संस्कृत, प्राकृत भाषा तन्त्र तथा देशी भाषाएँ

संस्कृत, प्राकृत भाषा तन्त्र तथा देशी भाषाएँ

संस्कृत प्राकृत के भाषातन्त्र से जनपदीय भाषाओं का अन्तर्विरोध अखिल भारतीय है। संस्कृत के साथ- साथ दक्षिण भारत में 18वीं सदी तक प्राकृत काव्यों की रचना होती रही। तेलुगु और प्राकृत के सम्बन्धों पर के. सीतारामैया ने लिखा है "इस प्रदेश के शासक कार्य में प्राकृत का उपयोग करते थे। राजकीय आदेशपत्र, - ताम्रपत्र, शिलालेख आदि में प्राकृत का प्रयोग होता था। यहाँ के नरेशों ने प्राकृत में लिखे गए साहित्य को प्रोत्साहित किया । आन्ध्र राजाओं के काल में 'सतसई' (सप्तशती) नामक पद्य संकलन प्राकृत में लिखे गए।" तिलुगु साहित्य का इतिहास, सम्पादक के. लक्ष्मीरंजनम्, हैदराबाद, 1967, पृष्ठ 23)


आन्ध्रप्रदेश में प्राकृत के विशेष प्रभाव का कारण बताते हुए उन्होंने आगे लिखा है "ईसा से पहले इस - देश में बौद्ध धर्म का बहुत प्रचार था। सामन्त वर्ग ही नहीं, बहुसंख्यक जनता भी बौद्ध धर्म को मानती थी। बौद्धों के सभी ग्रन्थ प्राकृत में थे। उनके विहारों में भी प्राकृत का उपयोग होता था। प्रवचन तथा दैनिक कार्यों में भी बौद्ध स्थविर यहाँ की प्रादेशिक भाषाओं की अपेक्षा प्राकृत का ही उपयोग करते थे। बौद्धों के इस प्रभाव के कारण तेलुगु का अधिक प्रसार न हो सका। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि ब्राहमण वैदिक धर्म के प्रचार के लिए संस्कृत का प्रयोग करते थे, (इससे तेलुगु भाषा) पनप न सकी।" (तेलुगु साहित्य का इतिहास, सम्पादक के. लक्ष्मीरंजनम्, हैदराबाद, 1967, पृष्ठ 22-24)। इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि जब तक बौद्ध धर्म था या हिन्दू धर्म का नाश न हो जाए तब तक तेलुगु जैसी भाषा साहित्य का माध्यम नहीं बन सकती । पर यह निष्कर्ष अवश्य निकलता है कि जहाँ का सामन्त वर्ग अधिक शक्तिशाली तथा रूढ़िवादी था, वहाँ जातीय भाषा के माध्यम से जातीय साहित्य के विकास में अवश्य बाधा पड़ी।