तुलनात्मक साहित्य का स्वरूप - form of comparative literature

हुए तुलना शब्द का अर्थ ही किन्हीं दो या दो से अधिक वस्तुओं व्यक्तियों, काल-खण्डों, घटनाओं, विचारधाराओं, स्थानों आदि के मध्य समानता, असमानता, विरोध या सादृश्य दिखाते उनके निर्धारण करना होता है। निश्चित ही इस तुलना के लिए कुछ मानदण्ड या आधार निर्धारित किए जाते हैं तभी मूल्य का किसी निर्णय पर पहुँचा जा सकता है। भारतीय काव्यशास्त्र में अर्थालंकार के चार अंगों में एक सादृश्य भी है। उपमान और उपमेय की समानता व्यंजित करने के लिए प्रयुक्त शब्द सादृश्यवाचक शब्द कहलाता है। सादृश्य के दो प्रकार माने गए हैं पहला है आकार एवं प्रकार में समानता और दूसरा है गुण एवं धर्म में समानता । सादृश्य निरूपण हेतु तुलना आवश्यक होती है। दो भिन्न वस्तुओं में कुछ सामान्य गुणधर्म ढूंढने का प्रयास किया जाता है।


तुलनात्मक साहित्य को परिभाषित करना एक कठिन कार्य है क्योंकि इसमें एक प्रकार के साहित्य का विवेचन नहीं किया जाता है, बल्कि दो या दो से अधिक प्रकार के साहित्यों को एक दूसरे के बराबर रखकर उनका अध्ययन करना होता है । इतना ही नहीं, इसकी परिधि में विभिन्न समाजों और कालखण्डों में रचित कृतियों की भाषा, सांस्कृतिक धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक और ऐतिहासिक विविधताएं भी आती हैं। इन विविधताओं के बहु-आयामी पक्षों पर भी इसमें विचार किया जाता है, जिससे इसकी परिभाषा का कार्य और कठिन हो जाता है। 'तुलनात्मक साहित्य' की सबसे सरल परिभाषा यही हो सकती है कि यह कम से कम दो साहित्यों के मध्य तुलना है। मैक्स मूलर के शब्दों में “समस्त उच्चतर ज्ञान तुलना के माध्यम से प्राप्त किया जाता है और वह तुलना पर ही आधारित होता है।"