प्रत्यक्षीकरण - परिभाषा, अर्थ, विशेषता, प्रक्रिया और सिद्धांत | Perception - Definition, Meaning, Characteristics, Process and Principle

प्रत्यक्षीकरण - परिभाषा, अर्थ, विशेषता, प्रक्रिया और सिद्धांत | Perception - Definition, Meaning, Characteristics, Process and Principle

प्रत्यक्षीकरण - परिभाषा, अर्थ, विशेषता, प्रक्रिया और सिद्धांत | Perception - Definition, Meaning, Characteristics, Process and Principle


संवेदना + अर्थ + सोच + स्मृति = प्रत्यक्षीकरण 

प्रत्यक्षीकरण का अर्थ संवेदनाओं के अर्थ की व्याख्या करना है। 

प्रत्यक्षीकरण परिस्तिथि का अपरोक्ष ज्ञान कराने वाली मानसिक प्रक्रिया है।

प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया में केवल किसी वस्तु का परिचय ही नहीं होता बल्कि उसके विषय में ज्ञान भी होता है।

किसी विशेष परिस्तिथि में आप चीज़ों को कैसे देखते है, वह प्रत्यक्षीकरण है। 

परिभाषा

वुडवर्थ के शब्दों में सामान्य रूप में जब हम संवेदनाओं की बात करते है, हम उत्तेजनाओं के बारे में सोचते है और व्यक्ति के अनुभवों के उसके संग्राहकों पर पहुंचने वाली विभिन्न संवेदनाओं से सम्बन्ध की खोज कर रहे होते है। और जब हम प्रत्यक्ष की बात करते है तब हम वस्तुओं के बारे में सोच रहे होते है। और यह खोज करते रहते है कि व्यक्ति के अनुभव वस्तुगत तथ्यों से कहाँ तक समरूप है।

 

आसगुड के शब्दों में," प्रत्यक्ष शब्द का तात्पर्य परिवयों के एक ऐसे समूह जो ऐच्छिक संवेदनाओं और चेतना के मध्य हस्तक्षेप करता है " 


प्रत्यक्षीकरण की विशेषताएं: 

यह एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है प्रत्यक्षीकरण में सर्वप्रथम किसी ज्ञानेन्द्रिय पर कोई उत्तेजना अपना प्रभाव डालती है फलस्वरूप तंत्रिका आवेग बनता है, जो स्नायु तंतुओं द्वारा मस्तिष्क के ज्ञानात्मक क्षेत्र में पहुँचता है तब उस उत्तेजना की संवेदना होती हैं और पूर्व अनुभवों का स्मरण करते हुए हम उसका प्रत्यक्षीकरण करते है।


यह एक चयनात्मक प्रक्रिया है हमारे जीवन में अनेक उत्तेजनाएं सामने उपस्थित होती है परन्तु हम केवल अपनी आवश्यकता प्रेरणा, अभिरुचि, मनोवृत्ति एवं मानसिक झुकाव के अनुसार उन उत्तेजनाओं में से किसी विशेष को चुनते है ।  उदा. जैसे भूखा व्यक्ति बाजार की अन्य वस्तुओं में से खाने की वस्तु का चयन कर उसका ज्ञान प्राप्त करता है।


प्रत्यक्षीकरण आकार और पृष्ठभूमि पर आधारित होता है किसी भी उत्तेजना का प्रत्यक्षीकरण किसी न किसी पृष्ठभूमि पर होता है। जिस उत्तेजना का प्रत्यक्षं होता है उसे आकार कहते है और जिस आधार पर उसका प्रत्यक्षण होता है उसे पृष्ठभूमि कहते है। > उदा. आकाश में चाँद और तारे आकार है और आकाश पृष्ठभूमि है। -

 

गेस्टाल्टवादियों के अनुसार उत्तेजना स्वतः आकार के रूप में संगठित हो जाती है। 


प्रत्यक्षीकरण की विशेषता 

प्रत्यक्षीकरण समग्र का होता है-: गेस्टाल्टवादियों के अनुसार किसी भी वस्तु का प्रत्यक्षण सम्पूर्ण रूप में होता है । उदा. जब हम मेज को देखते है तो उसे हम उसके चार पैर और ऊपर की - लकड़ी के रूप में नहीं अपितु समग्र मेज के रूप में देखते है । 

प्रत्यक्षीकरण एक आत्मगत प्रक्रिया है : प्रत्यक्षीकरण पूर्णतः आत्मगत या वैयक्तिक प्रक्रिया है यही कारण है कि एक वस्तु या उद्दीपक परिस्थिति का प्रत्यक्षण प्रत्येक व्यक्ति को अलग अलग होता है। -


प्रत्यक्षीकरण में स्थिरता की विशेषता पाई जाती है: प्रत्यक्षीकरण की स्थिरता का अर्थ है किसी वस्तु की भौतिक स्थितियों में परिवर्तन होने पर भी उसका प्रत्यक्षीकरण पहले की तरह ही होगा। उदा. दिन के प्रकाश में रखा हुआ कोयले का टुकड़ा काला ही दिखाई पड़ता है।

 



प्रत्यक्षीकरण में मानसिक प्रक्रियाएँ 

प्रत्यक्षीकरण की मानसिक प्रक्रिया को निम्नवत समझा जा सकता है:

> उद्दीपक की उपस्थि

> ज्ञानेन्द्रिय द्वारा उद्दीपक को ग्रहण करना तथा स्नायु प्रवाहों की - उत्पत्ति

> स्नायु प्रवाहों का मस्तिष्क के केंद्र विशेष में पहुंचना

> एक विशेष प्रकार की संवेदना का अनुभव

> संवेदना में अर्थ का जुड़ना

प्रत्यक्षीकरण

प्रत्यक्ष शब्द का तात्पर्य परिवयों के एक ऐसे समूह से है, जो ऐच्छिक संवेदनाओ और चेतना के मध्य हस्तक्षेप करता है. प्रत्यक्ष की स्तिथि संवेदना तथा ज्ञान के मध्य में है।

>प्रत्यक्ष में केवल संवेदना ही नहीं होती बल्कि प्रत्यक्षीकरण अतीत अनुभव पर आधारित प्रत्यभिज्ञा के कारण होता है। 

> संवेदना और प्रत्यक्षीकरण में वही अंतर है, जो पूर्ण और उसके अंश में है।

> संवेदनाएं प्रत्यक्षीकरण की कच्ची सामग्री है।

> प्रत्यक्षीकरण एक अनुभवात्मक मानसिक प्रक्रिया है।

 

प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया

> संग्राहक प्रक्रिया ( Receptor Process): यह प्रत्यक्षीकरण की पहली प्रक्रिया है जिसमें संवेदी तंत्र का प्रयोग होता है। उदहारण के लिए गुलाब के फूल के सामने आने पर आँख, नाक, त्वचा आदि तीन ज्ञानेन्द्रियों में तीन तरह के संग्राहक कोषों पर प्रभाव पड़ता है।

 

प्रतीकात्मक प्रक्रिया (Symbolic Process ): प्रत्यक्षण में प्रतीकात्मक प्रक्रिया भी पाई जाती है। व्यक्ति को कभी कभी वर्तमान उत्तेजना या वस्तु का स्मरण अथवा अनुभव होता है। उसे प्रतीकात्मक प्रक्रिया कहा जाता है। उदा. जब हम केला देखते है तो अपने पूर्व अनुभव के कारण हमें उसके गंध, स्वाद एवं रूप की चेतना हो जाती है।

 




प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया

भावात्मक प्रक्रिया: मनुष्य के प्रत्येक प्रत्यक्षण के साथ एक भाव अवश्य जुड़ा रहता है। भाव की क्रिया प्रत्यक्षण के तुरंत बाद होती है। जब व्यक्ति को किसी वास्तु का प्रत्यक्षण होता है तब उसके साथ-साथ उसमें सुखद अथवा दुःखद या तटस्थ भाव उत्पन्न होता है। उदा. मित्र को देखकर ख़ुशी होती है और दुश्मन को देखकर क्रोध या दुःखद - भाव उत्पन्न होता है। 

एकीकरण प्रक्रिया: किसी व्यक्ति वस्तु या उत्तेजना का प्रत्यक्षण एक इकाई के रूप में होता है। यही कारण है कि व्यक्ति किसी वस्तु को अलग-अलग भागों में न देखकर एक इकाई के रूप में देखता है। यह क्रिया स्वाभाविक रूप में उत्पन्न होती है।

प्रत्यक्षण तथा संवेदना में अंतर

>प्रत्यक्षण तथा संवेदना दोनों ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रियाएं है, लेकिन इन दोनों मानसिक क्रियाओं में अंतर पाए जाते है संरचनावादी मनोवैज्ञानिक जैसे वंट ने संवेदना को ज्ञानात्मक क्रिया की प्रथम अवस्था एवं प्रत्यक्षण को ज्ञानात्मक क्रिया की दूसरी अवस्था कहा। लेकिन गेस्टाल्टवादियों एवं आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्य में संवेदना नाम की कोई मानसिक क्रिया नहीं होती है ।


> गेस्टाल्टवादियों के अनुसार विशुद्ध संवेदना एक मनोवैज्ञानिक कल्पना है। इनके अनुसार मानव प्राणियों में होने वाली प्रथम एवं साधारण मानसिक क्रिया ही प्रत्यक्षण है।

 

प्रत्यक्षीकरण का गेस्टाल्ट सिद्धांत 

>गेस्टाल्ट स्कूल का जन्म 1912 ई. में वर्दाईमर द्वारा एक साधारण दृष्टि सम्बन्धी प्रयोग से प्रारम्भ हुआ।

> कोहलर तथा काफ़्का उनके प्रयोज्य थे। गेस्टाल्टवादियों ने अवगात्मक प्रपंच के लिए कुछ कल्पनात्मक व प्रत्ययों का व्यवहार किया। इस सिद्धांत की जड़ फाई प्रपंच अध्ययन में है।

> वर्दाईमर ने इस प्रयोग में प्रकाश की दो स्थिर रेखाओं को बारी बारी से एक सेकंड में 15 बार परदे पर प्रस्तुत किया। इन दोनों प्रकाश की स्थिर रेखाओं को एक सेकंड में 15 बार जलाया बुझाया गया।

> कोहलर और काफ्का ने स्थिर रेखाओं को चलती हुई रेखाओं को चलती हुई रेखाओं के रूप में देखा, जबकि उत्तेजनाओं में किसी प्रकार की गति नहीं थी।

अतः स्थिर उत्तेजनाओं का गति के रूप में भ्रमात्मक अनुभव होना फाई-प्रपंच के रूप में जाना जाता है।

> इस सिद्धांत की आधुनिक रूपरेखा तैयार करने में कोहलर एवं काफ्का ब्राउन तथा वोथ आदि का नाम प्रमुख है।

> इन मनोवैज्ञानिकों ने कुछ काल्पनिक संप्रत्ययों को प्रस्तुत किया है, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख है -

1) दृष्टिक्षेत्र: इनका पहला काल्पनिक विचार दृष्टिक्षेत्र है गेस्टाल्टवादियों के अनुसार प्रत्यक्षीकरण की सभी बातें दृष्टिक्षेत्र की देन है। इन्होंने दृष्टिक्षेत्र में इकाई पर जोर दिया है।

> दृष्टिक्षेत्र के किसी एक भाग में परिवर्तन होने से सम्पूर्ण संगठन परिवर्तित हो जाता है। 

> गेस्टाल्टवादियों ने इसे दैहिक दृष्टिकोण के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। 

कोहलर ने इसे क्रियात्मक दैहिक प्रक्रिया कहा है।

 




2) समरूपता का नियम 

> कोहलर के अनुसार समरूपता का शाब्दिक अर्थ रूप की समानता है।

> गेस्टाल्टवादियों के अनुसार उद्दीपक क्षेत्र तथा मस्तिष्कीय क्षेत्र के बीच बराबर का सम्बन्ध रहता है। इस विचार को समरूपता का नियम कहते है। इन विद्वानों ने समरूपता का नाम देकर मन तथा शरीर के बीच एक प्रकार का मानसिक समानान्तरण जैसा सम्बन्ध स्वीकार किया है।

 

3) क्षेत्र शक्तियाँ 

इस सिद्धांत का तीसरा काल्पनिक विचार दृष्टिक्षेत्र की दो शक्तियाँ है जिनके द्वारा क्षेत्र की विभिन्न उत्तेजनाएं मिलकर एक आकृति का रूप ले लेती है।

ये दो शक्तियाँ है ससंजक शक्ति -

निरोधक शक्ति

ससंजक शक्ति: दृष्टिकोण की जिन उत्तेजनाओं में समानता एवं समीपता होती है। वे एक दूसरे को आकर्षित करके आपस में मिलकर एक आकृति का रूप ले लेती है। इस प्रवृति को ससंजक शक्ति कहते है।

> निरोधक शक्ति: इनका कार्य उत्तेजनाओं को एक दूसरे से अलग करना है। कोहलर के अनुसार अगर ये निरोधक शक्तियाँ दृष्टिक्षेत्र में नहीं रहती तो सभी उत्तेजनायें एक दूसरे से मिल जाती और विभिन्न आकृतियों का निर्माण नहीं करती।

> इस सिद्धांत का विश्वास है कि दृष्टिकोण में तनाव को कम करने की प्रवृति निहित रहती है। > काफ्का ने ससंजक शक्तियों की तुलना साबुन के झाग से की है। झाग के सभी बुलबुले एक दूसरे से सटे रहते है। यह ससंजक शक्ति है और सभी बुलबुलों का अपना अलग अस्तित्व होता हैं यह निरोधक शक्ति है




4) संगठन के परिधीय नियम 

i. समानता का नियम जो उत्तेजनाएँ एक सी होती है। वे आसानी से एक समूह में शामिल होकर भिन्न उत्तेजनाओं से पृथक एक आकर बन जाता है।

ii) समीपता का नियम जो उत्तेजनाएँ एक साथ पास-पास होती हैं वे दूर स्थित उत्तेजनाओं की अपेक्षा आसानी से एक समूह में संयुक्त होती हैं। उदाहरण के लिए, पार्श्व की रेखाओं को देखें।

iii) निरंतरता का नियम जिन उत्तेजनाओं में निरंतरता रहती है वे समूहित होकर एक आकार बन जाती है। निरंतरता के अभाव में संगठित आकार का बनना संभव नहीं होता। जैसे-नीचे के चित्र में यह बिन्दुओं में उत्तम निरंतरता का ही परिणाम है कि इनका प्रत्यक्षीकरण अँगरेजी के वर्णमाला के रूप में (संगठित आकार) होता है।

iv) सुडौलपन या उत्तम आकृति सुडौलपन या उत्तम आकृति देखने की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से सबमें पाई जाती है। उत्तम आकार या सुडौलपन से तात्पर्य वस्तु की पूर्णता तथा संतुलन से है। उत्तेजना क्षेत्र के विभिन्न तत्व जब मिलकर एक ऐसा आकार बना लेते हैं, जो देखने में अपनी पूर्णता के कारण अच्छा लगता है, तब हमें आसानी से उनका एक इकाई के रूप में प्रत्यक्षीकरण होता है। गेस्टाल्टवादियों के अनुसार किसी भी आकार के रिक्त स्थानों को भरकर उसे पूर्ण इकाई के रूप में देखने की मनुष्यों में स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। इसका कारण यह है कि अपूर्ण आकार मानसिक संतुलन को भंग कर देता है तथा पूर्ण आकार मानसिक संतुलन को बनाए रखता है। इसीलिए मनुष्य स्वभावतः पूर्ण आकार का ही प्रत्यक्षीकरण करता है। जैसे नीचे के चित्रों ए और बी में अलग-अलग बाण रेखाएँ हैं। इनमें '' का प्रत्यक्षीकरण एक अच्छी आकृति के रूप में होता है, जबकि चित्र 'बी' का प्रत्यक्षीकरण विकृत आकार के रूप में होता है। अच्छी आकृति बड़ेगी या अनियमित आकृतियों की तुलना में अधिक प्रभावोत्पादक और स्पष्ट होती हैं।

v) सामान्य दिशा का नियम कभी-कभी उत्तेजनाएँ विभिन्न दिशाओं में बिखरी रहती हैं। उनका प्रत्यक्षीकरण हमें दिशा के आधार पर अलग-अलग समूहों में होता है। बगल में प्रदर्शित बिंदुओं से बने चित्रों को देखें। यहाँ बिंदुओं के एक समूह का प्रत्यक्षीकरण धनु के रूप में होता है, जबकि बिंदुओं के दूसरे समूह का प्रत्यक्षीकरण एक सरल रेखा के रूप में। बिंदुओं के समूहीकरण में यह अंतर बिंदुओं की दिशा में भिन्नता होने के कारण

vi) तत्वों के शामिल रहने का नियम वैसी आकृतियाँ, जिनमें सभी तत्व शामिल होते हैं उन्हें संगठित आकृति के रूप में प्रत्यक्षीकरण करना आसान होता है बनिस्पत वैसी आकृतियों के जिनके कुछ तत्वों को शामिल नहीं किया जा सकता। सभी तत्वों के मिलने सेसमूहीकरणअपेक्षाकृत सरल होता है तथा इनसे बनी आकृति भी अधिक स्पष्ट होती है।

 यही कारण है कि ऊपर के सभी बिंदुओं के संगठन से षटकोण आकृति का प्रत्यक्षीकरण होने की संभावना अधिक है, बनिस्पत दोनों किनारों पर के बिंदुओं को हटाकर केवल बीचवाले 4 बिंदुओं के समूह के बने एक वर्ग का प्रत्यक्षीकरण करना। कहने का अभिप्राय यह है कि प्रत्यक्षीकरण में आकृति के विभिन्न तत्वों को शामिल करते हुए उनके समूह से बनी आकृति का प्रत्यक्षीकरण करने की प्रवृत्ति पाई जाती है।

 





vii) पूर्णता का नियम किसी वस्तु को आकार रूप में संगठित करने की क्रिया में हम उन तत्वों को भी शामिल कर लेते हैं, जो उस वस्तु में विद्यमान नहीं रहते। ऐसा करने से उत्तेजना का संगठन अच्छी एवं स्पष्ट आकृति के रूप में हो सकता है। नीचे चित्र ए तथा बी के क्रमश: तीन व चार रेखाओं से घिरे दो अलग-अलग स्थान हैं, परन्तु इन्हें इस क्रमषः त्रिभुज तथा वर्ग के रूप में देखते हैं। 

vii) पूर्णता का नियम किसी वस्तु को आकार रूप में संगठित करने की क्रिया में हम उन तत्वों को भी शामिल कर लेते हैं, जो उस वस्तु में विद्यमान नहीं रहते। ऐसा करने से उत्तेजना का संगठन अच्छी एवं स्पष्ट आकृति के रूप में हो सकता है। नीचे चित्र ए तथा बी के क्रमश: तीन व चार रेखाओं से घिरे दो अलग-अलग स्थान हैं, परन्तु इन्हें इस क्रमषः त्रिभुज तथा वर्ग के रूप में देखते हैं।

 

viii. अर्थगर्भता का नियम गेस्टाल्टवादियों के अनुसार संगठन के सभी नियमों का उद्देश्य उत्तेजन परिस्थिति में अर्थगर्भता का अनुभव करना होता है। सुडौलपन अच्छी आकृति पूर्णता, निरंतरता आदि नियमों का भी संबंध अर्थगर्भता से ही है। इस नियम को अर्थ ढूँढने का प्रयास भी कहा जा सकता है। ऐसे प्रयास की प्रवृत्ति सभी मनुष्यों में जन्मजात रूप से पायी जाती है। अर्थगर्भता की यह प्रवृत्ति उत्तेजनाओं में तारतम्य की उपस्थिति से प्रोत्साहित होती है। अतः जिन उत्तेजनाओं में तारतम्य विद्यमान रहता है, उनका संगठन अपेक्षाकृत आसान होता है तथा ऐसे संगठित आकार की स्मृति भी अपेक्षाकृत अधिक स्थायी होती है।

पूर्व अनुभव इस बात के अनेक प्रमाण मिले है कि जो उत्तेजना समूहित नहीं होती - उसका प्रत्यक्षीकरण भी व्यक्ति अपने पूर्व अनुभव व परिचय की सहायता से कर लेता है।

जैसे अंग्रेजी के ये अक्षर पूर्ण रूप में नहीं है फिर भी हम इन शब्दों को पूर्ण रूप में पढ़ते है। इसका प्रधान कारण हमारा पूर्व अनुभव एवं परिचय है। 

ABCDE





प्रेरणात्मक नियम गेस्टाल्टवादियों ने प्रेरणात्मक अंगो के महत्व को नहीं स्वीकार किया है। फिर भी, ऐसे अनेक प्रमाण मिले है जिनसे प्रत्यक्षीकरण में व्यक्ति की प्रेरणा, मूल्य, मनोवृति आदि का महत्व स्पष्ट होता है।

गेस्टाल्टवादियों ने प्रत्यक्षीकरण की व्याख्या हेतु काल्पनिक प्रत्ययों का सहारा लिया है। इन्होंने उत्तेजना क्षेत्र की समरूपता, क्षेत्र संगठन एवं क्षेत्र शक्ति आदि काल्पनिक प्रत्ययों के आधार पर प्रत्यक्षीकरण में होने वाले संगठन की क्रिया का वर्णन किया है। गेस्टाल्टवादियों के ये काल्पनिक प्रत्यय कहाँ तक वैज्ञानिक कसौटी पर सही हैं, इस संबंध में फिलहाल कुछ भी नहीं कहा जा सकता। परंतु, इतनी बात तो तय है कि प्रत्यक्षीकरण के अन्य सिद्धांतों की तुलना यह सिद्धांत सबसे में अधिक कुशल है तथा क्षेत्र शक्ति से संबंधित तथ्यों का परिमाणात्मक अध्ययन भी होने लगा है। इस प्रकार, वैज्ञानिकता की माँगों को पूरा करने की दिशा में मनावैज्ञानिकों का प्रयास जारी है। यह इस सिद्धांत की एक बहुत बड़ी विशेषता है। गेस्टाल्टवादियों ने जिन तथ्यों का वर्णन किया, आज वे गहन अध्ययन और शोध के विषय हैं।

 





गेस्टाल्ट सिद्धांत की आलोचना

इन गुणों के बावजूद यह सिद्धांत आलोचना का शिकार रहा है। आलोचकों की दृष्टि में इस सिद्धांत की निम्नलिखित प्रमुख त्रुटियाँ हैं-

1. गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों ने प्रत्यक्षात्मक संगठन में अर्थ, मनोभाव, प्रेरणा, पूर्वशिक्षण आदि प्रमुख कारकों के महत्व को स्वीकार नहीं किया है, जबकि इनके महत्व को सिद्ध करने वाले अनेक प्रामाणिक तथ्य उपलब्ध है। 

2. इस सिद्धांत में शारीरिक प्रक्रियाओं का वर्णन यत्र-तत्र तो किया गया है, किंतु इनकी व्याख्या पूर्ण सफल नहीं हो सकी है। 

3. इस सिद्धांत के पक्ष में प्राप्त प्रदत्त अधिकतर दृष्टि क्षेत्र से संबंधित उत्तेजनाओं के प्रत्यक्षीकरण से लिए गए हैं। अतः, दूसरे प्रकार के प्रत्यक्षीकरण की भी व्याख्या यह सिद्धांत कर सकता है या नहीं, यह स्पष्ट नहीं होता। वैसे श्रवण उत्तेजनाओं से उत्पन्न प्रत्यक्षीकरण की कुछ घटनाओं का वर्णन इस सिद्धांत के सहारे दिया जा सकता है, किंतु इसके संबंध में प्रयोगात्मक अध्ययनों की भारी कमी है, अतः निश्चयात्मक रूप से कुछ भी कहना संभव नहीं हैं।

प्रत्यक्षीकरण का व्यवहारवादी दृष्टिकोण 

व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों ने भी प्रत्यक्षीकरण के संबंध में अपना एक अलग दृष्टिकोण दिया है। हालाँकि व्यवहारवादियों का जितना महत्वपूर्ण योगदान सीखने के क्षेत्र में माना जाता है, उतना प्रत्यक्षीकरण में नहीं। लेकिन, विभेद शिक्षण संबंधी कुछ प्रयोगों के सहारे इन्होंने उत्तेजना और प्रतिक्रिया के बीच की मध्यवर्ती मानसिक प्रक्रिया का वर्णन करने की कोशिश की है।

व्यवहारवादियों के अनुसार प्रत्यक्षीकरण भी पूर्णतः सीखा हुआ व्यवहार है। 

अतः जिन नियमों से हमारे अन्य व्यवहार उत्पन्न होते है उन्हीं नियमों प्रत्यक्षीकरण की क्रिया भी उत्पन्न होती है। 

> प्रत्यक्षीकरण में आदत निर्माण सामान्यीकरण अवरोध आदि के नियम काम करते है।

> वयवहारवादियों का दृष्टिकोण वर्णनात्मक स्वरुप का है।

हल ने इस दृष्टिकोण को सबसे अधिक स्पष्ट किया है। इन्होंने इसे स्पष्ट करने हेतु स्नायुमंडलीय अंतः क्रिया को आधार बनाया है। इनका कहना है कि किसी उत्तेजना के प्रत्यक्षीकरण में उत्तेजना के विभिन्न ज्ञानवाही तत्वों के स्नायुप्रवाह स्नायुमंडल में परस्पर क्रिया प्रतिक्रिया करते हैं और इसी प्रतिक्रिया के कारण उत्तेजना का एक प्रतिरूप बनता है। उत्तेजनाओं का प्रत्यक्षीकरण इसी प्रतिरूप के अनुसार होता है।

 





हल ने इस विचार को विस्तृत करते हुए कहा है कि समय विशेष में स्नायुमंडल में वर्तमान सभी ज्ञानवाही स्नायुप्रवाह परस्पर अंतः क्रिया कर एक-दूसरे को कुछ इस प्रकार बदल देते हैं कि उत्तेजना के संवेदी विचरणों से प्रत्यक्षीकरण भिन्न तरह का होता है क्योंकि इसमें कुछ ऐसे तत्व आ जाते हैं, जो संवेदी विवरणों में नहीं रहते। 

व्यवहारवादियों ने अनुबिंब को भी माना है। वे यह स्वीकार करते हैं कि किसी उत्तेजना के हटाए जाने के बाद भी थोड़ी देर तक उस उत्तेजना का प्रभाव उत्तेजन चिन्ह के रूप में स्नायुमंडल में बना रहता है और इन उत्तेजिन चिन्हों के बीच भी पारस्परिक क्रियाएँ होती हैं। यह प्रतिक्रिया दो तरह की होती है- 

(क) स्थानिक प्रतिक्रिया और 

(ख) सामयिक प्रतिक्रिया 

व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों ने अपने उपर्युक्त दृष्टिकोण को प्रमाणित करने हेतु कुछ प्रयोगों का सहारा लिया है। इस संबंध में वुडवरी ने डिक नाम के कुत्ते पर प्रयोग किया। कुत्ते के सामने दो प्रकार के स्वर-ऊँचा स्वर एवं मंद स्वर एक ही साथ प्रस्तुत किया जाता था, जिन्हें सुनकर कुत्ता पिजड़े की छड़ों में भोजन प्राप्त करने हेतु मुँह रगड़ने लगता था यानी उसमें प्रतिक्रिया उत्पन्न होती थी देखा गया कि जब इन दोनों प्रकार के स्वरों को अलग-अलग प्रस्तुत किया जाता था, तब उस कुत्ते में कोई प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं होती थी। इससे स्थानिक प्रतिक्रिया के पक्ष में प्रमाण मिलता है। इस प्रयोग से यह स्पष्ट होता है कि उत्तेजना से एक प्रतिरूप बनता है, जिससे प्रतिक्रिया भी निर्धारित होती है। एक दूसरे कुत्ते, जिसका नाम चक था, पर भी प्रयोग कर सामयिक प्रतिक्रिया के संबंध में प्रमाण जुटाया गया। इस प्रयोग में उच्च और मंद स्वरों को सामयिक क्रमानुसार उपस्थित किया जाता था। ऊँचे स्वर के एक सेकंड बाद मंद स्वर उपस्थित किया जाता था। इस क्रमिक व्यवस्था के फलस्वरूप कुत्ते में एक प्रतिरूप बना, जिससे उसने प्रबलित और अप्रबलित उत्तेजनाओं में अंतर करना सीख लिया। स्वरों के इस क्रम में परिवर्तन लाने पर देखा गया कि कुत्ता निष्क्रिय रहता था, यानी उसमें प्रतिक्रिया नहीं होती थी। ऐसा इसलिए हुआ कि समान स्वरूप की उत्तेजनाओं के रहने पर भी उनके क्रम में परिवर्तन किए जाने के कारण प्रतिरूप बदल गया।

 

व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों ने अपने उपर्युक्त दृष्टिकोण को प्रमाणित करने हेतु कुछ प्रयोगों का सहारा लिया है। इस संबंध में वुडवरी ने डिक नाम के कुत्ते पर प्रयोग किया। कुत्ते के सामने दो प्रकार के स्वर-ऊँचा स्वर एवं मंद स्वर एक ही साथ प्रस्तुत किया जाता था, जिन्हें सुनकर कुत्ता पिजड़े की छड़ों में भोजन प्राप्त करने हेतु मुँह रगड़ने लगता था यानी उसमें प्रतिक्रिया उत्पन्न होती थी देखा गया कि जब इन दोनों प्रकार के स्वरों को अलग-अलग प्रस्तुत किया जाता था, तब उस कुत्ते में कोई प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं होती थी। इससे स्थानिक प्रतिक्रिया के पक्ष में प्रमाण मिलता है। इस प्रयोग से यह स्पष्ट होता है कि उत्तेजना से एक प्रतिरूप बनता है, जिससे प्रतिक्रिया भी निर्धारित होती है। एक दूसरे कुत्ते, जिसका नाम चक था, पर भी प्रयोग कर सामयिक प्रतिक्रिया के संबंध में प्रमाण जुटाया गया। इस प्रयोग में उच्च और मंद स्वरों को सामयिक क्रमानुसार उपस्थित किया जाता था। ऊँचे स्वर के एक सेकंड बाद मंद स्वर उपस्थित किया जाता था। इस क्रमिक व्यवस्था के फलस्वरूप कुत्ते में एक प्रतिरूप बना, जिससे उसने प्रबलित और अप्रबलित उत्तेजनाओं में अंतर करना सीख लिया। स्वरों के इस क्रम में परिवर्तन लाने पर देखा गया कि कुत्ता निष्क्रिय रहता था, यानी उसमें प्रतिक्रिया नहीं होती थी। ऐसा इसलिए हुआ कि समान स्वरूप की उत्तेजनाओं के रहने पर भी उनके क्रम में परिवर्तन किए जाने के कारण प्रतिरूप बदल गया।



 

गेस्टाल्टवादियों एवं व्यवहारवादियों के दृष्टिकोणों की तुलना 

1. व्यवहारवादी और गेस्टाल्टवादी दोनों एक-दूसरे के कट्टर विरोधी तो हैं ही, ये दोनों बुंट और टिचनर के भी कट्टर विरोधी रहे हैं। व्यवहारवादियों ने चेतन अनुभव के अध्ययन करने की परंपरा को मनोविज्ञान के क्षेत्र से बहिष्कृत कर दिया। उनके अनुसार सभी मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं का अध्ययन व्यवहार के विश्लेषण के आधार पर किया जाना चाहिए। इस विचारधारा में प्रत्यक्षीकरण को भी अन्य व्यवहारों की तरह सीखा हुआ व्यवहार माना गया है।

2. दूसरी ओर गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों ने बुंट और टिचनर के चेतन अनुभव के अध्ययन की परंपरा का निर्वाह तो किया, लेकिन उन्होंने तत्व-विश्लेषण संबंधी विचारों का खंडन किया। उनकी दृष्टि में अनुभवों के तत्वों का विश्लेषण करने पर उनका कोई अर्थ नहीं रह जाता, वे पूर्णतः अर्थहीन हो जाते हैं। व्यक्ति के अनुभव होते हैं जो तत्वों के संगठन के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं। अतः प्रत्यक्षात्मक अनुभव संपूर्ण का होता है, न कि उत्तेजनाओं के विभिन्न भागों का

3. प्रत्यक्षीकरण का व्यवहारवादी दृष्टिकोण वर्णनात्मक अधिक है, व्याख्यात्मक कम। ठीक इसके विपरीत, गेस्टाल्टवादियों का दृष्टिकोण व्याख्यात्मक एवं वर्णनात्मक दोनों है।