निदानात्मक तथा कार्यात्मक सम्प्रदाय में अन्तर - Differences In Diagnostic And Functional Sects

निदानात्मक तथा कार्यात्मक सम्प्रदाय में अन्तर - Differences In Diagnostic And Functional Sects


 निदानात्मक सम्प्रदाय तथा कार्यात्मक सम्प्रदाय में निम्न अन्तर दृष्टिगोचर होता  हैः

(1) व्यक्तित्व संरचना के प्रत्यय में अन्तरः- निदानात्मक सम्प्रदाय फ्रायड तथा उनके साथियों द्वारा विकसित किये गये व्यक्तित्व सिद्धांत का पालन करता है जब कि कार्यात्मक सम्प्रदाय ओटो रैंक की संकल्प शक्ति पर आधारित है। रैंक के विचार से व्यक्तित्व में ही संगठनात्मक शक्ति होती है। जिसे संकल्प कहते हैं। फ्रायड के सिद्धान्त के अनुसार व्यक्तित्व संरचना में संगठन शक्ति नहीं होती है। व्यक्तित्व संगठन में अनेक विभिन्न तथा अन्तः क्रियात्मक शक्तियाँ होती है जो न केवल एक-दूसरे के प्रति अन्तक्रिया करती हैं बल्कि पर्यावरण में अनुकूल एवं प्रतिकूल प्रभावों के प्रति भी प्रकट होती है। इन शक्तियों की सापेक्षित ताकत तथा संतुलन व्यवस्था व्यक्ति के पूर्व अनुभव द्वारा उत्पन्न होती है जिसको वह अपने माता-पिता से सम्बन्ध स्थापित करने के कारण प्राप्त करता है। इस मनोसंरचना में अहं का मुख्य स्थान होता है। वह अनेक कार्य करता है परन्तु सबसे प्रमुख कार्य पराहं तथा आन्तरिक चालकों में सन्तुलन बनाये रखना है। वह व्यक्ति की मनोआवश्यकताओं को वास्तविकता की माँग से समझौता कराता है।   

इस प्रकार अहं आन्तरिक तथा बाह्य दोनों ही शक्ति के रूप में कार्य करता है। इसका कार्य प्रत्यक्षीकरण, वास्तविकता परीक्षण, निर्णय, संगठन, नियोजन तथा आत्म संरक्षित रखना है। अहं की शक्ति व्यक्ति के मनो-सामाजिक विकास पर निर्भर होती है। मनो-चिकित्सकीय सहायता द्वारा अहं का विकास किया जा सकता है। निदानात्मक सम्प्रदाय के अनुसार व्यक्तित्व संरचना, अन्तर्मनोसंघर्ष तथा उसका वर्तमान समस्या से सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त करना सेवार्थी में सुधार एवं परिवर्तन के लिए आवश्यक होता है। यह मनोकार्यात्मकता में प्रतिमानों के अस्तित्व को स्वीकार करता है जिसके द्वारा व्यक्ति के विचलन को वर्गीकृत करके समझा जा सकता है। मनोसामाजिक व्यवधान चिकित्सा के रूप को निश्चित करता है।   

 कार्यात्मक सम्प्रदाय व्यक्त्वि सिद्धान्त की आन्तरिक मूल-प्रवृत्तियों एवं आवश्यकताओं में अन्तःक्रिया तथा बाह्य पर्यावरण सम्बन्धी अनुभव को महत्व देता है। परन्तु यह अन्तःक्रिया जन्मजात संकल्प शक्ति द्वारा आत्म विकास के लिए संगठित एवं निर्देशित होती है। वह इस प्रकार से आन्तरिक तथा वाह्य अनुभव उत्पन्न करता है जिससे अहं का विकास होता है। संकल्प अच्छा का कार्य वैयक्तिकता का विकास करना है। अतः मानव प्राणी प्रारम्भिक काल से ही न केवल बाह्य तथा आन्तरिक वास्तविकता द्वारा कार्य करता है बल्कि वास्तविकता पर भी कार्य करता है। इस दृष्टि से अहं तथा आत्म (स्व) का विकास संकल्प साधन द्वारा आन्तरिक तथा बाह््य अनुभवों में रचनात्मक उपयोग द्वारा होता है। आन्तरिक तथा बाह््य शक्तियों में अन्तःक्रिया के फलस्वरूप स्वयं का विकास सम्भव नहीं है।     यह विकास परिवेश में अर्थपूर्ण सम्बन्धों के विकसित होने के साथ-साथ घटित होता है। इन परिवेश के सम्बन्धों में सबसे प्रथम तथा प्रमुख स्थान माता से सम्बन्ध का है। बालक इन सम्बन्धों में अपनी आवश्यकताओं को दूसरों पर प्रक्षेपित करता है इस अवस्था में मुख्य आवश्यकताएँ जैविकीय होती हैं अतः उनमें बहुत  अधिक मानसिक महत्व होता है। इस आवश्यकता की संतुष्टि के कार्य में बालक से संघ स्थापित करने के लिए मनौवैज्ञानिक प्रभाव होता है। बालक इन सम्बन्धों के अनुभव से बिलकुल रिक्त होने के कारण बहुत अधिक प्रभाव अनुभव करता है। परन्तु वास्तविकता में सम्पूर्ण संघ या सम्बन्ध सम्भव नहीं है अतः पृथक्कीरण स्वभावतः घटित होता है जिसका उपयोग संकल्प शक्ति रचनात्मक तरीके से करती है और इससे वास्तविकता की सीमाओं की रचना का आन्तरिक सम्पूर्णता का विकास सम्भव होता है अथवा ध्वंसात्मक तरीके से सीमाओं का उल्लंघन कर दूसरे से संघ स्थापित करने के कार्य में निरन्तरता बनाये रखता है। 

 दोनों सम्प्रदाय प्रक्षेपण तथा प्रतिरोध का अलग-अलग अर्थ लगाते है। निदानात्मक सम्प्रदाय के अनुसार प्रक्षेपण एक सुरक्षात्मक यन्त्र है जिसके द्वारा अपनी भावनाओं को दूसरे पर आरोपित कर दिया जाता है। कार्यात्मक सम्प्रदाय के विचारक इसका अर्थ आन्तरिक मूल प्रवृत्तियों के बाह््य वस्तु पर व्यक्तिकरण से समझते है। व्यक्ति उस बाह््य वस्तु औचित्यता को अपनी रुचि के अनुसार उपयोग करता है।    प्रतिरोध भी इसी प्रकार दोनों सम्प्रदायों के लिए अलग-अलग अर्थ रखता है। निदानात्मक सम्प्रदाय के दृष्टिकोण से प्रतिरोध का अर्थ अस्वीकृत विचारों को व्यक्त होने पर अहं द्वारा रोक लगाना है, प्रतिरोध आत्म ज्ञान में बाधक होता है। अतः चिकित्सा प्रक्रिया में प्रतिरोध को सेवार्थी के इच्छित अनुकूलन तथा समायोजन के लिए दूर करना आवश्यक होता है। कार्यात्मक सम्प्रदाय के विचार से प्रतिरोध का अर्थ संकल्प द्वारा सम्बद्व स्थिति पर नियन्त्रण रखना है जिससे शीघ्र परिवर्तन सम्भव  हो। अतः कार्यात्मक वैयक्तिक कार्यकर्ता प्रतिरोधों को दूर करने के प्रयत्न के स्थान पर इस स्थिति के किसी भी भाग पर सेवार्थी की नियन्त्रण की आवश्यकता की प्रामाणिकता को स्वीकार करता है और इस प्रकार वह नवीन अनुभव प्रदान करता है जिसके द्वारा वह संकल्प के ध्वसंसात्मक प्रयोग का बहिष्कार करता है।     कार्यात्मक कार्यकर्ता सेवार्थी को स्वयं अपने भाग्य का निर्माता मानता है। वह व्यक्तित्व निर्माण आन्तरिक चालकों तथा बाह््य परिस्थितियों के प्रभाव को स्वीकार नहीं करता है। निदानात्मक कार्यकर्ता के अनुसार व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण मूल आवश्यकताओं तथा शारीरिक एवं मानसिक पर्यावरण के अन्तः सम्बन्धों से होती है।