संस्कृत व्यंजन वर्णमाला - संस्कृत में कितने व्यंजन वर्ण होते हैं? - संस्कृत वर्ण प्रकरण
संस्कृत व्यंजन वर्णमाला - संस्कृत में कितने व्यंजन वर्ण होते हैं? - संस्कृत वर्ण प्रकरण
संस्कृत
व्यंजन वर्णमाला - संस्कृत में कितने व्यंजन वर्ण होते हैं? -
संस्कृत वर्ण प्रकरण
व्यञ्जन-स्वरों के उच्चारण में फेफड़ों से
बाहर आती हुई या लगभग बिना रुकावट के बाहर निकलती है। व्यंजनों के उच्चारण में
कण्ठ से लेकर ओठो तक के मार्ग में हया विभिन्न स्थानों को स्पर्श करती हुई बाहर
आती है। इस प्रकार प्यंजनों में पहला भेद उनके उच्चारण के स्थान की दृष्टि से होता
है। दूसरा भेद उनके उ उच्चारण के प्रयत्न की दृष्टि से होता है कुछ व्यंजनों के
उच्चारण में फेफड़ों की हवा अधिक बल के साथ बाहर आती है इन व्यंजनों को महाप्राण
कहते हैं। कुछ व्यंजनों के उच्चारण में कंठ में स्थित स्वरतंत्रियों में कम्पन
होता है,
इन व्यंजनों को घोष कहते कुछ व्यंजनों के उच्चारण में हवा
मुख के साथ-साथ नाक से भी बाहर आती है, ऐसे व्यंजनों को नासिक्य
कहते है, स्थान और प्रयत्न की दृष्टि से संस्कृत के व्यंजनों का विभाजन नीचे सारणी
में दिया गया है।
व्यञ्जन
(क)स्पर्श अघोष अघोष घोष
घोष घोष
प्रयत्न अल्पप्राण
महाप्राण अल्पप्राण
महाप्राण नासिक्य
उच्चारण स्थान
कंठव्य क ख ग
घ ङ
तालव्य च छ ज झ ञ
मूर्धन्य ट ठ ड
ढ ण
दन्त्य त थ द ध न
ओष्ठ्य प फ ब भ म
(ख) अर्धस्वर
(घोष) य र ल व
(ग) ऊष्म (अघोष) श ष स
(घ) कन्ठय महाप्राण : ह
अनुस्वार
(ं) और अनुनासिक (ँ)
सरल
व्यंजन- आइए. इन व्यंजनों के विभिन्न वर्गों पर
क्रमशः विचार करें। पहले कॉलम के पाँच व्यंजन (क च ट त प) अपने अपने
उच्चारण स्थानों पर जीभ या ओठो के द्वारा हवा के सामान्य रूप से रुकने से उच्चारित
होते हैं। इन व्यंजनों के उच्चारण में और कोई विशेष बात नहीं है इसलिए हम इन्हें
सरल व्यंजन कहेंगे ये अघोष अल्पप्राण है। इसका उच्चारण कण्ठ के भीतरी भाग से
प्रारंभ होकर ओठों पर समाप्त होता है। विसर्ग (:) संस्कृत में विसर्ग (:) का
उच्चारण हलके ह जैसा होता है। संस्कृत शब्दों के अन्त में विसर्ग का प्रयोग काफी
अधिक होता है। आइए. अब हम निम्नलिखित शब्दों को पढ़ें- अत:- इसलिए, अपि- भी, पाठः, पट:- कपड़ा, एक:- एक (पुलिंग). क:-कौन? बालक:- बालक, एक:
बालक:- एक बालक।
अघोष
महाप्राण व्यंजन - दूसरे कालम के व्यंजन (ख छ ठ थ फ)
का उच्चारण उन्हीं स्थानों से होता है जिनसे पहले कालम के व्यंजनों (क च ट त प)
का,
पर इनके उच्चारण में फेफड़ों की हवा विशेष बल के साथ बाहर निकलती
है। यदि आप अपने मुंह के सामने उल्टा हाथ रखकर ख छ ठ थ फ का उच्चारण करे तो आप हवा
के इस झोके को स्पष्ट अनुभव कर सकते है। इसी कारण इन व्यंजनों को महाप्राण कहा
जाता है। निम्नलिखित शब्दों को पदिए:
पाठः, नखः छटा, फेनः, कथा, अतिथि:, नभः- (आकाश), अपि-भी
वन-सारणी प तीसरे
कालम के व्यंजन (ग ज ड द व) का उगारण उन्ही खाने से होता है जिनसे पहले
कालम के व्यंजनों का। इनके उधारण में गले के की योमे कम्पन होता है जिससे उन
योजनाओं के जमारण में एक विशेष गूंज सी उत्पन्न होती है क-ग, प-ब, आदि अक्षरों के जोड़ों का उच्चारण
कर आप इस गूँज को अनुभव कर सकते हैं। इस गूँज के कारण ग जउ द ब को घोष संधान
संस्कृत-प्रवेश कहा जाता है। निम्नलिखित शब्दों को पढ़िए
गतिः, पादः, देह:, गौ., दुःखी दाता, जगत्, बलम्,
दुःखम्।
घोष
महाप्राण व्यंजन- चौथे कालम के व्यंजनों (ध झ द ध भ)
का उच्चारण तीसरे कालम के व्यंजनों के समान होता है पर इनके उच्चारण में
स्वरतंत्रियों में कंपन के साथ हवा विशेष बल के साथ बाहर निकलती है। ये व्यंजन
महाप्राण और घोष दोनों है। निम्नलिखित शब्दों को पढ़िए
भगिनी
बहिन, नाभिः घट:-घडा, अधुना-अब,
दधि-दही।
नासिक्य
व्यञ्जन-सारणी के अन्तिम कालम के पाँचो व्यंजनों (ड ञ ण न म) का उच्चारण
उन्हीं स्थानों से होता है जहाँ से उस पर्ग के अन्य व्यंजनों का, किन्तु उनके उच्चारण में हया मुख के साथ नाक से भी निकलती है। इनको
नासिक्य व्यंजन कहते हैं। निम्नलिखित शब्दों को पढ़िए :
माता, जनः, नमः, कणः, मान:, तमः. मम, नाम, न।
टिप्पणी-नासिक्य
व्यंजनों (ड ज ण न म) को पंचमाक्षर भी कहते है क्योकि ये अपने-अपने वर्ग के पांच
अक्षर है।
अनुस्वार
और अनुनासिक- अनुस्वार का उच्चारण अर्धस्वर, ऊष्म और ह से पूर्व नासिक्य ध्वनि को बताने के लिए होता है, जैसे:- संयम, संशय, संहार आदि।
अनुस्वार और अनुनासिक में अन्तर है। अनुस्वार एक अलग व्यंजन वर्ण है, परन्तु अनुनासिक कोई अलग ध्वनि नहीं है। जब किसी स्वर के उच्चारण में हवा
नासिका में से भी निकले तो वह स्वर अनुनासिक हो जाता है, जैसे: देवॉस्तरति, कस्मिंश्चित्।।
अर्धस्वर
और ऊष्म व्यंजन - य र ल व को अर्धस्वर कहते हैं
क्योंकि इनका उच्चारण स्वरों और व्यंजनों के बीच का है। आगे चलकर हम देखेगे कि इन
चारो अर्ध स्वरों का क्रमशः इ, ऋ, लृ और उ स्वरों के साथ विशेष संबंध है। श ष ह
का सामूहिक नाम ऊष्म है। ऊष्म ध्वनियों के उच्चारण में हवा मुख में जीभ से रगड़
खाकर बाहर निकलती है। इनमें से ष का उचारण लगभग लुप्त हो चुका है और अब
इसका उच्चारण श के समान ही होने लगा है। पर संस्कृत शब्दो को लिखते हुए श
और ष का अंतर करना महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए शेष शब्द में दोनों व्यंजनों का
उच्चारण एक जैसा होते हुए भी उन्हें अलग-अलग रूप में लिखना आवश्यक है। निम्नलिखित
शब्दों को ध्यानपूर्वक पढिए।
सुखी
आशा, आय:, देवः, तव-तुम्हारा, स-वह (पु.) सा-वह (स्त्री.). एषः यह
(पुलिंग). एषा- यह (स्त्रीलिंगी). वेश: शेष बाकी सखा. एव।
वैसे तो सभी भाषाओं
में शुद्ध उच्चारण करना आवश्यक है पर संस्कृत में शुद्ध उच्चारण का विशेष महत्त्व
है। संस्कृत की एक सुदीर्घ और गंभीर मौखिक परम्परा है। संस्कृत की आत्मा में प्रवेश
करने के लिए शब्दों का मुखर उच्चारण बहुत महत्वपूर्ण है। संस्कृत के मंत्रों का
पाठ,
श्लोकों का वाचन, स्त्रोत का गायन आज भी
प्रचलित है। संस्कृत की ध्वनियों का अपना एक विशेष स्पन्दन है जो हमारी चेतना को
प्रभावित करता है। इसलिए संस्कृत के वाक्यों को मौन पढ़कर उनका अर्थ समझ लेना काफी
नहीं है। उन्हे बार-बार ऊँची आवाज में बोलिए ताकि आप संस्कृत शब्दों के स्पन्दन को
आत्मसात् कर सके। इसी प्रकार पाठो में आए श्लोकों को याद कर लीजिए और उनका बार-बार
गायन कीजिए। इस प्रकार आप न केवल संस्कृत के शब्दों और उनके अर्थों को समझ सकेंगे
अपितु संस्कृत की आत्मा में भी सहज रूप से प्रवेश कर सकेगे।
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