महात्मा गांधी के अस्पृश्यता निवारण के कार्य - Mahatma Gandhi's work to eradicate untouchability

महात्मा गांधी के अस्पृश्यता निवारण के कार्य - Mahatma Gandhi's work to eradicate untouchability


अस्पृश्यता सामाजिक संरचना की एक ऐसी स्थिति है जिसके तहत व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से खानपान, विवाह एवं व्यवहार में घृणा करता है तथा दूरिया कायम रखता है और रखना चाहता भी है। दुसरे दृष्टि से देखा जाये तो अस्पृश्यता मात्र व्यक्तियों के बीच न पाई जाकर दो समुदाय समाज अथवा देश के बीच भी पाई जा सकती है। अस्पृश्यता सामाजिक दूरी को पैदा एवं कायम करती है। इसके अंतर्गत दो तरह के लोग या समाज होता है। प्रथम खुद को श्रेष्ठ समझने वाला व्यक्ति अथवा समाज दुसरा वह व्यक्ति या समाज जिसे निकृष्ठ समझा जाता है। अपने जाति, धर्म कला अथवा परम्परा को श्रेष्ठ समझने वाला समाज दूसरे समाज के जाति, धर्म, कुल अथवा परम्परा को नीची नजर से देखता है और छुआछूत जैसे सामाजिक गतिविधि को अंजाम देता है।

इस प्रकार देखा जाये तो अस्पृश्यता सामाजिक मूल्यों एवं प्रतीकों को श्रेष्ठता बनानेएव कायम रखनेकी चरम विचारधारा का प्रतिफल है। जिस समाज में जितना ही अस्पृश्यता की जड़े गहरी एवं विस्तृत होती है वह समाज उतना ही आंतरिक रूप से कमजोर, खण्डित एवं खोखला होता है। अस्पृश्यता की जड़ों में इतिहास एवं राजनीति की गहरी पैर होती है जो एकीकृत समाज जगह स्खण्डित समाज को जन्म देती है। इसलिए कहना उचित होगा कि अस्पृश्यता समाज के लिए ऐसी रोग है जो उस अंदर ही अंदर खाती रही है, खा रही है. और मानव समाज सचेत न हुआ तो खायेगी।


अस्पृश्यताः अर्थ एवं परिभाषा


अस्पृश्यता के तत्व


1, अस्पृश्यता समाज को स्थाई रूप में विभाजित करती है।


अस्पृश्यता समाज में गैर-बराबरी को जन्म देती है।


ii. अस्पृश्यता खण्डित समाज की चेतना है जिसमें एक वर्ग के फायदे नुकसान का भाव छिपा रहता है।


तथा दूसरे वर्ग के जाति, धर्म, प्रजाति, रंग, संस्कृति एवं इतिहास आदि कारक ही समाज में अस्पृश्यता के आधार बनते हैं।


समाज में अस्पृश्यता सामाजिक आर्थिक, राजनैतिक प्रस्थिति एवं भूमिका को प्रभावित करती है।


अस्पृश्यता के मूल कारण


अस्पृश्यता के अनेक कारण है पर मुख्यतः दो है।


A. प्राकृतिक कारण:-


 इसके अंतर्गत प्रवृत्ति जनिक कारण आते है जो अंतिम रूप में अस्पृश्यता को जन्मदेते हैं। पृथ्वी के क्षेत्रीय भिन्नता के कारण मानवी शारीरिक बनावट भी भिन्न होती है। शरीर की लम्बाई, रंग, आंखों की बनावट बालों की आकृति एवं कपाल सूचकांक अलग अलग होते हैं। इसीलिए दुनिया में मानव समाज को कई प्रजातियों में बांटा गया है जैसे काकेशायड (यूरोपीय लोग), मंगोलायड (चीनी एवं पूर्वी एशिया) आस्ट्रेल (अफ्रीकी लोग), इण्डियन (भारतीय लोग जब समाज में भेदभाव अथवा अश्यता का अधार मानवीय प्रजातिगत भिन्नता होती है तो उसे प्राकृतिक कारण कहते हैं। यूरोप में काले और गोरे का भेद इसका प्रमुख उदाहरण है।


B. सामाजिक कारण:-


 दुनिया में प्रत्येक समाज अपने मनोवैज्ञानिक एवं भौतिक आवश्यकओं को पूरा करने के लिए कुछ पद्धतियों एवं नियमों का निर्माण करते हैं। यही पद्धति संस्कृति बन जाती है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। जब कोई भी समाज अपने ही अंदर मूल्यों एवं नियमों का निर्माण विभेदी करण के साथ करता है तो उस समाज में जाति, धर्म, वंश जैसे मूल्यों पर कई वर्ग बन जाता है। इन वर्गों में जाति, धर्म, कुल, संस्कृति को लेकर श्रेष्ठता एवं हीनता की भावना पैदा होती है और पैदा की जाती है। प्रतिफल स्वरूप समाज में गैर-बराबरी की मनोवैज्ञानिक भावना कठोर होती जाती है। धीरे-धीरे यह परम्परा का रूप पर लेती है और फिर संबंधित समाज का अस्पृश्यता के आधार पर एवं खण्डित इतिहास हो जाता है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि पराजित एवं विजित जातियों में जब आपसी सामाजिक ताना बाना तैयार होता है तो गैर-बराबरी एवं अस्पृश्यता की स्थिति पैदा होती है। 


C. अस्पृश्यता के प्रभाव 


अस्पृश्यता नकारात्मक सामाजिक परिस्थिति की प्रक्रिया एवं परिणाम दोनों है। इसके कारण समाज पर कई तरह का नकारात्मक प्रभाव पड़ते है जो निम्नलिखित है।


1. अस्पृश्यता समाज को विखण्डित करने का प्रयास करती है। अस्पृश्यता के कारण राष्ट्रवादी भावना कमजोर होती है। 


III. अस्पृश्यता समाज में दमन एवं विद्रोह को पैदा करती है।


IV. अस्पृश्यता के कारण संगठनात्मक सामाजिक शक्ति का विकास नहीं हो पाता जिसके कारण समाज अपने संपूर्ण मानवीय संसाधन का सद्उपयोग नहीं कर पाता है। 


V. समाज में गरीबी, पिछड़ापन एवं शोषण की प्रक्रिया के पीछे अस्पृश्यता की स्थिति भी जिम्मेदारी है।


VI. अस्पृश्यता समाज में संरचनात्मक एवं प्रकार्यात्मक हिंसा को बढ़ावा देती है। विश्व समाज में अस्पृश्यता:- अस्पृश्यता की बीमारी सिर्फ भारत में नहीं है। इसकी मौजूदगी किसी-न किसी रूप में पूरे विश्व में पाई जाती है। यूरोप में काले एवं गोरे कैथोलिक एवं यहूदी के नाम लम्बे काल से भेदभाव होता आया है। अस्पृश्यताकी बीमारी अमेरिका में भी भारी पैमाने पर पाई जाती है। वहाँ मूल अमेरिकी रिवासियों को रेड इण्डियन कहा जाता है तथा उन असभ्य माना जाता रहा है। यूरोप में 'क्रियोललिज्म' की संकल्पना अस्पृश्यता को पैदा करती है। क्रियोलिजम एक ऐसी विचारधारा है जिसमें यूरोप के बाहर पैदा हुए किसी भी व्यक्ति को यूरोपीय नहीं माना जाता और उसे शारीरिक एवं मानसिक रूप में यूरोपियनों के तुलना में कमजोर समझा जाता है। आस्ट्रेलिया एवं दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के द्वारा अस्पृश्यता को बढ़ावा मिलता है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि अस्पृश्यता विश्व समाज के लिए बड़ा कलंक है। 



भारतीय समाज में अस्पृश्यता :- 


भारत एक ऐसा समाज है जहाँ संस्कृति एवं सभ्वता का लम्बा इतिहास रहा है। अनेक जातियां यहाँ इतिहास के क्रम में आई और यहीं की हो गई। पर यह सामान्य अवधारणा है। सच यह भी है कि अलग-अलग विश्वक्षेत्र से जो जातियां आई और पहले से यहाँ जो जातियां विद्यमान श्री वे आपस में कभी आत्मिक रूप से एकीकृत नहीं हो पाई जिसके कारण भारतीय समाज खण्डों में बंटता गया। इसका प्रतिफल यह हुआ कि भारत में अस्पृश्यता का गहरा रोग स्वार्थ राजनीति एवं आत्म संकीर्ण के कारण लग गया। भारतीय समाज में अस्पृश्यता का जो रूप है वह विश्व समाज में अस्पृश्यता का जो रूप है वह विश्व समाज के अस्पृश्यता के रूप से सर्वथा भिन्न है। यहाँ जिस जाति को अस्पृश्य माना जाता है उसे अपने को श्रेष्ठ समझने वाली जाति खुद के साथ बैठकर खाना नहीं खाने देती, अपने घर में प्रवेश नहीं करने देती है के और न ही अपनी किसी चीज को छूने देती है। सार्वजनिक रूप से जो पवित्र स्थान जैसे मंदिर है वहाँ पर अस्पृश्य जातियों का प्रवेश निषेध माना जाता है। इतिहास में ऐसा भी पाया गया है कि अस्पृश्य जातियों को कुछ मागाँ चर चलना भी निषेध माना जाता था। साथ ही साथ जब अस्पृश्य जातिया चलती भी तो पीछे झाडू श्यक होता था कि उनके द्वारा गदा किया गया रास्ता पीछे से साफ हो जाये देश में ऐसी में घटनाएं घटित हुई है जब अस्पृश्यता एवं श्रेष्ठता की भावना ने दलित बस्तियों का अग्निकाण्ड देखते-देखते ने पूरी दलित बस्ती कवलित हो गई। देश में अस्पृश्यता के विरूद्ध में संगठित कार्य अंग्रेजों के आगमन के साथ प्रारंभ हुआ जिसमें भारतीयों ने भी सहभागिता प्राप्त की।


अस्पृश्यता निवारण एवं गांधी


महात्मा गांधी अस्पृश्यता को समाज के लिए एक बड़ा कलंक मानते थे। उन्होंने अस्पृश्यता के दंश को झेलने चाले समाज को हरिजन शब्द से संबोधित किया। उनका मानना था कि ये लोग हरि (ईश्वर) की संतान है इस लिए इनके साथ किसी भी प्रकार की जातिगत भेदभाव किया जाये। महात्मा गांधी राष्ट्र के निर्माण एवं स्वतंत्रता के प्राप्ति हेतु सभी भारतीयों से अस्पृश्यता के खिलाफ खड़ा होने के लिए आवहन किया। गांधी जी ने अपने आश्रम में हरिजनोंको प्रवेश दिये थे। वे मंदिरों में प्रवेश के लिए भूख हड़ताल भी किये। उनका कहना था कि यूरोप ने हड़ताल भी किये। उनका कहना था कि यूरोप ने खुद को विविध वर्ग (Class) में विभाजित कर रखा है वहीं भारत ने खुद को विविध जातियों में बांट रखा है जो मानव समाज के कल्याण के दृष्टि से अहितकर है।

वे भारती(शुद्र की संकल्पना को नकारते हुए कहा कि भारत आज तक इस सामाजिक कोड़ को होता आया है जो अब आवश्यकता है कि इसे त्याग कर स्वस्थ भारतीय समाज का निर्माण किया जा सके। गांधी जी इस बात को अस्वीकार्य करते है कि भारत में जाति प्रथा धर्म का हिस्सा है और धार्मिक विकास के लिए आवश्यक है। वे कहते हैं कि मैं यह नहीं जानता की यह कैसे हुई और मैं जानता भी नहीं चाहता पर इतना जरूर चाहता हूँ कि यह खत्म होना चाहिए क्योंकि यह भारतीय राष्ट्रीयता एवं आध्यात्मिक विकास के लिए नुकसानदेह है। गांधीजी यह भी कहते हैं कि जीवन कर्तव्य का नाम है अधिकारों एवं विशेषधिकारों का नहीं। वह धर्म जो समाज को कठिन एवं खण्डित करे वह सच्चा मानव धर्म नहीं हो सकता। इस प्रकार कहना उचित है कि महात्मा गांधी ने भारत में विद्यमान छूआछूत (अस्पृश्यता) के उन्मूलन के लिए व्यावहारिक एवं सैद्धानिक दोनों स्तरों पर कार्य किया।



अस्पृश्यता निवारण एवं भारतीय संवैधानिक उपलब्ध


देश अपनी स्वतंत्रता के साथ आगे बढ़ा। संविधान का निर्माण किया गया जिसमें देश की सामाजिक आर्थिक

एवं राजनैतिक व्यवस्था को संचालित करने के लिए वैधानिक अवन्ध किया गया। इसी क्रम देश से अस्पृश्यता जैसी बुराई को खत्म करने के लिए भी भारतीय संविधान में उपबंध किये गये। इस प्रकार भारतीय संविधान एवं उससे जुड़े हुए कानून संसदीय स्तर पर बनाये गये जो अस्पृश्यता निवारण के लिए कार्य करता है।


1. संवैधानिक स्तर पर उपलब्ध : 


भारतीय संविधान की 14 की धारा विधि के समक्ष समानता की बात करती है। वहीं 15 की धारा जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र के आधार पर भेदभाव का निषेध करती है। सबसे महत्वपूर्ण 17 वीं है जो अस्पृश्यता के खात्मा के लिए वचनबद्धक करती है। 


2. विधिक प्रावधान :


भारतीय संसद ने 1955 में अस्पृश्यता अपराध अधिनियम लायी जिसे 1976 में संशोधन करके सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम कर दिया गया।


B. 1989 में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाती अधिनियम के अंतर्गत 'उत्पीड़न' शब्द की व्यापक व्याख्या करके अस्पृश्यता को इसमें शामिल किया गया। 2015 में इस अधिनियम में संशोधन करके सख्ती बरती दी गई है ताकि अस्पृश्यता का निवारण किया जा सके।


अस्पृश्यता निवारण एवं समाज कार्य


समाज कार्य एक समस्या केन्द्रित अनुशासन है। जिसमें सामाजिक समस्याओं का निदान एवं उपचार किया जाता है। एक समाज कार्य को सदैव समाज में सामाजिक संरचना एवं प्रकार्य के अंतर्गत व्यक्ति केन्द्रित एवं पर्यावरण केन्द्रित विधा के साथ समस्या का निदान करना पड़ता है। व्यक्ति केन्द्रित समस्या के निदान में समाज कार्यकर्ता व्यक्ति पर केन्द्रित होकर उसकी समस्या का निदान करता है। जबकि पर्यावरण केन्द्रित पद्धति में समाज कार्यकर्ता व्यक्ति के साथ-साथ उसके संपूर्ण वातावरण में परिवर्तन लाने का प्रयास करता है।

भारतीय समाज में अस्पृश्यता आज भी गहरी पैठ बनाई हुई है। जिसके पीछे राजनीतिक एवं सामाजिक हित भी झुपे हुए है। स्वतंत्रता के सत्तर साल बाद भी भारत अस्पृश्यता के बीमारी से छुटकारा नहीं प्राप्त किया है। ऐसी स्थिति में एक समाज कार्य का व्यावसायिक एवं नैतिक कर्तव्य बनता है कि जहाँ भी, जिस रूप में छुआछूत अथवा अस्पृश्यता दिखाई दे उसके खात्मा के लिए प्रयास करें। आज पूरी दुनिया आर्थिक विकास के दौड़ में सलग्न है। ऐसे स्थिति में भारत जांति पाति एवं अस्पृश्यता के जाल में फंसकर अपनी उर्जा क्षारत कर देगा तो आर्थिक विकास के क्षेत्र में देश पिछड़ा जायेगा। संगठित समाज ही संगठित स्पष्ट का निर्माण कर सकता है और एक संगठित राष्ट्र ही अपने आर्थिक सामाजिक एवं वैज्ञानिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। इस लिए समाज कार्यकर्ता को भारत में स्थित अस्पृश्यता जैसी बीमारी से लड़ने एवं खत्म करने के लिए सदैव तत्पर होना चाहिए।


'अस्पृश्यता समाज में भेदभाव एवं गैर-बराबरी का प्रतीक है जो विश्व के प्रत्येक समाज में किसी न किसी रूप में पाया जाता है। भारतीय समाज में अस्पृश्यता गहरी पैठ बताये हुए है। खान-पान, बैठक, पूजा स्थल, तीर्थ स्थल पर अस्पृश्यता का रंग दिख जाती है। आज भी भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में अस्पृश्यता का गहन प्रभाव देखने का मिल ही जायेगा।


नागरीकरण एवं औद्योगीकरण ने अस्पृश्यता के रोग को काफी कुछ खत्म करने का प्रयास किया है। पर भारतीय ग्रामीण क्षेत्र इसके चंगुल से आज भी छुटकारा नहीं कर पाया है। महात्मा गांधी, भीमराव आंबेडकर, ज्योतिबा फूले जैसे महापुरूषों ने भारतीय समाज से अस्पृश्यता को खत्म करने का प्रयास किया पर पूरी तरह खत्म नहीं कर पाये। 


आज समाज कार्य एवं समाज कार्यकर्ताओं की यह जिम्मेदारी है की अस्पृश्यता जैसे सामाजिक बुराई की खत्म करने हेतु दृष्टि की खोज करें अस्पृश्यता के मौजूदगी में समाज को संगठित एवं विकसित नहीं किया जा सकता है।