भारतीय साहित्य में भिन्न-भिन्न भाषा-परिवारों के अध्ययन की समस्या - Problem of study of different language families in Indian literature

भारतीय साहित्य में भिन्न-भिन्न भाषा-परिवारों के अध्ययन की समस्या

अब हम इस समस्या पर विचार करेंगे कि भारत में चार भिन्न भाषा-परिवार विद्यमान हैं। ये सब शब्द- भण्डार और व्याकरण की दृष्टि से एक दूसरे से अलग हैं। इन परिवारों की भाषाएँ बोलने वाले एक ही राष्ट्र में कैसे शामिल किए जा सकते हैं ?


पहले तो यह देखना चाहिए कि राष्ट्र के निर्माण और विकास से भाषा-परिवारों की भिन्नता का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। यह निर्माण और विकास इस बात पर निर्भर है कि भिन्न भाषा बोलने वाली जातियों के आपसी सम्बन्ध कैसे हैं, उनकी ऐतिहासिक परम्पराओं में कितनी समानता है, उनके आपसी आर्थिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध कैसे हैं, इत्यादि ।


ऐसे परिवारों की भाषाएँ हैं जो एक दूसरे से नितान्त भिन्न हैं। इनमें एक आर्य भाषा परिवार है जो एक और बड़े इंडो-यूरोपियन परिवार की शाखा है। यह शाखा पहले भारत-ईरानी रूप में संयुक्त थी। आगे चलकर भारतीय आर्य और ईरानी प्रशाखाएँ विभक्त हो गई। क्या यह सत्य नहीं है कि संस्कृत, तमिल की अपेक्षा, ईरानी भाषा (अथवा भाषाओं) के अधिक निकट है ? दूसरा प्रसिद्ध द्रविड़ भाषा परिवार है। 19वीं सदी में काल्डवेल ने इसका सम्बन्ध शक भाषा परिवार से जोड़ा था। 20वीं सदी में द्रविड़ भाषा विशेषज्ञ बरो ने इस शक परिवार को सीमित करके फिनोउग्रियन परिवार से द्रविड़ समुदाय का सम्बन्ध जोड़ा है। प्रायः सभी भाषा वैज्ञानिक सम्प्रदाय के विद्वान् मानते हैं कि आर्यों ने भारत में उत्तर-पश्चिम से प्रवेश करके द्रविड़ों को परास्त किया, उनकी भूमि पर अधिकार किया, उन्हें दास बनाया और विन्ध्याचल के दक्षिण में उन्हें खदेड़ दिया। इससे पहले तो यह सिद्ध हुआ कि आर्यों के आगमन से पहले यहाँ द्रविड़ भाषाएँ बोली जाती थीं। द्रविड़ लोग दक्षिण भारत में भले खदेड़ दिए गए हों, उनकी भाषाओं का नाश नहीं हुआ। आर्यों के आने से पहले से लेकर अंग्रेजों के जाने के बाद तक ये भाषाएँ जीवित रही हैं। अनेक भाषाओं का व्यवहार भारत में अनादि काल से अब तक होता रहा है। ऐसे देश को राष्ट्र की संज्ञा कैसे दी जा सकती है ? फिर विजेता आर्यों के साहित्य के साथ विजित द्रविड़ों के साहित्य को गिनना, दोनों को एक ही राष्ट्र के साहित्य के अन्तर्गत मानना, क्या जले पर नमक छिडकना नहीं है ? क्या यह उन्हीं आर्यों की प्रभुत्वभावना नहीं है जो भारतीयता, राष्ट्रीयता आदि के नाम पर अत्तर जनों को दास बनाते रहे हैं, जिन्होंने द्रविड़ों को विन्ध्याचल के दक्षिण में खदेड़ने के बाद भी उनका पीछा नहीं छोड़ा, वहाँ भी ब्राह्मणों का आधिपत्य कायम किया, संस्कृत भाषा और साहित्य के केन्द्र स्थापित किए, और इस प्रकार आर्य उत्तर भारत द्वारा आर्येतर दक्षिण भारत को गुलाम बनाते रहने का प्रयत्न निरन्तर चालू रहा ? भारतीय साहित्य का इतिहास लिखने का प्रयत्न क्या उसी शृंखला की ओर एक कड़ी नहीं है ? द्रविड़ों के अतिरिक्त यहाँ कोल और मुंडा परिवार की भाषाएँ भी बोली जाती हैं।

भाषा विज्ञानी कहते हैं कि कोल भाषा बोलने वाले लोग यहाँ द्रविड़ों से पहले रहते थे। द्रविड़ों ने उन्हें हटाया, आर्यों के आने पर द्रविड़ और कोल मिलकर आर्यों से लड़े पर जीत न पाए। जो भी हो, ये मुंडा लोग भी भारत में बाहर से आए थे और इनका भाषा समुदाय उस आस्ट्रो-एशियाटिक परिवार की शाखा माना जाता है और दक्षिण-पूर्वी एशिया से लेकर प्रशान्त महासागर के दीप समूह को पार करता हुआ आस्ट्रेलिया तक चला गया है । इस परिवार की भाषाओं में बहुत कम साहित्य लिखा गया है, इसलिए भारतीय साहित्य का इतिहास लिखते समय किसी हद तक उसकी उपेक्षा की जा सकती है। किन्तु जब भारत राष्ट्र की बात करें, तब उसकी उपेक्षा से काम नहीं चलेगा। और इस धारणा का सामना करना होगा कि आर्य-द्रविड़ परिवारों के साथ यहाँ यह तीसरा भाषा परिवार भी है जो राष्ट्र सम्बन्धी कल्पना को खण्डित करता है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि किसी एक ही परिवार की भाषाएँ बोलने वाले लोग कहीं भी एक राष्ट्र के रूप में संगठित नहीं हैं, पूरा परिवार तो बड़ी बात है, उसकी एक शाखा मात्र की भाषाएँ बोलने वाले लोग भी एक राष्ट्र में संगठित नहीं हैं। जर्मनी, आस्ट्रिया, हालैंड, डेनमार्क, नौर्वे, स्वीडन आदि देशों में जर्मन शाखा की भाषाएँ बोली जाती हैं पर ये सब राष्ट्र अलग-अलग हैं। फ्रांस, स्पेन, इटली, रूमानिया में लैटिन शाखा की भाषाएँ बोली जाती हैं, पर ये सब राष्ट्र अलग हैं। फिर अनेक भिन्न परिवार की भाषाएँ जहाँ बोली जाती हों, वहाँ भारत जैसे देश में राष्ट्र की कल्पना कैसे की जा सकती है ?


एक नाग (चीनी-तिब्बती) परिवार अभी और है। मणिपुर, नागालैंड, अरुणाचल, असम के कुछ क्षेत्रों आदि में इस परिवार की भाषाएँ बोली जाती हैं। यह चौथा नाग भाषा परिवार काफी पुराना है। कुछ भाषाविज्ञानियों के अनुसार इस परिवार की भाषा बोलने वाले लोग भारत में आज जहाँ दिखाई देते हैं, उसकी अपेक्षा पुराने जमाने में भारत के और अधिक विस्तृत प्रदेशों में बसे हुए थे। इनकी भाषाओं में भी साहित्य रचना कम हुई है। इसलिए भारतीय साहित्य का इतिहास लिखते समय फ़िलहाल इनकी उपेक्षा भी की जा सकती है पर कोलों की तरह ये नाग लोग भी राष्ट्र सम्बन्धी कल्पना के आड़े आते हैं।


भारत जैसे देश में राष्ट्रीयता का विकास सुदीर्घ ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है। ऐसा नहीं है कि किसी विशेष संवत् मास या तिथि में शुभ मुहूर्त देखकर इस राष्ट्रीयता का जन्म हो गया, फिर वैसे ही किसी विशेष संवत्, मास, और तिथि में वह राष्ट्रीयता निर्वाण को प्राप्त हो गई। उस प्रक्रिया के आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक अनेक कारण हैं और वह प्रक्रिया अभी समाप्त नहीं हुई है। भारतीय साहित्य का इतिहास लिखना उचित है या अनुचित, इस बाते में शंका हो सकती है, पर भारत का इतिहास लिखना चाहिए या नहीं, इस बारे में किसी को शंका नहीं है । सैकड़ों देशी विदेशी इतिहासकार भारत का इतिहास लिखते आए हैं, अब भी लिख रहे हैं। इस इतिहास में वे केवल आधुनिक भारत का इतिहास नहीं लिखते जब अंग्रेजों की कृपा से, मान लीजिए, यहाँ राष्ट्रीय एकता कायम हो गई थी।


इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारत में अंग्रेजी राज कायम होने से पहले बंगाल, पंजाब, सिन्ध और कश्मीर में साहित्य रचना काफी बड़े पैमाने पर हो रही थी। इस साहित्य का माध्यम बांग्ला, पंजाबी, सिन्धी और काश्मीरी भाषाएँ थीं। साहित्य रचने वाले अधिकतर मुसलमान थे। अंग्रेजी राज कायम होने के बाद कश्मीरी, पंजाबी और सिन्धी में साहित्य रचना बहुत कम हो गई। बंगाल में साहित्य रचना जोरों से हुईकिन्तु इसमें भाग लेने वाले मुसलमानों की संख्या नगण्य थी। इससे एक निष्कर्ष यह निकलता है कि मुसलमानों के राजत्वकाल में कश्मीरी, सिन्धी आदि जातियों का सांस्कृतिक विकास अवरुद्ध नहीं हुआ। वह अवरुद्ध हुआ अंग्रेजों के जमाने में।


हिन्दी राष्ट्रभाषा हो, चाहे न हो, वह भारत की एक भाषा अवश्य है। यदि भारतीय साहित्य के अन्तर्गत इस देश की विभिन्न भाषाओं में रचा हुआ साहित्य विवेचित होगा तो उसमें हिन्दी साहित्य का विवेचन शामिल किया जाएगा। मान लीजिए, हिन्दी राष्ट्रभाषा बना दी गई है, केन्द्रीय राजकाज और अन्य अखिल भारतीय कार्यों मैं उसका व्यवहार होने लगा है, अंग्रेजी के व्यवहार पर रोक लगा दी गई है, तो क्या इससे भारतीय साहित्य वही साहित्य कहलाएगा जो हिन्दी में लिखा गया होगा ? अन्य भाषाओं में रचे गए साहित्य को अभारतीय कह कर क्या उसकी उपेक्षा की जाएगी ? यदि कोई ऐसा करना चाहे तो उसका यह प्रयत्न राष्ट्रीय एकता का नाश करने वाला कहा जाएगा। राष्ट्रीय एकता का अर्थ अनेक भाषाओं का सह-अस्तित्व, उनका परस्पर सहयोग है, उनका विनाश या दमन नहीं है।


इस तरह की तमाम भ्रान्तियाँ इस कारण पैदा होती हैं कि ब्रिटेन को एक भाषा वाला राज्य मानकर लोगों ने उसे राष्ट्र संज्ञा का आदर्श उदाहरण मान लिया है। वे समझते हैं, भारतीय साहित्य किसी एक भाषा का साहित्य हो सकता है, फिर वह भाषा संस्कृत हो, अंग्रेजी हो, चाहे हिन्दी हो । किन्तु यदि राष्ट्र बहुजातीय होते हैं, उनमें अनेक भाषाओं का व्यवहार होता है, तो यह अत्यन्त स्वाभाविक है कि भारतीय साहित्य के अन्तर्गत अनेक भाषाओं में रचे गए साहित्य का विवेचन किया जाए। किसी एक भाषा में रचे गए साहित्य को ही भारतीय समझना अस्वाभाविक होगा।


भारतीय साहित्य में भिन्न-भिन्न भाषा-परिवारों के अध्ययन की समस्या

अब हम इस समस्या पर विचार करेंगे कि भारत में चार भिन्न भाषा-परिवार विद्यमान हैं। ये सब शब्द- भण्डार और व्याकरण की दृष्टि से एक दूसरे से अलग हैं। इन परिवारों की भाषाएँ बोलने वाले एक ही राष्ट्र में कैसे शामिल किए जा सकते हैं ?


पहले तो यह देखना चाहिए कि राष्ट्र के निर्माण और विकास से भाषा-परिवारों की भिन्नता का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। यह निर्माण और विकास इस बात पर निर्भर है कि भिन्न भाषा बोलने वाली जातियों के आपसी सम्बन्ध कैसे हैं, उनकी ऐतिहासिक परम्पराओं में कितनी समानता है, उनके आपसी आर्थिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध कैसे हैं, इत्यादि ।


ऐसे परिवारों की भाषाएँ हैं जो एक दूसरे से नितान्त भिन्न हैं। इनमें एक आर्य भाषा परिवार है जो एक और बड़े इंडो-यूरोपियन परिवार की शाखा है। यह शाखा पहले भारत-ईरानी रूप में संयुक्त थी। आगे चलकर भारतीय आर्य और ईरानी प्रशाखाएँ विभक्त हो गई। क्या यह सत्य नहीं है कि संस्कृत, तमिल की अपेक्षा, ईरानी भाषा (अथवा भाषाओं) के अधिक निकट है ? दूसरा प्रसिद्ध द्रविड़ भाषा परिवार है। 19वीं सदी में काल्डवेल ने इसका सम्बन्ध शक भाषा परिवार से जोड़ा था। 20वीं सदी में द्रविड़ भाषा विशेषज्ञ बरो ने इस शक परिवार को सीमित करके फिनोउग्रियन परिवार से द्रविड़ समुदाय का सम्बन्ध जोड़ा है। प्रायः सभी भाषा वैज्ञानिक सम्प्रदाय के विद्वान् मानते हैं कि आर्यों ने भारत में उत्तर-पश्चिम से प्रवेश करके द्रविड़ों को परास्त किया, उनकी भूमि पर अधिकार किया, उन्हें दास बनाया और विन्ध्याचल के दक्षिण में उन्हें खदेड़ दिया। इससे पहले तो यह सिद्ध हुआ कि आर्यों के आगमन से पहले यहाँ द्रविड़ भाषाएँ बोली जाती थीं। द्रविड़ लोग दक्षिण भारत में भले खदेड़ दिए गए हों, उनकी भाषाओं का नाश नहीं हुआ। आर्यों के आने से पहले से लेकर अंग्रेजों के जाने के बाद तक ये भाषाएँ जीवित रही हैं। अनेक भाषाओं का व्यवहार भारत में अनादि काल से अब तक होता रहा है। ऐसे देश को राष्ट्र की संज्ञा कैसे दी जा सकती है ? फिर विजेता आर्यों के साहित्य के साथ विजित द्रविड़ों के साहित्य को गिनना, दोनों को एक ही राष्ट्र के साहित्य के अन्तर्गत मानना, क्या जले पर नमक छिडकना नहीं है ? क्या यह उन्हीं आर्यों की प्रभुत्वभावना नहीं है जो भारतीयता, राष्ट्रीयता आदि के नाम पर अत्तर जनों को दास बनाते रहे हैं, जिन्होंने द्रविड़ों को विन्ध्याचल के दक्षिण में खदेड़ने के बाद भी उनका पीछा नहीं छोड़ा, वहाँ भी ब्राह्मणों का आधिपत्य कायम किया, संस्कृत भाषा और साहित्य के केन्द्र स्थापित किए, और इस प्रकार आर्य उत्तर भारत द्वारा आर्येतर दक्षिण भारत को गुलाम बनाते रहने का प्रयत्न निरन्तर चालू रहा ? भारतीय साहित्य का इतिहास लिखने का प्रयत्न क्या उसी शृंखला की ओर एक कड़ी नहीं है ? द्रविड़ों के अतिरिक्त यहाँ कोल और मुंडा परिवार की भाषाएँ भी बोली जाती हैं।

भाषा विज्ञानी कहते हैं कि कोल भाषा बोलने वाले लोग यहाँ द्रविड़ों से पहले रहते थे। द्रविड़ों ने उन्हें हटाया, आर्यों के आने पर द्रविड़ और कोल मिलकर आर्यों से लड़े पर जीत न पाए। जो भी हो, ये मुंडा लोग भी भारत में बाहर से आए थे और इनका भाषा समुदाय उस आस्ट्रो-एशियाटिक परिवार की शाखा माना जाता है और दक्षिण-पूर्वी एशिया से लेकर प्रशान्त महासागर के दीप समूह को पार करता हुआ आस्ट्रेलिया तक चला गया है । इस परिवार की भाषाओं में बहुत कम साहित्य लिखा गया है, इसलिए भारतीय साहित्य का इतिहास लिखते समय किसी हद तक उसकी उपेक्षा की जा सकती है। किन्तु जब भारत राष्ट्र की बात करें, तब उसकी उपेक्षा से काम नहीं चलेगा। और इस धारणा का सामना करना होगा कि आर्य-द्रविड़ परिवारों के साथ यहाँ यह तीसरा भाषा परिवार भी है जो राष्ट्र सम्बन्धी कल्पना को खण्डित करता है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि किसी एक ही परिवार की भाषाएँ बोलने वाले लोग कहीं भी एक राष्ट्र के रूप में संगठित नहीं हैं, पूरा परिवार तो बड़ी बात है, उसकी एक शाखा मात्र की भाषाएँ बोलने वाले लोग भी एक राष्ट्र में संगठित नहीं हैं। जर्मनी, आस्ट्रिया, हालैंड, डेनमार्क, नौर्वे, स्वीडन आदि देशों में जर्मन शाखा की भाषाएँ बोली जाती हैं पर ये सब राष्ट्र अलग-अलग हैं। फ्रांस, स्पेन, इटली, रूमानिया में लैटिन शाखा की भाषाएँ बोली जाती हैं, पर ये सब राष्ट्र अलग हैं। फिर अनेक भिन्न परिवार की भाषाएँ जहाँ बोली जाती हों, वहाँ भारत जैसे देश में राष्ट्र की कल्पना कैसे की जा सकती है ?


एक नाग (चीनी-तिब्बती) परिवार अभी और है। मणिपुर, नागालैंड, अरुणाचल, असम के कुछ क्षेत्रों आदि में इस परिवार की भाषाएँ बोली जाती हैं। यह चौथा नाग भाषा परिवार काफी पुराना है। कुछ भाषाविज्ञानियों के अनुसार इस परिवार की भाषा बोलने वाले लोग भारत में आज जहाँ दिखाई देते हैं, उसकी अपेक्षा पुराने जमाने में भारत के और अधिक विस्तृत प्रदेशों में बसे हुए थे। इनकी भाषाओं में भी साहित्य रचना कम हुई है। इसलिए भारतीय साहित्य का इतिहास लिखते समय फ़िलहाल इनकी उपेक्षा भी की जा सकती है पर कोलों की तरह ये नाग लोग भी राष्ट्र सम्बन्धी कल्पना के आड़े आते हैं।


भारत जैसे देश में राष्ट्रीयता का विकास सुदीर्घ ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है। ऐसा नहीं है कि किसी विशेष संवत् मास या तिथि में शुभ मुहूर्त देखकर इस राष्ट्रीयता का जन्म हो गया, फिर वैसे ही किसी विशेष संवत्, मास, और तिथि में वह राष्ट्रीयता निर्वाण को प्राप्त हो गई। उस प्रक्रिया के आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक अनेक कारण हैं और वह प्रक्रिया अभी समाप्त नहीं हुई है। भारतीय साहित्य का इतिहास लिखना उचित है या अनुचित, इस बाते में शंका हो सकती है, पर भारत का इतिहास लिखना चाहिए या नहीं, इस बारे में किसी को शंका नहीं है । सैकड़ों देशी विदेशी इतिहासकार भारत का इतिहास लिखते आए हैं, अब भी लिख रहे हैं। इस इतिहास में वे केवल आधुनिक भारत का इतिहास नहीं लिखते जब अंग्रेजों की कृपा से, मान लीजिए, यहाँ राष्ट्रीय एकता कायम हो गई थी।


इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारत में अंग्रेजी राज कायम होने से पहले बंगाल, पंजाब, सिन्ध और कश्मीर में साहित्य रचना काफी बड़े पैमाने पर हो रही थी। इस साहित्य का माध्यम बांग्ला, पंजाबी, सिन्धी और काश्मीरी भाषाएँ थीं। साहित्य रचने वाले अधिकतर मुसलमान थे। अंग्रेजी राज कायम होने के बाद कश्मीरी, पंजाबी और सिन्धी में साहित्य रचना बहुत कम हो गई। बंगाल में साहित्य रचना जोरों से हुईकिन्तु इसमें भाग लेने वाले मुसलमानों की संख्या नगण्य थी। इससे एक निष्कर्ष यह निकलता है कि मुसलमानों के राजत्वकाल में कश्मीरी, सिन्धी आदि जातियों का सांस्कृतिक विकास अवरुद्ध नहीं हुआ। वह अवरुद्ध हुआ अंग्रेजों के जमाने में।


हिन्दी राष्ट्रभाषा हो, चाहे न हो, वह भारत की एक भाषा अवश्य है। यदि भारतीय साहित्य के अन्तर्गत इस देश की विभिन्न भाषाओं में रचा हुआ साहित्य विवेचित होगा तो उसमें हिन्दी साहित्य का विवेचन शामिल किया जाएगा। मान लीजिए, हिन्दी राष्ट्रभाषा बना दी गई है, केन्द्रीय राजकाज और अन्य अखिल भारतीय कार्यों मैं उसका व्यवहार होने लगा है, अंग्रेजी के व्यवहार पर रोक लगा दी गई है, तो क्या इससे भारतीय साहित्य वही साहित्य कहलाएगा जो हिन्दी में लिखा गया होगा ? अन्य भाषाओं में रचे गए साहित्य को अभारतीय कह कर क्या उसकी उपेक्षा की जाएगी ? यदि कोई ऐसा करना चाहे तो उसका यह प्रयत्न राष्ट्रीय एकता का नाश करने वाला कहा जाएगा। राष्ट्रीय एकता का अर्थ अनेक भाषाओं का सह-अस्तित्व, उनका परस्पर सहयोग है, उनका विनाश या दमन नहीं है।


इस तरह की तमाम भ्रान्तियाँ इस कारण पैदा होती हैं कि ब्रिटेन को एक भाषा वाला राज्य मानकर लोगों ने उसे राष्ट्र संज्ञा का आदर्श उदाहरण मान लिया है। वे समझते हैं, भारतीय साहित्य किसी एक भाषा का साहित्य हो सकता है, फिर वह भाषा संस्कृत हो, अंग्रेजी हो, चाहे हिन्दी हो । किन्तु यदि राष्ट्र बहुजातीय होते हैं, उनमें अनेक भाषाओं का व्यवहार होता है, तो यह अत्यन्त स्वाभाविक है कि भारतीय साहित्य के अन्तर्गत अनेक भाषाओं में रचे गए साहित्य का विवेचन किया जाए। किसी एक भाषा में रचे गए साहित्य को ही भारतीय समझना अस्वाभाविक होगा।