जैन धर्म और समाज कार्य - Jainism and Social Work

जैन धर्म और समाज कार्य - Jainism and Social Work

जैन धर्म और समाज कार्य - Jainism and Social Work

परंपरागत रूप से एक धर्म तथा दर्शन की तरह जाना जाता है जिसकी शुरुआत ईसवी पूर्व की शताब्दियों में दक्षिण एशिया में हुई इक्कीसवीं शताब्दी में जैन धर्म भारत में एक अल्पसंख्यक धर्म है जबकि अमेरिका, पश्चिमी यूरोप, अफ्रीका और अन्य जगहों में इस समुदाय की संख्या बढ़ रही है। जैन का शाब्दिक अर्थ होता है विजेता अर्थात जिसने अपने उद्यमी प्रयासों के बल पर इच्छा, घृणा, क्रोध, लोभ, अभिमान जैसी सांसारिक वासनाओं को जीतलिया है और स्वयं को सांसारिक अस्तित्व के बंधनों से मुक्त कर लिया है।



यह अवधारणा उस अवधारणा के निकट है जिसके प्रति एक व्यवसायिक सामाजिक कार्यकर्ता प्रयास करता है। ध्यान साधना को जैन धर्म में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। जैन धर्म समस्त जीवों की आध्यात्मिक स्वतंत्रता और समानता पर जोर देता है और इस क्रम में अहिंसा पर विशेष जोर देता है जो कई देशों में समाज कार्य के व्यवसाय द्वारा प्रोत्साहित की जा रही कार्यनीतियों में से एक है। आत्म संयम वह साधन है जिसके द्वारा जैनी मुक्ति कैवल्य प्राप्त करते हैं।





जैन संस्थाओं को मुख्यतौर पर दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है आम जनसंख्या के लिए : धर्माण संस्थाएँ और केवल जैनियों के लिए धर्मार्थ संस्थाएँ। अपनी आर्थिक स्थिति के कारण जैन इस स्थिति में हैं कि वे बहुत सारी संस्थाएँ चला सकते हैं। पहली किस्म की संस्थाएँ चलाकर उन्होंने दूसरों की सद्भावना प्राप्त की है और दूसरी किस्मकी संस्थाओं के माध्यम से उन्होंने अपने धर्म को बचाने और इन तमाम वर्षों में अपने समुदाय को स्थिरता देने का प्रयास किया है।





जैन धर्म अपने अनुयायियों का आदेश देता है कि वे समस्त प्राणियों और विशेषकर जरूरतमंदों के प्रति करुणा भाव रखें। यही नहीं, जैन श्रावकों के छह दैनिक कर्तव्यों में एक यह है कि वह दूसरों को कुछ न कुछ दान रूप में दे दान चार प्रकार के निर्धारित किए गए हैं भोजन का दान (आहार दान) संरक्षण (अभय दान) दवाएँ (औषध दान) और विद्या (शास्त्र दान |




आम जनता के लिए स्थापित संस्थाओं में गरीबों के लिए चलाई जा रही धर्मशालाएँ अथवा आराम गृह अथवा भिक्षु कगृह स्कूल, कॉलेज, सार्वजनिक पुस्तकालय और व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र है जिसका उद्देश्य विशिष्ट व्यवसायों में कौशल का विकास है और निर्धन, ग्रामीण, दूरदराज के क्षेत्रों में शिविरों के माध्यम से मुफ्त चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने के लिए सचल चिकित्सा इकाई संचालित औषधालय और अस्पताल हैं। इसके अतिरिक्त जैनियों ने असहाय और निर्बल पशु-पक्षियों के संरक्षण और देखभाल के लिए पिंजरपोल नाम की विशेष संस्थाओं की स्थापना और उनका प्रबंधन किया है। यह स्पष्ट है कि सेवा कर्म केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं था और इससे यह प्रमाणित होता है कि जैन धर्म में पर्यावरण के प्रति विशेष ध्यान है। इस अवधारणा में पक्का विश्वास रखने से पर्यावरण संतुलन और टिंकळ विकास को बढ़ावा देने और बनाए रखने में मदद मिलेगी।





दूसरी श्रेणी की जैन संस्थाओं में धार्मिक किस्म की संस्थाओं को सामाजिक अथवा शैक्षिक किस्मकी संस्थाओं से अधिक प्रमुखता दी जाती है। इस तरह की सस्तों मूल रूप में उन धार्मिक ग्रंथो पुस्तकों और पांडुलिपियों के संरक्षण में लगी है जो पारंपरिक ज्ञान की दृष्टि से समृद्ध हैं और अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। ग्रंथभंडार नाम की ये संस्थाएँ अक्सर जैन मंदिरों में अवस्थित होती हैं। अभी हाल में इन संस्थानों ने मुद्रित तथा डिजिटल दोनों रूपों में इन रचनाओं के संपादन अनुवाद और प्रकाशन का काम शुरू किया है। ये रचनाएँ अधिकतर प्राकृत में हैं जिन्हें अंग्रेजी और अन्य प्रमुख भारतीय भाषाओं में प्रस्तु किया जा रहा है जिससे इनमें अंतर्निहित समृद्ध साहित्यका लाभ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तरों पर बृहतर समाज को मिल सके और एक शांतिपूर्ण और न्यमपूर्ण व्यवस्था की स्थापना में मदद मिल सके।