व्यक्तिवादी आलोचना और अन्य आलोचना-पद्धतियाँ - individualistic criticism and other methods of criticism
इस पाठ्यचर्या के खण्ड - 1 की इकाई-1 'आलोचना का स्वरूप' में आपने आलोचना के मुख्य भेदों के अन्तर्गत आभ्यन्तरिक और बाह्य आलोचना पद्धतियों के बारे में अध्ययन किया है। अध्ययन की दृष्टि से ये आलोचना पद्धतियाँ भिन्न हैं परन्तु यदि गहराई से देखें तो दोनों पद्धतियों के कुछ तत्त्व एक-दूसरी पद्धति में कुछ न कुछ मात्रा में अवश्य पाए जाते हैं। आलोचक की व्यक्तिगत मान्यताएँ, विचार और पसंद-नापसंद उसके साहित्यिक विवेचन को प्रभावित करती हैं। कृति का पूर्णरूप से वस्तुपरक मूल्यांकन जो रचनाकार और आलोचक की वैयक्तिकता से एकदम अछूता हो, सम्भव नहीं है। कमोबेश सभी आभ्यन्तरिक आलोचना पद्धतियों में व्यक्तिवादी रुझान किसी न किसी रूप में पाए जाते हैं।
इन आलोचना पद्धतियों में प्रभाववादी, मनोविश्लेषणवादी, स्वच्छन्दतावादी, घटना-क्रियावादी और 'पाठक प्रतिक्रियावादी व्यक्तिनिष्ठता' आदि आलोचना पद्धतियाँ प्रमुख हैं। विभिन्न अस्मितावादी आलोचना पद्धतियों में भी व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों की प्रमुखता होती है।
घटना-क्रियावादी आलोचना
घटना-क्रियावाद या दृश्य घटना-विज्ञान पाश्चात्य दार्शनिक एडमंड हस्सेल द्वारा विकसित दर्शनशास्त्र की एक शाखा है । घटना-क्रियावादी आलोचना के अनुसार कोई कलाकृति या साहित्यिक रचना जिस रूप में पाई जाती है और उसका जो अर्थ होता है,
किसी भी मानी हुई वास्तविकता से पूर्व वह दर्शकों या पाठकों की चेतना और अवबोधन में उपस्थित होती हैं। घटना क्रियावाद विश्व का ऐसा अर्थ प्रस्तावित करता हैं जो विश्व के आत्मगत अनुभव को उसके वस्तुगत अनुभव से अलग नहीं करता है। उसके अनुसार चेतना किसी न किसी वस्तु या घटना की होती है अर्थात् चेतना हमारे अन्तर्जगत् (आत्म) और बाह्य जगत् (वस्तु) के मध्य भेद को मिटा देती है ।
हस्सेल ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि हम केवल वस्तुओं (कविता, कहानी आदि) पर उसी रूप में अपना ध्यान देते हैं और उनका वर्णन करते हैं जैसी वे हमें अपनी चेतना में दिखाई देती हैं।
इस प्रक्रिया में अन्य सभी बातों, जैसे अच्छाई या बुराई जैसी पूर्वधारणाओं और निर्णयों को अनदेखा कर दिया जाता है । साहित्यिक रचना एक वस्तु और चेतना का एक रूप दोनों होती है क्योंकि वह लेखकीय चेतना से उत्पन्न होती है और उसका वहन करती है। आलोचक का कार्य रचना और रचनाकार की चेतना का विवेचन करना है। इसलिए घटना- क्रियावादी आलोचना रचना के उन पक्षों और तरीकों को महत्त्व देती है जिनसे पाठक की कल्पना रचनाविशेष के सम्बन्ध में अवबोध विकसित करती है और उसके साथ संवाद स्थापित करती है।
इस प्रकार यह आलोचना पद्धति इस बात पर बल देती है कि रचना के प्रत्यक्षीकरण के रूप में उसका अर्थबोधन पाठक की कल्पना तथा भाषा, जिसमें उसकी व्याख्या की जाती है, दोनों के आधार पर निर्धारित होता है। रचना के पाठ का कोई स्वतन्त्र या सार्वभौमिक अर्थ नहीं होता है और न ही उसके लेखक द्वारा उसके अर्थ को नियन्त्रित किया जा सकता है।
अस्तित्ववादी आलोचना
अस्तित्ववाद ने व्यक्ति को जीवन के आधारभूत प्रश्नों के साथ जोड़कर देखा। उसके अनुसार व्यक्ति का दुःख, निराशा, अकेलापन, संत्रास, स्वतन्त्रता आदि उसके मूल प्रश्न हैं।
सामूहिकतावाद और निश्चयवाद इन प्रश्नों के उत्तर नहीं देते हैं। अस्तित्ववाद उन सभी विचारों को अमान्य करता है, जो व्यक्ति के अस्तित्व को महत्त्व नहीं देते हैं। उसकी दृष्टि में मनुष्य स्वतन्त्र और क्रियाशील शक्ति है। वह अपने निर्णय लेने में समर्थ है और उसके लिए जिम्मेदार भी । अस्तित्ववाद व्यक्ति को ही कला का केन्द्र मानता है। वह कला में सामूहिकता का विरोध करते हुए वैयक्तिक भावनाओं को ही कलात्मक सृजन का आधार मानता है।
पाठक प्रतिक्रियावादी आलोचना
पाठक प्रतिक्रियावादी आलोचना भी एक व्यक्तिनिष्ठ आलोचना पद्धति है। यह आलोचना साहित्य को समझने में पाठक की भूमिका को महत्त्व प्रदान करती है।
पाठक किसी रचना द्वारा प्रस्तुत अर्थ को निष्क्रिय रूप से ग्रहण नहीं करता है, बल्कि वह सक्रिय रूप से उसमें अपना अर्थ भरता है। इससे रचना की अनेकार्थकता सामने आती है। अलग-अलग पाठकों में ही नहीं, एक ही पाठक द्वारा अलग-अलग अवसरों और सन्दर्भों में एक उसी रचना के अलग-अलग अर्थ किए जा सकते हैं। इस प्रकार रचना का एक वस्तु या भौतिक स्वरूप में अपना कोई मौलिक अर्थ नहीं होता है, उसका अर्थ पाठक की अपनी समझ के अनुसार अर्थ ग्रहण करने की एक प्रक्रिया से पैदा होता है। पाठक की यह प्रतिक्रिया रचना के पाठ-निर्माण का मूल तत्त्व बन जाता है। रचना की व्याख्या उसके मूल पाठ के विवेचन पर आधारित नहीं होती है,
बल्कि उस पाठ के विवेचन पर आधारित होती है जिसका अवबोधन पाठक ने अपने मन में किया है। साहित्य के पाठ की रचना में पाठक लेखक के समान ही महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि प्रत्येक पाठक अपनी व्यक्तिगत व्याख्या के द्वारा पाठ की पुनर्रचना करता है।
मनोविश्लेषणवादी आलोचना
मनोविश्लेषणवाद में जीवन के सभी क्रिया-कलापों के मूल में व्यक्तिवादी अहं की मुख्य भूमिका मानी जाती है। उसमें अवचेतन मन की दमित इच्छाओं और वासनाओं की अभिव्यक्ति को कला का प्रयोजन और लक्ष्य माना जाता है। यह आलोचना पद्धति व्यक्ति को केन्द्र में रखकर कलाकार के अवचेतन मन और रचना- प्रक्रिया को समझने का प्रयास करती है।
प्रभाववादी आलोचना
प्रभाववादी आलोचना एक व्यक्तिवादी आलोचना पद्धति है। इसमें आलोचक रचनागत अनुभूति को समझने के क्रम में अपनी अनुभूति का विश्लेषण भी करता है। इस आलोचना में आलोचक कृति के अपने मन पर पड़ने वाले प्रभाव को आकर्षक भाषा और शैली में प्रस्तुत कर देता है। स्वयं आलोचक एक पाठक के रूप में कृति विशेष का जो प्रभाव ग्रहण करता है, उसी प्रभाव की अपेक्षा वह अन्य पाठकों से भी करता है। इसमें व्यक्तिगत रुचि और पसंद की स्पष्ट अभिव्यक्ति होती हैं। प्रभाववादी आलोचना रचना या उसके किसी अंश की व्यक्तिगत रूप से अनुभूत विशेषताओं का वर्णन करती है तथा उन प्रतिक्रियाओं को अभिव्यक्त करती है जो रचना के प्रभाव से व्यक्ति के मन में उत्पन्न हुई हैं।
उपर्युक्त आलोचना पद्धतियों के अतिरिक्त नारीवादी आलोचना, अश्वेत और दलित विमर्श आदि अस्मितावादी साहित्यिक धाराओं में भी प्रकारान्तर से व्यक्तिवादी अन्तर्धारा प्रवाहित रहती है। वैयक्तिकता के आग्रहों और तज्जनित अन्तर्विरोधों के लिए अस्मितावादी लेखकों की प्रायः आलोचना की जाती है। क्योंकि इनमें मामूली समूहगत एकता के आधार पर बड़े सामाजिक विभेद खड़े किए जाते हैं। उनका मुख्य उद्देश्य सार्वजनिक जीवन में अपनी पहचान, स्वीकृति और सम्मान के लिए संघर्ष और उस संघर्ष की अभिव्यक्ति है।
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