संचार के शाब्दिक और शब्देतर घटक - Verbal and Non-Verbal Components of Communication

संचार के शाब्दिक और शब्देतर घटक - Verbal and Non-Verbal Components of Communication


परिचय जैसा कि पहले स्पष्ट हो चुका है कि भाषा सम्प्रेषण का सर्वाधिक सशक्त माध्यम है और यह भी कि भाषा का सामान्य प्रयोग कभी कभी अभिव्यक्ति कर पाने में पूरी तरह समर्थ नहीं हो पाता है। हम जो कुछ भी सम्प्रेषित करते हैं, उसमे हमारे हाव-भाव चेष्टाएँ-अंग संचालन दृष्टिनिक्षेप का भी बहुत महत्त्व होता है। हमारा लहजा हमारी बोलचाल का ढंग शारीरिक चेष्टाएँ, हमारी दृष्टि, वेशभूषा, समय, स्थान, मनः स्थिति, श्रोता की स्थिति यह सब हमारी बात को सम्प्रेषित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। हमारा लोक व्यवहार, लोकाभिव्यक्तियाँ, लोकानुरंजन के विविध साधन प्राचीन समय से ही संचार के सशक्त माध्यम रहे हैं।


इतिहास साक्षी है कि भाषा के निर्माण पहले किसी भी समाज में अभिव्यक्ति के जिन सांकेतिक साधनों का आश्रय लिया जाता रहा ये विचारों भावों को पूर्णतः अभिव्यक्त करने में समर्थ नहीं थे, उनकी स्थिति बिहारी के नायक-नायिका के उन आभिव्यक्तिक संकेतों की ही भाँति थी, जिन्हें नायक-नायिका के अतिरिक्त अन्य लोग नहीं समझ सकते है - 


कहत नटत रीझत खिझत मिलत खिलत लजियात ।

भरे भौन में करत हैं नैनन ही सो बात।


जब समाज में विकास की प्रक्रिया आरम्भ हुई और अभिव्यक्ति के मौखिक और लिखित माध्यमों के रूप में भाषा तथा बोलियों का विकास हुआ तो सामाजिक व्यवहार के लिए. सांस्कृतिक चेतना जगाने के लिए शिक्षा देने के लिए यानी सामाजिक व्यवहार और हमारी व्यावहारिक जरूरतों को पूरा करने के लिए भाषा एक सशक्त औजार बन गई। आज हमारे पास जनसंचार के विविध रूप मौजूद हैं पर ये भी भाषा के बिना अस्तित्वहीन हैं। जाहिर है कि भाषा की महत्ता अपरिमेय है।


यह तो तय है कि भाषा के बिना अभिव्यक्ति सही ढंग से हो ही नहीं सकती, The finest eloquence is that which gets things done; the worst is that which delays: them. यानी सर्वोत्तम वक्तृता वह है जो स्वेच्छया कर्म करा ले, और निकृष्ट वह है जो उसमें बाधा डाले। पर वक्तृता के लिए शब्दों के साथ हमारी शारीरिक चेष्टाएँ, हमारे हाव-भाव, हमारी दृष्टि भी आवश्यक हैं ला रोशोमो का कहना है There is not less eloquence in the tone of the voice, in the eyes and in the demeanour, than in the choice of words. यह माना जाता है कि वक्तृता केवल शब्दों के चुनाव में ही नहीं वरन शब्दों के उच्चारण में, आँखों में और चेष्टाओं में भी होती है। आचार्य भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में वाचिक आंगिक, सात्विक और आहार्य अनुभवों की चर्चा की है। अनुभाव वे भाव हैं जो अनुभव के आधार पर निर्धारित होते हैं। किसी नाटक में अभिनय करने वाले अभिनेता जो हाव-भाव रंगमंच पर दिखाते हैं, वे अनुभाव हैं। इन हाव-भावों के प्रदर्शन के लिए अभिनेता पूर्वाभ्यास (रिहर्सल) करते हैं। वे रचनाकार द्वारा लिखे गये संवादों को दोहराते हैं यह वाचिक अभिनय द्वारा होता है, डायरेक्टर के निर्देश से वे हाव-भाव प्रदर्शित करते हैं, यह आंगिक अनुभाव है; चे रंगमंच पर निर्धारित वेशभूषा में आते हैं, यह आहार्य अनुभाव है और इन सबके साथ वे अपने अन्दर मूल पात्र से एकाकार होकर उसके सुख-दुख, आँसू हँसी, मूर्च्छा आदि आदि भावों का अभिनय करते हैं, यह सात्विक भाव है। आचार्य भरतमुनि का कहना है कि अभिनेता जितना अभिनय में कुशल होगा, नाटक उतना ही सफल और दर्शकों को प्रभावित करने वाला होगा एक श्रेष्ठ संचार करने वाले को भी अभिनय कुशल होना चाहिए, तभी वह सम्यक् संचार कर पाएगा समय स्थान परिस्थिति श्रोता की स्थिति यह सब सम्प्रेषित अभिव्यक्ति को पहुंचाने में एक घटक का काम करते हैं। मतलब यह कि आप क्या सम्प्रेषित कर रहे हैं. इसकी अपेक्षा कैसे सम्प्रेषित कर रहे हैं, ज्यादा महत्वपूर्ण है।








सम्भवतः इसीलिए भारतीय परम्परा में कहा गया है कि 'सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् यानी सच बोलना चाहिए. पर प्रिय सत्य बोलना चाहिए, अप्रिय नहीं। लेकिन बोले बिना भाषा का इस्तेमाल किए बिना भी अभिव्यक्ति होती है, संचार होता है। संचार के ये विभिन्न घटक यद्यपि जनसंचार माध्यमों से अलग हैं, इनकी प्रक्रिया अलग है, किन्तु एक पत्रकार को इनके विषय में जानना अत्यावश्यक है।


हालांकि ये संसाधन एकदम परिपूर्ण नहीं है क्योंकि भाषा बहुत महत्वपूर्ण संसाधन है, पर क्या केवल भाषा विचारों की ठीक ठीक अभिव्यक्ति कर पाती है? परिकल्पना कीजिए कि एक अध्यापक कक्षा में व्याख्यान दे रहा है। वह स्टेच्यू की तरह खड़ा है, केवल बोल रहा है, क्या उसका वक्तव्य प्रभावशाली होगा? या अध्यापक बोलने के साथ-साथ लगातार हिल रहा है, या उसके हाथ चारों दिशाओं घूम रहे हैं, दृष्टि विद्यार्थियों की ओर न होकर दरवाजे के बाहर घूम रही है, वह विद्यार्थियों से बहुत दूर खड़ा है, उसका वक्तव्य भी प्रभावशाली नहीं हो सकता।


जब हम अपनी भाषा में शब्दों का व्यवहार करते हैं, तो सुनने वाला केवल उसके शब्दार्थ को ही ग्रहण नहीं करता अपितु उसके पीछे छिपे हुए अभिप्राय को भी समझता है। जैसे यदि हम कहते हैं कि रात हो गई है, तो सुनने वाला उसका अर्थ- कि दिन समाप्त हो गया है, मात्र नहीं लेता। यदि सुनने वाले को जल्दी घर जाना है, तो उसके लिए इसका अर्थ है- घूमने जाने का समय हो गया। कोई बहुत निराश है तो उसके लिए इसका अर्थ होगा अब कुछ नहीं हो सकता। कोई मुत्युशैया पर है, तो उसके लिए इसका अर्थ है- अब अन्त समय आ गया है। यहाँ संचार के मुख्य चार घटक हमें समझ में आते हैं- 


1. संदेश देने वाला 


2. संदेश ग्रहण करने वाला 


3. संदेश और 


4. संदेश प्रेषित करने का माध्यम 


यह माध्यम भाषा हो सकती है, हमारे हाव-भाव हो सकते हैं, हमारी आखें हो सकती हैं, हमारी शारीरिक भंगिमा हो सकती हैं, और इन सबके साथ संचार के जो अनेकानेक संसाधन हैं। मुद्रण से लेकर इंटरनेट तक वे सभी हो सकते हैं।