सुल्तान बलबन का इतिहास - History of Sultan Balban
सुल्तान बलबन का इतिहास - History of Sultan Balban
बलबन ने स्वयं अपना विवाह इल्तुतमिश की विधवा से तथा अपनी बेटी का विवाह सुल्तान के साथ कर अपना राजनीतिक कद और ऊँचा कर लिया। वज़ीर के रूप में दोआब में हिन्दू प्रतिरोध को कुचलने, मंगोल आक्रमणों का सफलतापूर्वक मुकाबला करने के अतिरिक्त बलबन ने बंगाल के सूबेदार तुगरिल खाँ, मुल्तान, उच के सूबेदार किश्लू खाँ तथा अवध के सूबेदार कुतलुग खाँ के विद्रोहों को भी विफल करने में सफलता प्राप्त की। सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु में बलबन का हाथ होना प्रमाणित नहीं हो सका है किन्तु यह निश्चित है कि अवसरवादी बलबन ने उसकी मृत्यु के बाद उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर स्वयं को सुल्तान के रूप में प्रतिष्ठित कर लिया।
बलबन की रक्त एवं लौह की नीति
1. बलबन स्वयं प्रभावशाली तुर्काने चहलगानी का एक सदस्य था। वह अमीरों की महत्वाकांक्षा व उनकी षडयन्त्रकारी प्रवृत्तियों से भलीभांति अवगत था। तुर्काने चहलगानी का दमन करना उसके लिए पहली चुनौती था। उसने अमीरों की गतिविधियों पर तीखी नज़र रखने के लिए अपने गुप्तचर विभाग को अत्यन्त सक्षम बनाया। केन्द्र, प्रान्त, जिलों और नगरों के गुप्तचरों को अपने आसपास घटित सभी गतिविधियों की दैनिक जानकारी सुल्तान तक पहुंचानी होती थी और ऐसा न कर पाने पर उन्हें कठोर से कठोर दण्ड का भागी होना पड़ता था। अमीरों का मान मर्दन करने का उसने हर सम्भव उपाय अपनाया।
2. बलबन ने एक केन्द्रीय सेना का संगठन किया। उसने सैनिकों के वेतन के लिए इक्ता प्रणाली को समाप्त कर उनके नकद वेतन की व्यवस्था की। सैनिकों की भर्ती का आधार उनकी शारीरिक क्षमता व सैन्य कौशल रखा गया।
3.
केन्द्रीय सत्ता के शिथिल होने के कारण अराजकतावादी तत्वों का
दुःसाहस बढ़ता जा रहा था। दिल्ली नगर को मेवाती लुटेरे दिन-दहाड़े लूटते रहते थे।
दिल्ली के असपास के जंगल उनके छिपने का ठिकाना बने बलबन ने दिल्ली के आसपास के
जंगलों को साफ करवाया, दिल्ली की सुरक्षा के लिए उसके दक्षिण
में एक दुर्ग का निर्माण करवा कर उसमें अपनी पुनसँगठित सेना को रखा। मेवातियों के
उन्मूलन के लिए निरन्तर अभियान कर लगभग एक लाख मेवातियों को मार दिया गया। दोआब,
कटेहर तथा पंजाब प्रान्त के नमक में विद्रोहियों को उसने
निर्ममतापूर्वक कुचल कर वहां शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित की। हुए थे।
बलबन की रक्त एवं लौह की नीति
4. 12 वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत के अस्तित्व के लिए मंगोल आक्रमण एक बड़ा संकट बने हुए थे। बलबन ने इस समस्या के निराकरण के लिए ठोस उपाय के रूप में जहां एक शक्तिशाली सेना का संगठन किया वहीं दूसरी ओर राज्य की सुरक्षा के लिए सल्तनत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर दुर्गों की श्रृंखला का निर्माण करवाया। शेर खाँ जैसे योग्य सेनानायक को मंगोलों का सामना करने के लिए राज्य की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर नियुक्त किया गया और सन् 1270 में उसकी मृत्यु के बाद उसने यह दायित्व क्रमशः अपने पुत्रों बुगरा खाँ व मुहम्मद को सौंपा। सन् 1286 में मुहम्मद मंगोलों से लड़ता हुआ मारा गया। मंगोलों से अपने राज्य को सुरक्षित रखने में बलबन आमतौर पर सफल रहा।
बलबन का राजत्व का दैविक सिद्धान्त
बलबन
का राजत्व का सिद्धान्त प्रत्यक्षतः निरंकुश, स्वेच्छाचारी शासन का समर्थक दिखाई देता है
परन्तु वास्तव में यह अनेक उपयोगी नियमों, नैतिक व धार्मिक
आदशों से बंधा हुआ था। बलबन ने सुल्तान के पद की खोई हुई प्रतिष्ठा फिर से स्थापित
करने और जनता व आभिजात्य वर्ग में सुल्तान के प्रति श्रद्धा तथा भय का भाव फिर से
संचारित करने के लिए राजत्व के दैविक सिद्धान्त का पोषण किया। इस्लाम के इतिहास से
यह विदित होता है कि खलीफ़ा का चयन किया जाता था और खलीफ़ा के अधिकारों का उसके
कर्तव्यों से अटूट सम्बन्ध था किन्तु राजत्व के दैविक सिद्धान्त के अन्तर्गत शासक
पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता है और उसके आदेश में ईश्वर का आदेश प्रतिध्वनित
होता है। राज्य में शासक का कोई समकक्ष नहीं हो सकता और न ही शासक के रूप में उसका
कोई सम्बन्धी हो सकता है। शासक के सगे रक्त सम्बन्धियों के लिए भी उसके प्रति
श्रद्धा और स्वामिभक्ति का प्रदर्शन करना, उनका कर्तव्य होता
है। इस परिकल्पना को व्यवहार में लाने के लिए उसने वैभवशाली एवं गरिमापूर्ण दरबार
लगाया। शासक के लिए आम इंसान की तरह हँसना या रोना निषिद्ध हो गया। बलबन ने दरबार
में अपने पुत्र महमूद की मृत्यु का समाचार सुनकर भी रोना उचित नहीं समझा। आभिजात्य
वर्ग, उलेमा तथा विद्वानों के अतिरिक्त उसने आम आदमियों से
मिलना-जुलना बिलकुल बन्द कर दिया। बलबन ने स्वयं को पौराणिक अट्रीसियाबों का वंशज
घोषित किया।
यह
सिद्धान्त इस्लाम की मूल अवधारणाओं के विरुद्ध था किन्तु तत्कालीन विषम
परिस्थितियों को देखते हुए इसका अपनाया जाना अनुचित नहीं था। बलबन के राजत्व के
सिद्धान्त को हम पूर्ववर्ती कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा परवर्ती मैकियावेली के दि
प्रिंस में उल्लिखित राजत्व के सिद्धान्त के समकक्ष रख सकते हैं।
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