शहरी क्षेत्रों की समस्याएँ - Urban Areas Problems

शहरी क्षेत्रों की समस्याएँ - Urban Areas Problems

1) आवास एवं मलिन बस्तिया

शहरी क्षेत्रों में आवास का बेहद अभाव होता है और काफी उपलब्ध निवास स्थान गुणात्मक रूप से निम्न दर्जे का होता है। शहरीकरण या नगरीकरण के परिणामस्वरूप गावों से शहरों की ओर जनसंख्या का पलायन होता है। फलस्वरूप अनेक चुनौतियां एवं समस्याएं सामने आती हैं 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 31.16 प्रतिशत जनसंख्या नगरीय क्षेत्रों में निवास करती है। दस लाखसे अधिक आबादी वाले शहर 468 हो गए. हैं। इस बढ़ते शहरीकरण के बावजूद हमारी शहरी आमदनी सापेक्ष रूप से कम हुई है। (शर्मा, 2015) जनसंख्या वृद्धि शहरीकरण की तीव्र दर से और आवासीय जनसमूहों में आनुपातिक रूप से अपर्याप्त वृद्धि के कारण लाखों लोग इतना अधिक किराया देते हैं कि जो उनके बूते से बाहर होता है। हमारी लाभोन्मुखी अर्थव्यवस्था में निजी विकास और कालोनाइजर गरीबों तथा निम्न मध्य वर्गीय लोगों के लिए शहरों में मकान बनाने में कम लाभ देखते हैं अतः वे अमीरों की आवासीय आवश्यकताओं को पूरा करने पर ध्यान केंद्रित करते है क्योंकि उसमें अधिक पैसा दिखाई पड़ता है।

शहरी क्षेत्रों की ओर बड़े पैमाने पर प्रवसन के चलते अनेक लोगों को लगता है कि उनके पास एकमात्र विकल्प मलिन बस्तियों की निकृष्ट दशाओं में रहना ही है। मलिन यानि गंदी बस्तियों की पहचान होती है। निम्न स्तर आवाम् अति-संकुलन तथा बिजली, संवातन, सफाई प्रबंध सड़कों व पेय जल आदि सुविधाओं का अभावा रोगों पर्यावरण प्रदूषण नैतिक पतन एवं अनेक सामाजिक तनावों की जन्म स्थली बन जाते हैं। वर्तमान में भारत की लगभग 40 प्रतिशत बस्ती जनसंख्या शहरबार इस प्रकार दिल्ली अपनी


जनसंख्या का 449%, मुंबई 45%, कोलकाता 42% और चेन्नई 30%


जनगणना के उद्देश्य से मलिन बस्तियों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है


1) अधिसूचित मलिन बस्तिया (Notified Slumns) 


2) मान्यता प्राप्त मलिन बस्तियां (Recognized Slums)


(3) अभिज्ञान मलिन बस्तियां (Identified Slums)


2) अति संकुलन

मुंबई कोलकाता, पुणे एवं कानपुर जैसे भारत के प्रमुख शहरों में85 से 90 प्रतिशत के बीच लोग एक अथवा दो कमरे घरों में रहते हैं। कुछ घरों में एक कमरे में पांच से छह लोग तक रहते हैं। अति संकुलन विसामान्य व्यवहार को बढ़ावा देता है रोग फैलता है और मानसिक रुग्णता, मादक पेय सेवन एवं दंगों हेतु दशाओं को जन्म देता, हैरधन शहरी जीवन का एक प्रभाव के परिणामस्वरूप लोगों में उदासीनता एवं महत्वहीनता दिखायी देती है।


(3) शहरी गरीबी

शहरी गरीबी आज के नगरों की प्रमुख समस्या है। शहरी जनसंख्या का एक तिहाई भाग गरीबी रेखा के नीचे है। देशभर में निर्धनों की संख्या घटने के बावजूद निर्धन और धनी व्यक्तियों की आय में अंतर तेजी से बढ़ रहा है। NSSO द्वारा जारी आंकड़े दशति है कि सर्वाधिक धनी 5 प्रतिशत लोगों द्वारा उपभोग व व्यय वर्ष 2000 और 2012 के मध्य 60 प्रतिशत बढ़ा है, जबकि निर्धनतम 5 प्रतिशत लोगों के मामले में यह वृद्धि 30 प्रतिशत ही रही है। शहरी क्षेत्रों में सर्वाधिक धनी वर्ग का व्यय 63 प्रतिशत बढ़ा है, जबकि निर्धनतम वर्ग के व्यय में 33 प्रतिशत की ही वृद्धि हुई है। (टाइम्स ऑफ इंडिया 28 जुलाई 2013) योजना आयोग की छठी पंचवर्षीय योजना के प्रपत्र में यह स्पष्ट किया गया है कि गरीबी रेखा से तात्पर्य ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी तथा शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी प्रति व्यक्ति भोजन कि न्यूनतम आवश्यकता के आधार पर ग्रामीण क्षेत्रों में रुपए 75 प्रति व्यक्ति माह तथा शहरी क्षेत्रों में रुपए 88 प्रति व्यक्ति माह खर्च करने से है। इस आधार पर देखने के बाद भी गरीबी की जनसंख्या बहुत अधिक है।


4) जन-सुविधाएं

मानवों के किसी भी समुदाय के स्वस्थ जीवनयापन के लिए मूलभूत आवश्यकताओं रोटी कपड़ा एवं मकान के साथ-साथ शुद्ध-स्वच्छ एवं स्वस्थ पर्यावरण का होना भी आवश्यक है। किसी भी शहर या कस्बे में पीने के पानी, शौचालय, गंदे पानी के बहाव की व्यवस्था, बिजली, प्रकाश, खेलने के पार्क, कूड़ा-करकट के निस्तारण आदि की उचित व्यवस्था आवश्यक होती है। जनोपयोगी सुविधाओं को प्रदान किया जाना तथा प्रबंध नगरीय प्रशानिक संस्थाओं के माध्यम से होता है। स्वच्छता, सफाई सेवाओं पर्यावरण परिस्थितियों तथा आधारभूत सेवाओं की स्थिति देश में संतोषजनक नहीं है। जन सुविधाओं की समस्या मकानों की पुरानी संरचना तथा इनका निम्न स्तर होने के कारण समस्याए और गंभीर होती जा रही है। इसके अतिरिक्त मुहल्ले तथा कालोनियों में सड़के, नालियाँ तथा गलियों में प्रकाश व्यवस्था की समस्या है। सार्वजनिक शौचालय स्नानागार खेलकुद के लिए पार्क, आवागमन के लिए खुली सड़के तथा रास्ते सार्वजनिक यातायात व्यवस्था तथा उच्च सार्वजनिक सुविधाओं का अभाव महानगरों से लेकर छोटी श्रेणी के शहरों में सामान्य बात है।


5) अशिक्षा

अज्ञानता तथा अस्वस्थताः शहरों में रहने वाली जनसंख्या को आर्थिक रूप से दो भिन्न वर्गों में विभाजित किया जा सकता है. आर्थिक रूप से संपन्न तथा आर्थिक रूप से पिछड़े। आर्थिक रूप से पिछड़े जनसंख्या अशिक्षित तथा अज्ञानता के जाल से जकड़ी हुई है। नगरों की आबादी में अकुशल श्रमिक, महिला मजदूरोतथा बाल श्रमिकों की संख्या तकनीकी या कुशल श्रमिकों की तुलना में बहुत अधिक होती है। नगरीय क्षेत्रों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं में निरक्षरता और भी ज्यादा पाई जाती है। मलिन बस्तियों में तो यह प्रतिशत अत्यधिक है। अशिक्षा और अज्ञानता का जाल अस्वस्थता के साथ ही एक ऐस ब्रुकव्यूह को जन्म देता है जिससे निकालना असंभव नहीं बल्कि दुष्कर अवश्य होता है। 


6) परिवहन और यातायात

यातायात एवं परिवहन हेतु नियोजित एवं पर्याप्त व्यवस्थाओं का अभाव भारतीय शहरी केंद्रों में एक अन्य समस्या है। अधिकांश लोग बसों और टेंपो का प्रयोग करते हैं। दुपहिया वाहनों एवं कारों की बढ़ती संख्या यातायात समस्या को और जटिल कर देती है। ये वायु प्रदूषण को भी जन्म देती है। इसके अतिरिक्तमहानगरीय शहरों में चलने वाली बसों की संख्या पर्याप्त नहीं है और यात्रियों को यात्रा के लिए घंटों इंतजार करना पड़ता है। 


7) व्यक्तिगत एवं पारिवारिक विघटन

महानगर की भौतिक संस्कृति में अधिकांश व्यक्ति टुकड़े टुकड़े में जीते हैं रोज मस्मरकर जीते हैं। जीवनशैली की यह प्रक्रिया व्यक्ति के महानगरीय जीवन में न जाने कितनी करवट लेती है। भागता हुआ आदमी हांफता हुआ आदमी संघर्षों से पराजित व्यक्ति, समाज और अपने से विद्रोह करता है। वह उन मार्गों पर चलता है जिस पर चलने की समाज स्वीकृति नहीं देता। वह उन व्यवहारों को स्वीकार नहीं करता, जो समाज और व्यक्ति के लिए हानिकारक है। समाज के बने बनाए व्यवहार के प्रतिमान के विरुद्ध जब कोई व्यक्ति कार्य करने लगता है तो उन व्यवहार के विचलन से उसके व्यक्तित्व में नकारात्मक चीजें उत्पन्न होती हैं। वह उन गतिविधियों को करने लगता है जो उसके व्यक्तित्व को गलत दिशा में ले जाती हैं। इस प्रकार के व्यवहार उस समय उत्पन्न होते हैं, जब व्यक्ति की आवश्यकताएं महत्वाकांक्षाएँ तमाम संघर्षों के पश्चात भी पूर्ण नहीं होती। तब उसके व्यवहार में ऐसा बदलाव आता है जो उसे बुरे मार्गों पर ले जाता है, जैसे- जुआ खेलना शराब पीना, बात-बात पर झगड़ा करना उचित अनुचित में भेद न करना।

आर जायसवाल नगरीय जीवन और विचलन के संबंध में लिखते हैं कि नगरीय जीवन का अस्तित्व सदियों से पाया जाता रहा है, लेकिन पिछली तथा इस शताब्दी में नगरीयता का विकास जिस तीव्रता से हुआ है वह केवल पाश्चात्य राष्ट्रों के लिए नहीं बरन एशियाई और अफ्रीकी विकासशील देशों के लिए भी एक समस्या बन गया है। रोज के संघर्ष भरे जीवन पद्धति में अधिकांश लोग नगरीय जीवन के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाने के कारण तनाव, चिंता कुठा से घिर जाते हैं और मद्यपान नशीली दवाओं का सेवन आत्महत्या आदि आपराधिक प्रवृत्तियों की ओर झुक जाते हैं। नगरीकरण ने संयुक्त परिवार व्यवस्था को विघटित करके व्यक्तिगत स्वतंत्रता व्यक्तिवाद तथा अनौपचारिकता में वृद्धि की है। परिणामस्वरूप दांपत्य जीवन में कलह तलाक, बच्चों के लालन-पालन में उपेक्षा, पश्चिमी संस्कृति की ग्राह्यता बढ़ती जा रही है जो अन्य समस्याओं को जन्म देती है।