सर्वोदय - अर्थ एवं परिभाषा - Sarvodaya - Meaning and Definition

सर्वोदय - अर्थ एवं परिभाषा - Sarvodaya - Meaning and Definition

सर्वोदय गांधीव दर्शन की एक प्रमुख अवधारणा है। सर्वोदय समाजिक आदर्श का एक सम्प्रत्यय है जिसका प्रतिपादन गांधी जी ने सत्य अहिंसा एवं अद्वैत के मूल भावना को साकार करने के लिए किया था। सर्वोदय वस्तुतः समाज के समस्त वर्गों के पुनरुत्थान का एक अद्वितीय प्रयास है। जिसका लक्ष्य एक ऐसे सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है जिसमें शोषण, संघर्ष एवं प्रतियोगिता के स्थान पर प्रेम एवं सहयोग, विषमता के स्थान पर समता, वर्गीहित के स्थान पर सर्वहित की मंगल कामना निहित है। गाँधी सर्वोदय को जीवन दर्शन के मूलभूत सिद्धांत के रूप में स्वीकार करते हैं। गाँधी के इस धारणा का पोषण एवं व्यावहारिक रूप कालांतर में आर्चाय विनोबा भावे, जय प्रकाश नारायण आदि ने देने का प्रयास किया।

सर्वोदय दो शब्दों के योग से बना है। पहला सर्व तथा दूसरा उदया यहाँ सर्व का आशय है सभी का और सभी प्रकार से, जबकि उदय, उत्थान या कल्याण को इंगित करता है। यहाँ सभी का से तात्पर्य अमीर गरीब स्त्री-पुरुष आदि सबसे है तथा सभी प्रकार का से आशय जीवन के समस्त पक्ष अर्थात् सामाजिक, आर्थिक, नैतिक एवं धार्मिक पक्ष से है। इस प्रकार सर्वोदय का अर्थ समाज के सभी वर्गों के जीवन के सभी पक्षों के सर्वांगीण उत्थान से है। यहाँ जाति धर्म, वर्ण, समुदाय, लिंग, सम्पत्ति जन्म स्थान आदि के आधार पर किसी भी प्रकार के भेद-भाव को स्वीकार नहीं किया गया है। यहाँ गरीब के उत्थान से तात्पर्य है, उनका भौतिक कल्याण जबकि अमीर के उत्थान का तात्पर्य इनके नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान से है। सर्वोदय के इस अर्थ को स्पष्ट करते हुए दादा धर्माधिकारी कहते हैं कि सर्वोदय ऐसे वर्ग विहीन, जाति विहीन, शोषण विहिन समाज का स्थापना करना चाहता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति तथा प्रत्येक समूह को अपने सर्वांगीण विकास के साधन एवं अवसर उपलब्ध होंगे।


सर्वोदय, अंग्रेज लेखक रस्किन की एक पुस्तक अनटूदिसलास्ट का गांधीजी द्वारा गुजराती में अनूदित एक पुस्तक है। 'अन्टू द लास्ट' का अर्थ है इस अंतवाले को भी सर्वोदय का अर्थ है सबका उदय सबका विकास


महात्मा गांधी जान की प्रसिद्ध पुस्तक अन टू दिस लास्ट से बहुत अधिक प्रभावित थे। गांधी जी के द्वारा रनि की इस पुस्तक का गुजराती भाषा में सर्वोदय शीर्षक से अनुवाद किया गया। इसमें तीन आधारभूत तथ्य थे..


1. सबके हित में ही व्यक्ति का हित निहित है।


2. एक नाई का कार्य भी वकील के समान ही मूल्यवान है क्योंकि सभी व्यक्तियों को अपने कार्य से स्वयं की आजीविका प्राप्त करने का अधिकार होता है, और 


3. श्रमिक का जीवन ही एक मात्र जीने योग्य जीवन है।


गांधी जी ने इन तीनों कथन के आधार पर अपनी सर्वोदय की विचारधारा को जन्म दिया। सर्वोदय का अर्थ है सब की समान उन्नति। एक व्यक्ति का भी उतना ही महत्व है जितना अन्य व्यक्तियों का सामूहिक रूप से है। सर्वोदय का सिद्धान्त गांधी ने बेन्थम तथा मिल के उपयोगतिबाद के विरोध में प्रतिस्थापित किया। उपयोगिताबाद अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख प्रदान करना पर्याय माना। उन्होंने कहा कि किसी समाज की प्रगति उसकी धन सम्पत्ति से नहीं मापी जा सकती, उसकी प्रगति तो उसके नैतिक चरित्र से आंकी जानी चाहिये। जिस प्रकार इंग्लैण्ड में रस्किन तथा कालाईल ने उपयोगितावादियों को विरोध किया, उसी प्रकार गांधी ने मात्रा से प्रभावित उन लोगों के विचारों का खण्डन किया जो भारतीय समाज को एक औद्योगिक समाज में बदलना चाहते थे.


सर्वोदय का दर्शन


"सर्वोदय" का आदर्श है अद्वैत और उसकी नीति है समन्वया मानवकृत विषमता का यह अंत करना चाहता है और प्राकृतिक विषमता को पढ़ाना चाहता है। जीवमात्र के लिए समादर और प्रत्येक व्यक्ति के प्रति सहानुभूति ही सर्वोदय का मार्ग है जीवमात्र के लिए सहानुभति का यह अपूत जब जीवन में प्रवाहित होता है, तब सर्वोदय की लता में सुरभिपूर्ण सुमन खिलते हैं। डार्बिन ने कहा- "प्रकृति का नियम है, बड़ी मछली छोटी मछली को खाकर जीवित रहती है।" हक्सले ने कहा-जौओ और जीने दो।" सर्वोदव कहता है- "तुम दूसरों को जिलाने के लिए जीओ।" दूसरों को अपना बनाने के लिए प्रेम का विस्तार करना होगा, अहिंसा का विकास करना होगा और शोषण को समाप्त कर आज के सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन करना होगा।")


"सर्वोदय" ऐसे वर्गविहीन, जातिविहीन और शोषणमुक्त समाज की स्थापना करना चाहता है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति और समूह को अपने सर्वांगीण विकास का साधन और अवसर मिले विनोबा कहते हैं- "जब हम सर्वोदय का विचार करते हैं, तब ऊंच-नीच भावशाली वर्णव्यवस्था दीवार की तरह समाने खड़ी हो जाती है।


उसे तोड़े बिना सर्वोदय स्थापित नहीं होगा। सर्वोदय को सफल बनाने के लिए जातिभेद मिटाना होगा और आर्थिक विषमता दूर करनी होगी। इनको मिटाने से ही सर्वोदय समाज बनेगा।" "सर्वोदय ऐसी समाजरचना चाहता है जिसे वर्ण, वर्ग, धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर किसी समुदाय का न तो संहार हो, न बहिष्कार हो। सर्वोदय की समाजरचना ऐसी होगी, जो सर्व के निर्माण और सर्व की शक्ति से सर्व के हित में चले, जिसमें कम या अधिक शारीरिक सामज्य के लोगों को समाज का संरक्षण समान रूप से प्राप्त हो और सभी तुल्य पारिश्रमिक (इक्वीटेबल वेजेज) के हकदार माने जाएँ) विज्ञान और लोकतंत्र के इस युग में सर्व की क्रांति का ही मूल्य है और वही सारे विकास का मापदंड है। सर्व की क्रांति में पूंजी और


बुद्धि में परस्पर संघर्ष की गुंजाइश नहीं है। वे समान स्तर पर परस्पर पूरक शक्तियाँ हैं। स्वभावतः सर्वोदय की समाजरचना में अंतिम व्यक्ति समाज की चिंता का सबसे पहले अधिकारी है। सर्वोदय समाज की रचना व्यक्तिगत जीवन की शुद्धि पर ही हो सकती है। जो व्रत नियम व्यक्तिगत जीवन में "मुक्ति" के साधन हैं वे ही जब सामाजिक जीवन में भी व्यवहुत होंगे, तब सर्वोदय समाज बनेगा। विनोबा कहते हैं- "सर्वोदय की दृष्टि से जो समाज रचना होगी, उसका आरंभ अपने जीवन से करना होगा। निजी जीवन में असत्य, हिंसा, परिग्रह आदि हुआ तो सर्वोदय नहीं होगा, क्योंकि सर्वोदय समाज की विषमता को अहिंसा से ही मिटाना चाहता है। साम्यवादी का ध्येय भी विषमता मिटाना है, परंतु इस अच्छे साध्य के लिए वह चाहे


जैसा साधन इस्तेमाल कर सकता है, परंतु सर्वोदय के लिए साधनशुद्धि भी आवश्यक है।" सर्वोदय भारत का पुराना आदर्श है। हमारे ऋषियों ने गाया है- "सर्वेपि सुखिनः संतु"। सर्वोदय शब्द भी नया नहीं है। जैन मुनि समतभद्र कहते हैं सर्वापदामंतकर निरंत सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव "सर्व खल्विदं ब्रह्म' "वसुधैव कुटुंबकं" अथवा "सोऽहम्" और "तत्त्वमसि" के हमारे पुरातन आदशों में "सर्वोदय" के सिद्धांत अंतर्निहित हैं।


 सर्वोदय का उद्देश्य:


1. आत्म-संयम


2. शोषणहीन समाज


3. सर्वांगीण विकास


4. लोकनीति के आधार पर शासन


5. सत्ता का विकेन्द्रीकरण


गांधी कहते हैं किसमाजवाद का प्रारंभ पहले समाजवादी से होता है। अगर एक भी ऐसा समाजवादी हो, तो उसपर शून्य बढ़ाए जा सकते हैं। हर शून्य से उसकी कीमत दसगुना बढ़ जाएगी, लेकिन अगर पहला अक शून्य हो, तो उसके आगे कितने ही शून्य बढ़ाए जाए, उसकी कीमत फिर भी शून्य ही रहेगी। इसलिए गांधी जी सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, शरीरश्रम, निर्भयता, सर्वधर्मसमन्वय, अस्पृश्यता और स्वदेशी आदि व्रतों के पालन पर इतना जोर देते थे।


तत्व:


(1) पारिश्रमिक की समानता जितना वेतन नाई को उतना ही वेतन वकील को "अनटू दिस लास्ट" का


यह तत्व सर्वोदय में पूर्णतः गृहीत है। साम्यबाद भी पारिश्रमिक में समानता चाहता है। यह तत्व दोनों में समान है।


(2) प्रतियोगिता का अभाव प्रतियोगिता संघर्ष को जन्म देती है। साम्यबादी के लिए संघर्ष तो परम तत्व ही है। परंतु सर्वोदय संघर्ष को नहीं, सहकार को मानता है। संघर्ष में हिंसा है। सर्वोदय का सारा भवन ही अहिंसा की नींव पर खड़ा है।


(3) साधनशुद्धि साम्यवाद साध्य की प्राप्ति के लिए साधनशुद्धि को आवश्यक नहीं मानता। सर्वोदय में


साधनशुद्धि प्रमुख है। साध्य भी शुद्ध और साधन भी शुद्ध


 (4) आनुवंशिक संस्कारों से लाभ उठाने के लिए ट्रस्टीशिप की योजना विनोबा कहते हैं किसंपत्ति की विषमता कृत्रिम व्यवस्था के कारण पैदा हुई है, ऐसा मानकर उसे छोड़ भी दें, तो मनुष्य की शारीरिक और

बौद्धिक शक्ति की विषमता पूरी तरह दूर नहीं हो सकती शिक्षण और नियमन से यह विषमता कुछ अंश तक कम की जा सकती। किंतु आदर्श की स्थिति में इस विषमता के सर्वथा अभाव की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए शरीर, बुद्धि और संपत्ति इन तीनों में से जो जिसे प्राप्त हो, उसे यही समझना चाहिए कि वह सबक हित के लिए ही मिली है। यही ट्रस्टशिप का भाव है। अपनी शक्ति और संपत्ति का ट्रस्टी के नाते ही मनुष्यमात्र के हित के लिए प्रयोग करना चाहिए। ट्रस्टीशिप में अपरिग्रह की भावना निहित है। साम्यवाद में आनुवंशिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। उसकी नीति तो अभिजात्य के संहार की रही है।


(5) विकेंद्रीकरण


 सर्वोदय सत्ता और संपत्ति का विकेंद्रीकरण चाहता है जिससे शोषण और दमन से बचा जा सके। केंद्रीकृत औद्योगीकरण के इस युग में तो यह और भी आवश्यक हो गया है। विकेंद्रीकरण की यहाँ प्रक्रिया जय सत्ता के विषय में लागू की जाती है, तब इसकी निष्पत्ति होती है शासनमुक्त समाज में साम्यवादी की कल्पना में भी राजसत्ता तेज गर्मी में रखे हु घी की तरह अंत में पिघल जानेवाली है। परंतु उसके पहले उसे जमे हुए घी की तरह ही नहीं, बल्कि टूट्स्की के सिर पर मारे हुए हथौड़े की तरह, ठोस और मजबूत होना चाहिए) (ग्रामस्वराज्य)। परंतु गांधी जी ने आदि, मध्य और अंत तीनों स्थितियों में विकेंद्रीकरण और शासनमुक्तता की बात कही है। यही सर्वोदय का मार्ग है।


सर्वोदय की विशेषताएं


इस समय संसार में उत्पादन के साधनों के स्वामित्व की दो पद्धतियों प्रचलित है निजी स्वामित्व (प्राइवेट ओनरशिप) और सरकार स्वामित्व (स्टेट ओनरशिप निजी स्वामित्व पूँजीवाद है सरकार स्वामित्व साम्यवादा पूँजीबाद में शोषण है, साम्यवाद में दमना भारत की परंपरा, उसकी प्रतिभा और उसकी परिस्थिति, तीनों की माँग है कि वह राजनीतिक और आर्थिक संगठन की कोई तीसरी ही पद्धति विकसित करे, जिससे पूँजीबाद के "निजी अभिक्रम" और साम्यवाद के "सामूहिक हित" का लाभ तो मिल जाए, किंतु उनके दोषों से बचा जा सके। गांधी जी की "ट्रस्टीशिप" और "ग्रामस्वराज्य की कल्पना और विनोबा की इस कल्पना पर आधारित "ग्रामदान- ग्राम स्वराज्य" की विस्तृत योजना में दोनों के दोषों का परिहार और गुणों का उपयोग किया गया है। यहाँ स्वामित्व न निजी है, न सरकार का, बल्कि गाँव का है, जो स्वायत्त है। इस तरह सर्वोदय की यह क्रांति एक नई व्यवस्था संसार के सामने प्रस्तुत कर रही सर्वोदय समाज अपने व्यक्तियों को इस तरह से प्रशिक्षित करता है कि व्यक्ति बड़ी से बड़ी कठिनाइयों में भी अपने साहस व धैर्य कसे त्यागता नहीं है। उसे यह सिखाया जाता है कि वह कैसे जिये तथा सामाजिक बुराइयों से कैसे बचे। इस तरह सर्वोदय समाज का व्यक्ति अनुशासित तथा संवमी होता है। यह समाज इस प्रकार की योजनाएं बनाता है जिससे प्रत्येक व्यक्ति को नौकरी मिल सके अथवा कोई ऐसा कार्य मिल सके जिससे उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। इस समाज में प्रत्येक व्यक्ति को श्रम करना पड़ता है। सर्वोदय समाज पश्चिमादेशा की तरह भौतिक सम्पन्नता और सुख के पीछे नहीं भागता है और न उसे प्राप्त करने की इच्छा ही प्रगट करता है, किन्तु यह इस बात का प्रयत्न करता है कि सर्वोदय समाज में रहने वाले व्यक्तियों जिनमें रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा आदि है कि पूर्ति होती रहे। 


 ये सामान्य आवश्यकताओं है जो प्रत्येक व्यक्ति की हैं और जिनकी पूर्ति होना आवश्यक है। सर्वोदय की विचारधारा है कि सत्ता का विकेन्द्रकीकरण सभी क्षेत्रों में समान रूप में करना चाहिए क्योंकि दिल्ली का शासन भारत के प्रत्येक गांव में नहीं पहुंच सकता। वे आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में सत्ता का विकेन्द्रीकरण करने के पक्षधर है। इस समाज किसी भी व्यक्ति का शोषण नहीं होगा क्योंकि इस में समाज में रहने वाले व्यक्ति आत्म सयमी, धैर्यवान, अनुशासनप्रिय तथा भौतिक सुखों की प्राप्ति से दूर रहते हैं। इस समाज के व्यक्ति भौतिक सुखों के पीछे नहीं भागते, इसलिए इनके व्यक्तित्व में न तो संघर्ष है और हो शोषणता की प्रवृत्ति हो। यह अपने पास उतनी ही वस्तुओं का संग्रह करते हैं, जितनी इनकी आवश्यकताएं है।गांधी का मत था कि भारत के गांवों का संचालन दिल्ली की सरकार नहीं कर सकती। गांव का शासन लोकनीति के आधार पर होना चाहिए क्योंकि लोकनीति गांव के कण कण में व्यापत है। लोकनीति बचपन से ही व्यक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करती है और कुछ कार्य को करने से रोकता है। इस तरह व्यक्ति स्वत: अनुशासित बन जाता है।

सर्वोदय का उदय किसी एक क्षेत्र में उन्नति करने का नहीं बल्कि सभी क्षेत्रों में समानरूप से उन्नति करने का है। वह अगर व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कटिबद्र है तो व्यक्ति को सत्य, अहिंसा और प्रेम का पाठ पढ़ाने के लिए भी दृढ़संकल्प है। गाधी सर्वोदय समाज में सभी व्यक्तियों के अम करने पर बल देते हैं ताकि उनका आर्थिक विकास सुनिश्चत हो सके तथा उनमें निर्भरता का भाव समाप्त हो सके गांधी नाई और वकील दोनों के श्रम की कीमत की महत्ता समान मानते है। गांधी का मतव्य यह था कि शारीरिक एवं बौद्धिक श्रम में आर्थिक और सामाजिक विषमता स्थापित नहीं होनी चाहिए। गांधी जी भारतीय सन्दर्भ में कुटीर एवं उद्योगों का समर्थन करते है। इसमें सभीव्यक्ति स्वावलम्बी बनकर अपना भौतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान सुनिश्चत कर सकता है। गांधी जो सर्वोदय समाज की स्थापना के लिए पवित्र साधनों को स्वीकार करते है। यहां सर्वोदय के साधन के रूप में सत्य और अहिंसा पर आधारित सत्याग्रह शुद्ध चित्त, भूदान, गारमदान आदि को स्वीकार किया गया है। इस प्रकार सर्वोदय की अवधारणा में त्याग और हृदय परिवर्तन के तर्क द्वारा विचार परिवर्तन, शिक्षा के द्वारा संस्कार परिवर्तन एवं पुरुषार्थ के द्वारा स्थिति परिवर्तन के माध्यम से क्रांति करने पर जोर दिया जाता है। ऐसी क्रांति ही पूर्ण एवं स्थायी क्रांति होगी जो जीवन के समस्त पक्षों पर प्रभाव डाल सकती है। ऐसी क्रांति में प्रतिहिसा के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा, समाज में प्रेम और सहयोग का वातावरण तैयार होगा।

सर्वोदय समाज गांधी के कल्पनाओं का समाज था, जिसके केन्द्र में भारतीय ग्राम व्यवस्था थी। विनोबा के अनुसार सर्वोदय का अर्थ है सर्वसेवा के माध्यम से समस्त प्राणियों की उन्नति सर्वोदय के व्यवहारिक स्वरुप को हम बहुत हद तक बिनोबा जी के भूदान आन्दोलन मे देख सकते है। दादा धर्माधिकारी के शब्दों में


सुबहवाले को जितना, शामवाले को भी उतना ही प्रथम व्यक्ति को जितना, अंतिम व्यक्ति को भी उतना ही, इसमें समानता और अद्वैत का वह तत्व समाया है, जिसपर सर्वोदय का विशाल प्रासाद खड़ा है।