का प्रयोग करता है।


तुलनात्मक साहित्य : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य


रेने वेलेक ने लिखा है कि "तुलनात्मक साहित्य का उदय उन्नीसवीं सदी के पाण्डित्य के संकुचित राष्ट्रवाद के प्रति प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। यह फ्रांस, जर्मन, अंग्रेज़ी आदि के अनेक इतिहासकारों के अलगाववाद के प्रति विद्रोह था।" ('साहित्य की अवधारणाएँ)


तुलनात्मक साहित्य की अवधारणा का विकास 'राष्ट्रीय साहित्य' की अवधारणा की प्रतिक्रियास्वरूप हुआ है। यूरोप में 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सामन्ती समाज-व्यवस्था के स्थान पर राष्ट्र की अवधारणा का विकास हो चुका था। यह अवधारणा एक क्षेत्र, एक धर्म, एक भाषा, एक नस्ल, एक साहित्य और एक संस्कृति के संकुचित विचारों पर आधारित थी।

इंग्लैंड में इसके आधार पर इंग्लैंड का भौगोलिक क्षेत्र, एंग्लो-सैक्सन नस्ल, ईसाई धर्म, अंग्रेज़ी भाषा, अंग्रेज़ी साहित्य और अंग्रेजी संस्कृति 'राष्ट्र' के पर्याय बन गए। इस आधार पर यूरोपीय समाज में वर्गीकरण होने लगा। बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध किया और साहित्य को इस संकीर्ण राष्ट्रवादी चेतना से मुक्त करने के प्रयास किए। 'विश्व साहित्य' शब्द का प्रयोग जॉन एकर्मन ने किया था। इससे पूर्व 'विश्व साहित्य' और 'तुलनात्मक साहित्य' को सैद्धान्तिक रूप से एक ही माना जाता था। लेकिन व्यावहारिक रूप में 'विश्व साहित्य' विभिन्न साहित्यों में से चयनित श्रेष्ठ साहित्य के लिए प्रयुक्त होता था, जबकि 'तुलनात्मक 'साहित्य' का प्रयोग विश्व साहित्य के अध्ययन की एक प्रविधि के रूप में किया जाता था ।


जर्मन विद्वान गेटे ने 'तुलनात्मक साहित्य' और 'विश्व साहित्य' के रूप में साहित्य को दो श्रेणियों में बाँटकर उनका महत्त्व प्रतिपादित किया। यूरोप में किसी राष्ट्र की एक भाषा में रचित साहित्य को राष्ट्रीय साहित्य माना जाता था और उसे अन्य सभी साहित्यों से श्रेष्ठ माना जाता था। गेटे इस विचार के विरुद्ध था। उसने अन्य देशों के साहित्य के अध्ययन के आधार पर यह विश्वास व्यक्त किया था कि शीघ्र ही राष्ट्रीय साहित्य का स्थान विश्व साहित्य ले लेगा। इसमें अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका होगी। गेटे को आशा थी कि विश्व साहित्य की अवधारणा से विभिन्न राष्ट्र यदि अपनी संकीर्णता को छोड़कर साथ रहना न भी सीख पाए तो भी एक दूसरे के प्रति अधिक सहनशील होना तो सीख ही जाएंगे।

गेटे ने साहित्य को मानवीय मूल्यों का संवाहक माना है तथा साहित्यिक आदान-प्रदान के द्वारा विभिन्न राष्ट्रों की विलक्षण विशेषताओं को बनाए रखते हुए अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों और विश्व साहित्य को सुदृढ़ बनाने पर जोर दिया है। अतः तुलनात्मक साहित्य राष्ट्र की सीमाओं से पार जाकर विभिन्न साहित्यों का परस्पर तुलनात्मक अध्ययन है।


विश्व-साहित्य में तुलना के आधार पर साहित्य को समझने-परखने की बहुत पुरानी परम्परा है। इस आलोचना पद्धति का उद्भव उन्नीसवीं सदी में यूरोप में हुआ। साहित्य के सम्बन्ध में 'तुलनात्मक' शब्द का प्रयोग सन् 1848 में मैथ्यू अर्नाल्ड ने ऐम्पियर के फ्रांसीसी शब्दों 'इस्तवार कोंपोरातीव' का अनुवाद करते हुए किया था।

मैथ्यू अर्नाल्ड ने अग्रेजी साहित्य में तुलनात्मक पद्धति के महत्त्व को बहुत गम्भीरता से स्थापित करने का प्रयास किया था। उसका विचार था कि प्रत्येक आलोचक को अपने साहित्य के अतिरिक्त कम से कम एक अन्य साहित्य को अपने विवेचन का विषय बनाना चाहिए और यदि वह साहित्य अलग प्रकार का हो तो और भी अच्छा है। फ्रांसीसी में पहले से 'लितरेत्योर कोंपारे' शब्द प्रचलन में था। आइरिश विद्वान एच. एम. पॉस्नेट ने 1886 में 'Comparative Literature' नाम से पुस्तक लिखी थी। रेने वेलेक के अनुसार "तुलनात्मक साहित्य अब एक स्थापित पारिभाषिक शब्द बन गया है जिससे आशय राष्ट्रीय साहित्य की सीमाओं से पार होकर साहित्य का अध्ययन करना है।" ('साहित्य की धारणाएँ)