आधुनिक भारतीय इतिहास की स्रोत सामग्री - Source material of modern Indian history

आधुनिक भारतीय इतिहास की स्रोत सामग्री - Source material of modern Indian history

 आधुनिक भारतीय इतिहास की स्रोत सामग्री - Source material of modern Indian history

इस इकाई का उद्देश्य आधुनिक भारत के इतिहास लेखन के विभिन्न स्रोतों के बारे में जानकारी प्राप्त करना है, ये स्रोत प्राथमिक रूप से दो भागों में बांटे जा सकते हैं. सरकारी और गैर-सरकारी दस्तावेज, सरकारी दस्तावेजों में विभिन्न अधिनियम एवं कानून, सरकारी रिपोर्ट, अधिकारियों के पत्र तथा पुलिस एवं गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट आदि को शामिल किया जा सकता है. वहीं गैर सरकारी स्रोतों में अधिकारियों के निजी पत्रों एवं समाचार पत्रों को रखा जायेगा आधुनिक भारतीय इतिहास के स्रोतों को औपनिवेशिक एवं देसी स्रोतों के आधार पर भी चर्गीकृत कर सकते हैं, औपनिवेशिक स्रोतों में सरकार, सरकारी अधिकारियों एवं दूसरे कर्मचारियों से जुड़ी सरकारी एवं गैर सरकारी सभी सामग्री को सखा आयेगा, देशी स्रोतों में मुख्य रूप से विद्रोहों, किसान एवं जनजाति आन्दोलनों एवं राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ी सामग्री आती है. इसके अलावा क्षेत्रीय भाषाओं के अखबारों एवं साहित्य की भी राष्ट्रीय आन्दोलन में अहम भूमिका रही। हैं. आगे इन सभी के बारे में हम विस्तार से चर्चा करेंगे.






आधुनिक भारतीय इतिहास के औपनिवेशिक स्रोत

भारत में ब्रिटिश शासन ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा 1757 ई. में प्लासी की सफलता के साथ आरम्भ हुआ. हम जानते है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी ब्रिटिश सरकार द्वारा संचालित नहीं थी जैसे कि फ्रांसीसी कम्पनी बी. अतः बंगाल स्थित गवर्नर को इंग्लैण्ड मे बैठे अपने आकाओं से लगातार निर्देश लेने होते थे. साथ ही भारत शासन से सम्बन्धित प्रत्येक जानकारी एवं सूचना को भेजना भी अनिवार्य था. 1773 ई. के रेग्यूलेटिंग एक्ट के माध्यम से एवं इसके पश्चात दूसरे अधिनियमों के जरिये ब्रिटिश सरकार ने भी भारत के शासन पर नियंत्रण करना आरम्भ कर दिया. 1857 के पश्चात तो भारत का शासन सीधे ब्रिटिश संसद के अधीन हो गया. इस सब के परिणामस्वरूप विशाल लिखित स्रोत सामग्री इतिहासकारों के लिये उपलब्ध हो सकी. इस खण्ड में हम इसी सामग्री का अध्ययन करेंगे.


अधिनियम एवं कानून

18वीं सदी एवं 1 9वीं सदी के आरम्भ में हरेक बीस वर्ष के पश्चात कम्पनी को अपना एकाधिकार बनाए रखने के लिये संसद की अनुमति प्राप्त करनी पड़ी भी भारत में कम्पनी राज की स्थापना के ब्रिटिश सरकार में भारतीय शासन के लिये निर्देश देना भी आरम्भ कर दिया 1773 ई. में ब्रिटिश संसद ने रेग्यूलेटिंग और 1784 ई. में पिट्स इंडिया एक्ट लाना पड़ा इन अधिनियमों के माध्यम से इतिहासकार भारत के कम्पनी राज पर ब्रिटिश शासन के बढ़ते नियंत्रण का अध्ययन करते हैं 1813 ई. में कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को सीमित कर दिया गया और 1833 ई. में कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को पूर्णत: समाप्त हो कर दिया गया. 1857 के विद्रोह ने यह अवश्यभागी बना दिया कि भारत का शासन ब्रिटिश काउन सौधे अपने हाथ में ले ले. भारतीय शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिये संसद को भारत सरकार अधिनियम पास करने पड़ते थे. इन अधिनियमों को पास करने के पूर्व संसद भारत की सरकार से व्यापक विचार वि करती थी अधिनियमों को ब्रिटिश संसद मे रखना पड़ता था जहाँ सदस्य प्रत्येक धारा पर करते थे इसप्रकार भारत में औपनिवेशिक राज से संबन्धित विशाल लिखित सामग्री एक हो गयी इसमें से अधिकांश सामग्री इंग्लैण्ड स्थित इंडिया ऑफिस में सुरक्षित है.






अधिनियम एवं कानून

हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिये कि भारत के चैनदिन प्रशासन में हस्तक्षेप करना या इस पर नियंत्रण रखना संसद अकाउन के लिये भी सम्भव नहीं था अतः अतः गवर्नर जनरल अथवा वायसराय की परिषद भारत पर शासन के लिये विभिन्न कानून पा रेग्यूलेशन बनाती भी आपने सती मा समर किये जाने वाले कानून के बारे में पढ़ा होगा बंगाल में स्थाई बन्दोबस्त लागू करने के लिये लाई कार्नवालिस ने भारतीयों की सलाह नहीं ली थी. बाद भूराजस्व के दूसरे कानून बनाने में भी सरकार ने ब्रिटिश में अधिकारियों के बीच ही विचार-विमर्श बलाबा फिर भी सरकारी अधिकारियों में भारत के प्रशासन को लेकर अक्सर काफी चर्चा होती थी. इसके परिणामस्वरूप सरकारी स्रोत सामग्री का एक विशाल भंडार तैयार हो गया इस तरह की अधिकांश सामग्री को कार में अभिलेखाओं एवं पुस्तकालयों को स्थानांगित कर दिया गया.



गैर-सरकारी सामग्री

निश्चित हो औपनिवेशिक काल के अध्ययन के लिये हमारे पास विशाल सरकारी स्रोत सामग्री का भंडार है, परंतु इस काल के लिये गैरसरकारी स्रोता की भी कमी नहीं है, गैर सरकारी खोतों में ब्रिटिश भारत के प्रशासन से जुड़े अधिकारियों के भारतीय अधिकारियों के आपसी एवं निजी व्यवहार वा आत्मकथाओं आदि को रखा जा सकता है.



गैरसरकारी स्रोतों में सबसे महत्वपूर्ण शासको एवं महत्वपूर्ण अधिकारियों के निजी पत्र एवं आत्मविवरण तथा आत्मकबाएँ आती हैं, ऐसे निजी पत्र एवं विवरण अक्सर अप्रकाशित ही रह जाते हैं. अत: इतिहास लेखन के लिये उन्हें प्राप्त करना एवं उनका प्रयोग इतिहासकार के निजी प्रयासों क सीमित है. पिर निजी पत्रों एवं विवरणों की सूचनाओं की स्तुति की जाँच करना भी आसान कार्य नहीं है, फिर भी, ये हमारे लिये अधिक महत्व के इसलिये है क्योंकि इनसे अक्सर जो सूचनाएं मिलती है के अन्य उपलब्ध ही नहीं होती. इस प्रकार के कुछेक सोतों को प्राप्त कर विभिन्न पुस्तकालयों में रखा गया है जहाँ इनका अध्ययन किया जा सकता है इतिहासकारों ने अनेक पुराने निजी पत्र एवं लेखों की संपादित अथवा पुनसंपादित कर प्रकाशित भी किया है.




सरकारी रिपोर्ट

सरकारी रिपोर्ट दो तरह की होती हैं- एक तो दैनिक रिपोर्ट, जिसे मुख्यत: पुलिस या गुप्तचर विभाग द्वारा तैयार किया जाता था; दूसरी, किसी विशेष विषय के अध्ययन की रिपोर्ट औपनिवेशिक शासन एक सुदृण सूचना तंत्र के आधार पर टिका हुआ था. गुप्तचर सूचनाओं को प्रांतीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर विश्लेषित एवं संकलित करने की सुसंगठित प्रणाली थी, जिला स्तर पर सूचनाओं को एकत्र करने का कार्य लोकल इंटिलिजेंस अथवा पुलिस के हाँथ में था. इन सारी सूचनाओं का विश्लेषण एवं इन पर रिपोर्ट बनाने का कार्य गुप्तचर या पुलिस विभाग के अधिकारियों के ही पास होता था. इन रिपोर्टों से हमें न केवल सरकारी दृष्टिकोण का ही पता चलता है, बल्कि विद्रोहियों एवं आन्दोलनकारियों के संबन्ध में भी व्यापक जानकारी मिलती है,



एक दूसरे प्रकार की रिपोर्टें भी हैं, जिन्हें अक्सर भारत की विशिष्ट समस्याओं के परिपेक्ष में तैयार किया गया था. ये रिपोर्ट एकप्रकार से व्यापक अध्ययन के पश्चात तैयार की जाती थीं. अतः विशिष्ट विषयों के अध्ययन के लिये इनका अत्यंत महत्व है. ऐसी नियमित रिपोर्टों में भारतीय जनगणना सम्बन्धी रिपोर्ट है, जिन्हें सेंसस रिपोर्ट कहा जाता है. ब्रिटिश भारत में पहली जनगणना 1872 ई. में हुई, परंतु राष्ट्रीय स्तर पर पहली व्यापक जनगणना 1882 से आरम्भ हुई. इसके पश्चात तो प्रत्येक दस वर्षों के अंतराल पर भारत में जनगणना होती थी। जनगणना के अलावा कुछ दूसरी रिपोर्ट भी बनाई गई जो नियमित तो नहीं थीं, परंतु किसी भी तरह कम महत्व की नहीं थीं. उन्नीसवी सदी के अंतिम दशकों में भारत में भीषण अकाल पड़े थे. भारतीय समाचार पत्रों में इन अकालों के लिये ब्रिटिश नीति को दोषी ठहराया जा रहा था. सरकार ने इन आलोचनाओं का जवाब देने के लिये अकाल कमीशनों का गठन किया, जिन्होंने भारतीय कृषि, मानसून एवं फसलों का अध्ययनकर महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध कराई. इसीप्रकार भारतीय अर्थव्यवस्था तथा उद्योगों के अध्ययन के लिये भी कमीशनों का गठन किया गया,





आधुनिक भारतीय इतिहास के देशी स्रोत

भारतीय स्रोत सामग्री से उपनिवेशवाद के प्रति भारतीय प्रतिक्रिया का पता चलता है निश्चित ही यह प्रतिक्रिया एक तरह की नहीं थी. भारतीयों के एक वर्ग ने ब्रिटिश शासन का स्वागत किया, क्योंकि उनका मानना था कि आधुनिक पश्चिमी सभ्यता अधिक विकसित एवं प्रगतिशील है. एक अन्य वर्ग, जो कहीं अधिक जागरूकथा ने पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण नहीं किया, चरन तर्क एवं बुद्धि के आधार पर इसका विश्लेषण किया. इस वर्ग का भारतीय सभ्यता, संस्कृति एवं अतीत में भी विश्वास था अतः इन्होंने पूर्व एवं पश्चिम के विलय से आधुनिक भारतीय सभ्यता के विकास की वकालत की तीसरे वर्ग में हम उन भारतीयों को रख सकते हैं। जिन्होंने आधुनिक सभ्यता का विरोध किया. ये तीनों ही विचारधाराएँ विभिन्न विद्रोए आन्दोलनों में देखी जा सकती है


भारतीय पुनर्जागरण के स्रोत

भारतीय पुनर्जागरण के चाहकों ने प्राचीन भारतीय सभ्यता के साथ-साथ आधुनिक पश्चिमी सभ्यता का मूल्यांकन किया अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिये इन भारतीयों ने अनेक संगठनों की स्थापना की इन संगठनों की प्रत्येक कार्यवाही को लिखित रूप से रखा जाता था. हमें ब्रहम समाज, देव समाज, प्रार्थना समाज आदि संगठनों के लिखित दस्तावेज उपलब्ध है इन संगठनों एवं इनके नेताओं ने अपनी मांगों को लेकर ब्रिटिश सरकार को मांगपत्र अथवा ज्ञापन दिये भारतीय पुनर्जागरण के नेता अपने विचारों एवं मांगों को प्रचारित करने के लिये पत्र-पत्रिकाएँ भी निकालते थे. उदाहरणस्वरूप राममोहन राय ने अपने विचारों के प्रसार के लिये मिरात-उल-अखबार एवं संवाद कौमुदी नामक पत्र निकाले इस प्रकार भारतीय पुनर्जागरण के सम्बन्ध में हमें व्यापक सामग्री मिलती है.





विद्रोहों, किसान आन्दोलनों एवं जनजाति संघर्षों से संबन्धित सामग्री

भारत में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना के आरम्भ से ही अधिकांश विद्रोहों के लिखित दस्तावेज या तो नहीं मिलते या अति अल्प है. ऐसी समस्या का सामना इतिहासकारों को इस प्रकार के सबसे व्यापक विद्रोह यथा 1857 के विद्रोह में भी करना पड़ता है, फिर भी इतिहासकारों ने इन विद्रोहों के अध्ययन के लिये नवीन सामग्रियाँ खोज निकाली है. भले ही सरकार की भाषा (अंग्रेज़ी) में विद्रोहों के सम्बन्ध में व्यापक जानकारी न मिले, क्षेत्रीय भाषाओं एवं दूसरी जनभाषाओं में विद्रोह के वर्णन भरे पड़े हैं, विशेषकर 1857 पर व्यापक एवं नवीन जानकारी उर्दू के खोतों से पता चला है. 1857 का विद्रोह निश्चित ही ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध व्यापक जनचेतना का परिणाम था. यह जनचेतना लोक गीतों एवं लोक स्मृतियों में अभिव्यक्त हुई, इन लोकगीतों एवं लोकस्मृतियों के कुछ प्रमाण हमें आज भी उन इलाकों की बोलियों एवं भाषाओं में मिल जाते हैं,





ऊपर हमने विद्रोहों के दस्तावेजों की कमी के सम्बन्ध में जिस समस्या की चर्चा की है, वहीं समस्या कही व्यापक रूप से किसान एवं जनजाति आन्दोलनों के सन्दर्भ में सामने आती है. इन आन्दोलनों के अध्ययन का एकमात्र साधन सरकारी खोत ही रहे हैं जो अक्सर विद्रोहियों के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि ही रखते हैं लोकगीतों एवं लोकस्मृतियों के अध्ययन से भी इन आन्दोलनों के बारे में बहुत कम जानकारी ही मिल पाती है, ऐसे में इतिहासकारों के एक वर्ग (सब अल्टर्न इतिहासकार) ने एक नया तरीका निकाला है, उन्होंने सरकारी स्रोतों के पुनराध्ययन एवं पुनर्व्याख्या को किसान एवं जनजाति आन्दोलनों के अध्ययन का माध्यम बनाया है. इस लेखन से कुछ उत्कृष्ट अध्ययन तो सामने आये हैं परंतु इन तरीकों को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है,





राष्ट्रीय आन्दोलन के दस्तावेज

भारतीय राष्ट्रीय प्रतिवर्ष दिसम्बर माह में अपना वार्षिक अधिवेशन करती थी. इस अधिवेशन में विभिन्न प्रस्ताव किये जाते थे तथा सरकार को प्रत्यावेदन भेजे जाते थे, बालांतर में कमिस ने आन्दोलन करना आरम्भ किया, तो आत से सम्बन्धित सभी निर्णच व्यापक विचार-विमर्श के लिये जाते से इन सभी बी एवं निर्णयों को लिपिबद्ध किया गया था। अतः राष्ट्रीय मान्दोलन से सम्बन्धित व्य दस्तावेज इतिहास लेखन के लिये मौजूद हैं भारतीय के दूसरे दल भी थे, को राष्ट्रीय में तो भाग ले रहे थे था अंग्रेजों के पि इनमें मुस्लिम लीग हिन्दू महासभा तथा आदि महत्वपूर्ण थे इनमें से अधिकांश की गतिविधियों के बारे में लिखित उपलब्ध है, फिर भी कानूनी ढंग से अपनी गतिविधियां चलाने से इनमें मुख्य क्रांतिकारी संगठ आभार अपने दस्तावेजों को नष्ट कर दिया करते थे इन संगठनों का इतिहास जानने के स्रोत या इनके बारे युचे दस्तावेज या सरकारी रिपोर्ट है, जिनसे इन संगठनों की गतिविधियों के बारे में जात होता है.






महात्मा गांधी के लेखा एवं भाषणा को संकलित कर 100 खण्डों में छापा गया है इसे लेक्टेड फ महात्मा गाँधी के नाम से प्रकाशित किया गया है. सरदार पटेल एवं भीमराव अम्बेडकर के एवं उनसे सम्बन्धित सामग्री को भी छापा जा चुका है राष्ट्रीय नेताओं के अत्तामा राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़े अनेक क्षेत्रीय नेताओं के लेख एवं रचनाएं भी इतिहासकारों के अध्ययन के लिये उपलब्ध अनेक प्रांतीय एवं गालीन अभिलेखागारों में राष्ट्रीय आन्दोलन से सम्बन्धितकारी के दस्तावेज भरे पड़े हैं।





समाचार पत्र एवं पत्रिकाएँ

हालांकि सबसे पहले अखबार अंग्रेजों ने ही निकाले, परंतु शीघ्र ही भारतीयों ने भी अखबार निकालना आरम्भ कर दिया. भारतीयों ने पहले पहल अंग्रेजी एवं फारसी के समाचार पत्र निकाले 19वीं शताब्दी के आरम्भ में फारसी को सरकारी कामकाज की भाषा से हटाने में फारसी समाचार पत्रों का सरकार विरोधी रवैये का भी योगदान था. राष्ट्रवादी भावना के प्रसार के साथ-साथ देशी भाषाओं में भी अखबार निकलने लगे जहाँ अंग्रेजी के समाचार पत्र अधिक राजनयिक भाषा का प्रयोग करते थे, वहीं देशी भाषाओं में निकलने वाले समाचार पत्रों में ब्रिटिश शासन की अधिक तीखी आलोचना होती थी. अतः ब्रिटिश राज ने उनकी आवाज बन्द करने के लिये प्रेस एक्ट बनाए फिर भी अंग्रेजी तथा भारतीय भाषाओं में निकलने वाले समाचार पत्र एवं पत्रिका राष्ट्रवाद के प्रचार का सबसे स माध्यम बने रहे यही कारण था कि लगभग प्रत्येक राष्ट्रवादी नेता किसी न किसी समाचार पत्र से जुड़ा था. महात्मा गाँधी ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में अपना पदार्पण यंग इंडिया और नवजीवन के संपादन से आरम्भ किया, बीसवीं सदी के तीसरे दशक के मध्य से, जब दलितों का सवाल राजनीतिक सवाल बन कर उभरा, गोंधीजी ने हरिजन का प्रकाशन आरम्भ किया इस प्रकार समाचार पर्चा एवं पत्रिकाओं ने राष्ट्रीय आन्दोलन में अहम भूमिका अदा की ये पत्र एवं पत्रिकाएँ इस काल का इतिहास जानने के अत्यंत महत्वपूर्ण स्रोत है.


ऊपर हमने आधुनिक भारतीय इतिहास के विभिन्न स्रोतों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है. हमने देखा कि उपनिवेशवाद की स्थापना के साथ भारत में लिखित दस्तावेजों एवं इतिहास लेखन के लिये व्यापक सामग्री का प्रादुर्भाव हुआ इसका प्रमुख कारण आधुनिक राजका लिखित निर्देशी द्वारा संचालित होना था। आधुनिक शिक्षा एवं आधुनिक चेतना के विकास से भारतीयों ने भी विशाल लेखन सामग्री छोड़ी. इसप्रकार हमें उपनिवेशवादी विचारों, नीतियों एवं प्रक्रियाओं तथा उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षो विरोधों आदि के सम्बन्ध में व्यापक स्रोत सामग्री उपलब्ध है।