विकास के मुद्दे(Development Issues)
विकास के मुद्दे (Development Issues )
संस्थाओं की अपने लक्ष्य की पूर्ति करने हेतु विभिन्न प्रकार की उमरती हुई सामाजिक, न्यायिक, आर्थिक, पर्यावरणी तथा अन्य प्रकार की चुनोतियो को ध्यान में रखना होता है। और इन्ही चुनौतियों अथवा मुद्दो को सुलझाने हेतु ना नही सिर्फ संस्थाओं को, प्रायोगिक प्रबंधन कार्यकुशलता की आवश्यकता होती है बल्कि सम्बन्धित विषयों में उचित जानकारी तथा संवेदनशीलता की भी आवश्यकता है तथा ये जरूरी है। आपने कुछ शब्दों का उच्चारण अवश्य सुना होगा, जैसे सामाजिक आर्थिक अथवा सामाजिक-राजनैतिक कारक, और साथ ही पर्यावरणीय कारक और हम सभी इन्हीं जटिल तथा मुश्किल वातावरण में रहते है तथा इन्हें ही सरल बनाना सभी गैर सरकारी संस्थाओं का उद्देश्य होता है तथा उनके लिए महत्वपूर्ण कार्य करने का क्षेत्र भी । गैर सरकारी संस्थाएँ जो कि सामुदायिक विकास हेतु विभिन्न समुदायों से जुड़कर कार्यरत है वो सिर्फ वहाँ रहने वाले निवासी के साथ ही नहीं जुड़ी हुई है बल्कि उनसे सम्बन्धित कई तरह / प्रकार के अन्य कारणों से भी जुड़ी हुई है। स्थानीय समुदायों के आयाम बहुआगामी होते है, जिनका अध्ययन, न्यायिक तथा स्थानीय सरकारी कारणों को भी सुनना देखना तथा उसके (Follow) पीछे चलना भी आवश्यक है।
जैसा कि सभी को विदित है आज की सामाजिक जरूरत के हिसाब से जहाँ, मानव अधिकार तथा लैंगिक मुद्दों को सबसे ज्यादा अहमियत दी जा रही है, वहाँ अन्य कारणों के साथ इन्हें भी नेता तथा उनके सहयोगी समूह को लोगों की साथ कार्य करने की कार्य कुशलता, आवश्यक जानकारी तथा उचित सहयोगी स्रोतों की भी जानकारी क्षेत्रीय कार्य हेतु आवश्यक होती है। संस्था प्रमुख को इतना समझदार होना आवश्यक होता है, जिससे कि वो जटिल परिस्थितियों तथा समस्याओं तथा मुद्दों को आसानी से समझ जाए तथा उनको सुलझाने हेतु जल्दी से जल्दी आवश्यक निर्णयों को लेकर कार्य सम्पादित करेंगे।
संस्थाओं के वातावरण को सुगमता से चलाने हेतु प्रबंधन की जानकारी तथा निपुणता से कार्यों को सम्हालने की जबरदस्त आवश्यकता है। और यहाँ हम खुद ऐसे ही मुद्दो की बात करेगें जो कि इस इकाई में बताए जा रहे हैं।
1. गरीबी तथा विकास
2. प्रबंधन की चुनौतियाँ
3. गरीबी तथा उसका गलत इस्तेमाल
4. गरीबी तथा विनाशकारी कारक
5. गरीबी तथा शक्ति कि हीनता
6. विकास के सूचकांक
(१) गरीबी तथा विकास
गरीबी का नाम जब भी हमारे सामने आता है या ये शब्द जब भी हम सुनते है तो हमारा अंदाज तथा अनुमान रूपया पैसा, जमीन जायदाद तथा शायद व्यक्ति विशेष की (डिग्री) शिक्षा होता है और इन्हीं से हम व्यक्ति गरीब है या अमीर इसे परिभाषित भी करते है। परन्तु हम यहाँ गरीबी के कुछ अन्य तथा विभिन्न प्रकार के आयामों पर भी नजर डालेगें, जिससे हमे "गरीबी" शब्द की परिभाषा तथा अर्थ समझने में आसानी हो सके।
1960 में मुख्य रूप से जब भी 'गरीबी' पर विचार विमर्श हुआ तो मुख्यतः ,व्यक्ति तथा परिवार की आय के पैमाने को महत्व दिया जाता रहा है, और गरीबी को हमेशा "रूपयें पैसे की औकात" के तर्ज पर आँका जाता था हाँ आज भी वर्ल्ड बैंक (World Bank) गरीबी को हरेक दिन की एक व्यक्ति की 'आय' रूप में ही ऑकता है। गरीबी किसी एक व्यक्ति की आय के स्तर को नाप कर जानी जाय या फिर उसके पूरे परिवार की महीने की आय को ? यह एक ज्वलंत प्रश्न आज भी है। क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं ने इसे किसी व्यक्ति या परिवार की आय ही ना मान कर सार्वभौमिक रूप में देखा व स्वीकार किया।
इस सच्चाई से मुहँ नहीं मोड़ा जा सकता कि किसी न किसी रूप में "पैसा" गरीबी से जुड़ा हुआ है, क्योंकि इसकी कमी से व्यक्ति कुछ भी करने को तैयार हो जाता है, और बहुत से ऐसे कार्य है जो वो नहीं कर पाता है, जो कि पैसेवाले (अमीर) आसानी से कर लेते है, जैसे कुछ ऐसी सुविधाएँ जो जीवन को आनंदित करती है वो “पैसे की कमी" से इंसान नहीं कर पाता वही पर्याप्त धन वाले उन सुख-सुविधाओं का संपूर्ण उपयोग करते है। कई बार पैसे से कमजोर लोग धनवान बॉस द्वारा प्रताड़ित तथा गलत तरीके से इस्तेमाल (शोषित) में लिए जाते है। और धनविहीन को यही कमी शक्तिहीन भी बनाती है।
इस प्रकार आप देख सकते है ज्यादा धनविहीन होना ही 'गरीब' का कारण नहीं है बल्कि 'गरीबी का तात्पर्य है अन्य सामाजिक सुविधाओं को भोगने में ना कामयाबी, असफलता तथा अन्य राजनैतिक, संस्कृतिक सामाजिक कारकों से भी है जो व्यक्ति तथा समाज पर असर डालते है। अब हम यहाँ संक्षेप में इस बात को समझने की कोशिश करेंगे कि किस प्रकार से गरीबी पिछले कुछ दशकों में उभरकर सामने आई है। सन् 1970 में गरीबी, विश्व बैंक (world Bank) का एक महत्वपूर्ण मद्दा बन गई। जिस कारण से विश्व बैंक का मुख्य जोर गरीबी तथा इससे सम्बन्धित "वंचित क्षेत्रों पर था जो कि गरीबी को पुनः परिभाषित करने में सहायक बनें। सिर्फ न्यूनतम पोषण तथा जीविकोपार्जन हेतु जीवन स्तर में प्राप्त असफलता को भी स्वीकार किया (गरीबी के रूप में) तथा इसमें जीवन के स्तरों में स्वीकारीय अन्तर पाया गया। आय पर आधारित गरीबी धारणा " न्युनतम आवश्यकता" में बदल गई। इस प्रकार गरीबी सिर्फ आय की कमी ही न रहकर स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य प्रकार की सामाजिक सेवाओं की कमी के रूप में उभरकर सामने आई।
सन् 1980 में कुछ नई धारणाएँ जुड़ी जो निम्न प्रकार है-
दृव्य रहित समाज सम्बन्धी पहलू | वो सभी स्थितियाँ जो कि प्राकृतिक आपदा के रूप में व्यक्ति के सामने एक कष्ट पहुचाने वाली स्थिति के रूप में आती जैसे तुफान, बाढ़, सूखा तथा अन्य प्राकृतिक खतरे। जीविका के स्तर को बढ़ाने के लिए विस्तृत अवधारणा, जो कि जल्दी ही सहारा देने वाली जीविका के रूप में तब्दील हो गयी।
और 1980 में ही एक दूसरा पहलू भी उभर कर सामने आया वो था लौगिंक अध्ययन को बढ़ावा देना और विभिन्न सरकारी नीतियों में महिला सशक्तिकरण को विकास का प्रमुख मुद्दा माना जाने लगा।
सन् 1990 में और भी विकास की अवस्थाएँ तथा अवधारणाएँ उभर कर सामने आयी । धनविहीन लोग किस तरह से अपने आप को देखते तथा परिभाषित करते हैं या उनकी राय में "गरीबी" का क्या अर्थ है इस बात को ज्यादा महत्व दिया गया और एक सर्वसुविधा सम्पन्नता का ना होना ही गरीबी के रूप में पर्याय माना गया। उसी समय अमर्त्य सेन की अवधारणा, जो कि "मानव विकास" को अहमियत देती थी, उसे ही संयुक्त राष्ट्र संघ का विकास कार्यक्रम के तहत भी मुख्य ध्येय बनी। और उन्होंने मानवीय विकास को निम्न रूप से परिभाषित किया "मन पसंद पर्याप्त अवसरों का ना होना, जिसके कारण एक स्वस्थ रचनात्मक जीवन को अथवा एक उचित जीवनयापन को ना जी पाना / भोगना, जो कि आजादी प्रतिष्ठा तथा स्वंय के साथ ही दूसरों का सम्मान करना भी सिखाती हो।
अतएव इसके उपरान्त निम्न भाषा का प्रयोग "गरीबी" को समझने हेतु किया गया।
(क) आय की कमी अथवा धनविहीनता
(ख) उपयुक्त मानव विकास न होना
(ग) सामाजिक निष्कासन
(घ) कार्य करने की क्षमता में कमी आना
(ड़) कष्टकारी अवस्थाएँ
(च) जीवन यापन सुचारू रूप से ना चलना
(छ) मूल (प्राथमिक)आवश्यकताओं की पूर्ति न होना तथा अन्य सम्बन्धित पृथक्करण / अथवा वंचित सुविधाएँ।
(२) प्रबंधन की चुनौतियाँ
क्रमशः धीरे-धीरे सभी संस्थाओं का मुख्य उद्देश्य सामाजिक सेवा से सामाजिक विकास में तब्दील हो गया। और सभी गैर जानकारी संस्थाओं ने अपनी परिपक्वता का परिचय देते हुए विकास के मुद्दों पर ध्यान देना शुरू किया। अतः विकास के पहलू जो कि एक नई चुनौती के रूप में उभर कर सामने आए वही इन्हीं विकास के मुद्दों तथा पहलुओं का सुचारू रूप से आगे बढ़ना जिसे मुख्य चुनौती माना गया, सामने आया । अब विकास को क्रमबद्ध तरीके से आगे बढ़ाना ही मुख्य चुनौती के रूप में स्वीकारा गया।
यह धारणा सयुक्त राष्ट्र संघ के एक प्रतिदर्शन में छपने (रिपोर्ट) के बाद ही सामान्य जनसाधारण के प्रयोग में आयी, जो कि 1987 में Brundtland Commission की थी (Report of Budtland Commission 1987) जो कि (WCED) (World Commission on Environment and Development ) "पर्यावरणीय विकास के विश्व आयोग के द्वारा लायी गयी।
धीर-धीरे सुचारू रूप से चलने वाला क्रमिक विकास पूरे विश्व के लिए एक उत्सुकता जगाने वाले शब्द में तब्दील हो गया। सभी विश्व के नेताओ ने उन सभी पक्षों व पहलुओं पर देखना तथा विचार विमर्श शुरू कर दिया जो कि कई वर्षो से दबे हुए थे । राष्ट्रीय स्तरों पर क्रमिक विकास के विभिन्न मानको की खेज शुरू गयी और यही गैर सरकारी संगठनों के लिए उनके प्रबंधन की बड़ी चुनौती के रूप में उभर कर सामने आयी।
पर्यावरणीय विकास के विश्व आयोग (WCED) ने क्रमिक विकास तथा सुचारूप से चलने वाले विकास की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहाँ, “विकास का अर्थ उन आवश्यकताओं की पूर्ति है जो वर्तमान में योग्यता सम्बन्धी समझौते, जो कि आने वाली पीढ़ी की आवश्यकता पूर्ति में बगैर हानि या अवरोध पहुँचाए हो।" दुसरे शब्दों में कह सकते है कि आज के समाज को पृथ्वी पर मौजूद सभी स्रोतो का उपयोग उचित प्रकार से करें, ना कि कभी खत्म न होने वाली सुविधाओं के रूप में। क्यूँकि आने वाली पीढ़ी को भी उन्हीं बातों को सोचना होगा जो वर्तमान में है। इस तरह के विकास का स्वरूप एक स्वस्थ रिश्तों को बनाने में सहायक होगा, आज तथा कल की आने वाली पीढ़ी के मदद में, और साथ ही व्यक्ति द्वारा की जाने वाली क्रियाओं, प्राकृतिक संपदाओं तथा स्रोतो हेतु मदद की जाने वाली प्रक्रियाओं के सांमजस्य हेतु इन्हीं नैसर्गिक सम्बन्धों द्वारा हम उम्मीद करेगें कि जिन सुविधाओं का आज हम उपभोग कर रहे हैं वही विकास के रूप में आने वाली पीढ़ी को उनका जीवन और बेहतर करने में सहायक हो ताकि उनके जीवन का स्तर और ऊँचा उठ सके और वो उन सुविधओं की महत्ता को अनुभव करने के साथ ही उपभोग में ला सकें। इससे सबसे प्रमुख बात उभर कर जो स्वयं सेवी संस्थाओं के सामने चुनौती बन कर उभरी वो यह है कि किस तरह से पर्यावरणीय विकास होता रहे और प्राकृतिक आपदाओं से किस प्रकार प्रकृति की सुरक्षा के आयाम बढ़ाएँ जाएँ और कारगर उपायों पर कार्य करके उन्हें अपनी संस्थाओं के मुख्य उद्देश्यों तथा लक्ष्यों के रूप में स्वीकार किया जाय । सुचारू रूप से होने वाले विकास से तात्पर्य एक उपयुक्त तथा बहुत ही "मजबूत सामंजस्य" से है जो कि मानवीय आवश्यकताओं तथा अपनी जीवन शैली को बनाएँ रखने हेतु आवश्यक है, तथा वही प्राकृतिक स्रोतों तथा सुविधाओं के संक्षरण के बीच होता है। क्यूंकि इन्हीं पर हमारी आने वाली पीढ़ियों का विकास भी निर्भर है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर संस्थाओं के सामने विकास की चुनौतियों में इजाफा हुआ है जो कि इनका प्रमुख ध्येय बन गयी तथा आर्थिक विकास को अर्जित करने का माध्यम भी बनी । इस बात को भी मद्देनजर रखा कि इस प्रयास में राष्ट्र को किसी भी तरह की प्राकृतिक सुविधा तथा स्रोतो में कमी ना आने पाए।
भारत में मुख्यतः क्रमिक एवं सुचारू रूप से वाले विकास के अर्न्तगत सिर्फ पर्यावरणीय विकास को ही महत्व नहीं दिया गया बल्कि आर्थिक, पर्यावरणीय तथा सामाजिक नीतियों को भी ध्यान में रखा गया। इन तीन के अलावा संस्कृतिक विभिन्नता को भी चौथी नीति के अर्न्तगत रखा गया। अतएव हम कह सकते कि 'विकास' शब्द का अर्थ सिर्फ आर्थिक विकास ना होकर एक भावनात्मक, बौद्धिक, नैतिक तथा ईश्वरीय महत्ता को समझने के विकास से भी है। और मे एक बहुआयामी तथा संपूर्ण विकास से सम्बन्धित है।
इस देश भारत में ज्यादातर कम धनवान जनता गाँवो में निवास करती है और मुख्य रूप से नैसर्गिक उपायों ( प्राकृतिक स्रोतो) पर अपने जीवनयापन हेतु निर्भर रहती है। हमारे भारत में ज्यादातर निर्धनता गाँवों में पायी जाती है और उनका जीवन यापन नैसर्गिक सुविधाओं तथा स्रोतों पर ही आधारित रहता है। देश की 60 प्रतिशत आबादी या कहा जाय मजदूर, खेती-बाड़ी मछली पालन तथा जंगलो के भरोसे अपने जीवन यापन को बाध्य है। और इन्ही स्रोतों का क्रमशः कम होते जाना गरीबी को और बढ़ाने में सहायक है। संयुक्त राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम का एक दस्तावेज जिसका शीर्षक "गरीबी तथा पर्यावरणीय सम्बन्ध के अनुसार 100 लाख लोगों की आबादी जंगलो के आसपास रहती है, 275 लाख की आबादी जिनके लिए जंगल ही उनके जीवन यापन का जरिया है अर्थात जंगल ही ऐसा स्रोत है जिससे जलाने की लकड़ी, मूंसाचारा अदि के सहारे लोग अपना गुजारा / जीवन यापन करते है और आर्थिक कार्यों को परिणाम देते है। साथ ही इमारती लकड़ियो को जोड़ना और जमा करना विशेषकर के औरतों के कार्य है। ज्यादातर समुद्री तटों तथा तटीय प्रदेशों में मछली से जुड़े हुए व्यवसाय ही जीवनयापन का माध्यम है तथा वही पोषण के लिए भी जिम्मेदार है।
पिछले दो दशकों में मौजूदा प्राकृतिक संसाधन जो कि ग्रामीणों हेतु है, मुख्यतः धन विहीनों हेतु पर्याय थे, उनसे बहुत तरह के प्रभाव पड़े है, जो कि अच्छे कम तथा बुरे ज्यादा है । हम इसका अंदाजा खुद प्राकृतिक प्रभावों से आज के समय में बदलते हुए पर्यावरणीय अन्तर को देख के लगा सकते है। इसके अलावा बदलती हुई परिस्थियों के अचानक से आये तूफान तथा प्राकृतिक आपदाएँ भी जिम्मेदार है जो कि बाढ़ तथा सूखे जैसी समस्याओं को लाती है।
सबसे ज्यादा झटका देने वाली बात है कि इन्हीं प्राकृतिक साधनों का व्यवसायिक रूप से जब गलत इस्तेमाल होता है और इसके बदले में गरीबों को बहुत ही सुक्ष्म पारितोषिक दिया जाता है। इसी प्रकार हम कह सकते है कि इस तरह की विषम परिस्थितियाँ आगे और बढ़ती जाएगी या यूँ कहे कि हम बाध्य हैं कि बढ़ने के लिए औरतों के पारम्परिक भुमिका जो कि प्राकृतिक स्रोतों पर आधारित थी वो फलीभूत न हो पाएगी। और चिपको आन्दोलन तथा नमर्दा बचाओ आन्दोलन इन्हीं का ज्वलंत उदाहरण हैं।
(३) विकास के सूचकांक
विकास पर कार्य करने वाले विशेषज्ञ अब गरीबी अथवा धन विहीनता के कारकों का क्रमबद्ध परीक्षण करने के लिए एक क्रमिक अध्ययन करने का विचार बना रहे है और इस प्रकार के अध्ययन के लिए कुछ "सूचकांको" की आवश्यकता होगी और मुख्य रूप से ये सूचकांक एक तरह के मानक होगें जो सिद्ध करगें कि निधर्नता का मूल कारक किसे ठहराया जाय तथा उसे दूर करने का उपाय भी सोचा जाय। और इसी क्रम में विकास के सूचाकांको के अर्न्तगत आने वाले सूचको की तालिका बनाएँ तो निम्न प्रकार से होगी, आय, कार्य भोजन, गृह, स्वास्थ्य तथा शिक्षा इन्हीं को ध्यान में रखकर विकास को मापा जा सकता है। तथा उस पर उनके विकास के विभिन्न स्तरों पर नियंत्रण भी रखा जा सकता है।
सामान्य तौर पर एक व्यक्ति की सम्पन्नता, वैभव तथा उसके जीवनयापन की विधियाँ जो कि उचित पर्यावरणीय सामंजस्य तथा स्रोतो की उपलब्धि तथा मौजूदा स्थिति पर आधारित है विकास के सूचकांक / संकेतक होते है, तथा ये बताते है कि गरीबी किस स्तर की है। और जो विशेष संकेतक है वो, गरीबी के स्तर, पानी तथा स्वास्थ्य की सुरक्षा, आर्थिक उत्पादकों, आय का वितरण शिक्षा का स्तर आदि है। कुछ संकेतक औरों की अपेक्षा ज्यादा आसानी से मापे जा सकते हैं। उदाहरण के तौर पर व्यक्ति की आय का स्तर आसानी से मापा जा सकता है। और वही यदि हम भोजन या खाद्य पदार्थों की खपत को मापना चाहे तो वो बहुत ही मुश्किल होगा क्यूँकि खाद्य पदार्थों की खपत का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति की आयु, लिंग, क्रिया के सम्बन्ध के साथ होता है अतः उसे देखते हुए ही निश्चित किया जा सकता है।
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