विनोबा भावे एवं भूदान और ग्रामदान आंदोलन - Vinoba Bhave and the Bhoodan and Gramdan movement

विनोबा भावे एवं भूदान और ग्रामदान आंदोलन - Vinoba Bhave and the Bhoodan and Gramdan movement

आचार्य विनोबा भावे केवल राजनीति ही नहीं, किसी भी प्रकार के प्रचार-प्रसार से सदा दूर रहे। इतना ही से नहीं, उन्होंने अपने आप को भारत की गहमागहमी से भी सर्वधा पृथक कर लिया था। यहाँ तक की समाचार पत्रों को भी पढ़ना छोड़ दिया था। परंतु क्या इन सब बातों से उनका महत्व कम होता है? बिसावों शताब्दी के महानतम व्यक्तियों में उनका नाम इसलिए लिखा जाता है कि उन्होंने जो कुछ इस देश की जनता के लिए किया, वह अब तक सर्वथा अछूता पड़ा था। उनके कार्य का महत्व इस बात से ही लगाया जा सकता है कि यह विशाल देश कृषि प्रधान देश है। परंतु देश के असंख्य गवा में रहनेवाले अर्धनग्न किसानों में से अधिकांश के पास खेती के लिए एक गज जमीन का टुकड़ा भी नहीं था। विनोवा का ध्यान सबसे पहले इसी और गया और वे देश के बड़े-बड़े जमीदारों से उन गरीब किसानों के लिए भूमि का दान मांगने निकाल पड़े जिसे भूदान आंदोलन का नाम दिया गया। उन्होंने हजारों एकड़ भूमि दान में लेकर भूमिहीन किसानों में बाँट दी और स्वयं अपने लिए पूंस की एक झोपड़ी भी नहीं बनाई और सारी आयु एक आश्रम में बिता दी।


भूदान आंदोलन का प्रारम्भ


विनोबा भावे एक बार आंध्र प्रदेश के एक गाँव में हरिजनों की स्थिति देखने गए। वहाँ के हरिजन नक्सलवादी उग्रपंथियों के अत्याचारों के शिकार थे। हरिजनों ने विनोबा जी से प्रार्थना की कि उन्हें अस्सी एकड़ के करीब भूमि प्रदान की जाए जिससे वे अपने परिवारों को रोटी दे सके। विनोबा जी ने शाम की प्रार्थना सभा में यह बात गाँव के लोगों के सामने रखी। उनकी बात का इतना प्रभाव पड़ा की एक समृद्ध किसान ने तुरंत उठकर अस्सी एकड़ की बजाय सौ एकड़ जमीन विनोबा को भेंट कर दी। बस यहीं से भूदान आंदोलन प्रारम्भ हुआ। उन्होंने उसके बाद तेलंगाना में पदयात्रा करके हजारों एकड़ जमीन दान में प्राप्त की और हरिजनों तथा निर्धन किसानों को इस भूमि के पत्ते दिलवाए।


विनोबा भावे एवं भूदान और ग्रामदान आंदोलन


गुन्नार मिईल ने कहा था कि दक्षिण एशिया के दीर्घकालीन आर्थिक विकास की लड़ाई खेती में जीती या हारी जाएगी। भारत के लिए भी यह सच था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था की


सबसे प्रमुख समस्या भूमि को लेकर थी। देश अन्न के मामले में स्वावलंबी नहीं था। जमीन मालिकी की विषम रचना से न सिर्फ पैदावार पर प्रतिकूल असर पद रहा था, बल्कि उससे शोषण भी जारी रहता था। इसलिए जमीन का पुनर्विरणनिहायत जरूरी था। इसके तीन तरीके थे.


1. भूस्वामियों से जी जमीन छिन लिया जाया लेकिन यह तरीका न ही उचित था और न ही व्यावहारिका


2. सरकार कानून बनाकर इस समस्या का समाधान करे। लेकिन इसमें भी काफी दिक्कतें थी। संविधान में संपत्ति का अधिकार मूल अधिकार था।


3. जमीन मालिक खुसी से अपनी जमीन का एक हिस्सा भूमिहीनों को दे दो जमीन मालिक द्वारा अपनी मर्जी से जमीन दान (देने) की प्रक्रिया 'भूदाना थी।


भूदान से न्यायोचित विवरण का एक नया तरीका सामने आया था। यह तरीका भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अनुकूल था। इसमें मूल्य परिवर्तन की असीम संभावनाएं थी। विनोबा ने इसी सूत्र के आधार पर भूदान को भूदान आंदोलन का एक रूप दिया।


यहाँ विनोबा ने भूदान में 'दान' शब्द का प्रयोग किया है, लेकिन उस शब्द का रुदार्थ उनके मन में बिलकुल नहीं था। वे गरीबों का हक जताते हुए जमीन मागते थे। उनका कहना था कि जैसे हर एक को हवा चाहिए,पानी चाहिए, वैसे ही जमीन चाहिए क्योंकि जमीन भी जिंदा रहने का आधार है।"


भूदान के लिए विनोबा 'यज्ञ' शब्द का भी प्रयोग करते है। शब्द के आशय को स्पष्ट करते हुए बा कहते हैं कि जिस काम में सब लोगों का सहयोग प्राप्त होता है, उसी को यह कहते हैं। जब देश पर कोई संकट आता है तो यज्ञ किया जाता है। अपने देश पर आज संकट मौजूद है। मजदूर और मालिक का भेद है, करोड़ों लोगों के पास कोई साधन नहीं है, हरिजन और दूसरों में हुआछूत पड़ी है। अनेक धर्म भेद के झगड़े भी मौजूद है। ऐसी हालत में देश को बचाने के लिए जब कोई यज्ञ शुरू होता है, तो अगर उसे कोई अकेला ही करेगा तो उससे कुछ नहीं होगा।



इसलिए जब कोई सार्वजनिक यज्ञ किया जाता है तो इसमें हर एक को भाग लेना पड़ता है। इस भूमिदान यज्ञ में भी हर एक को दान देना चाहिए।


एक अन्य जगह भूदान यज्ञ को स्पष्ट करते हुए विनोबा कहते हैं कि वाणी का उपयोग गाँव में एकता स्थापित करने में, एक-दूसरे के दिल जोड़ने में अज्ञानी को ज्ञान देने में बच्चे को पढ़ने में किया जाए इसका नाम है भूदान यज्ञा हाथ का उपयोग परिश्रम में पड़ोसी की मदत करने में गाँव की भलाई करने में, जिनकी जरूरत है उनको हाथों से भर-भरकर देने में करें, इसका नाम है भूदान यशा कान का उपयोग सर्वोदय की बात सुनने में, ग्राम चर्चा में अपना ज्ञान और दूसरों का ज्ञान बढ़ाने में करें, इसका नाम है भूदान यज्ञ हम सब लोग पढ़ना लिखना सीखे, इसका नाम है भूदान यज्ञा गाँव में झगड़े न हो और कुछ मूरखों में झगड़े हो तो उसका फैसला गाँव के वजन करें, इसका नाम है भूदान यज्ञ। इस प्रकार गाँव को परिवार समझा जाय इसका नाम है भूदान


भूदान आंदोलन कोई पूर्वनिर्धारित, सुनियोजित परियोजना बद्ध कार्यक्रम नहीं था बल्कि काम के साथ विचार बढ़ता गया। इसकी शुरुआत आंदरपरदेश के पोचमपल्ली गाँव से हुई और देखते ही देखते सम्पूर्ण भारत में एक हलचल पैदा कर दी। भूदान का लोगों ने दिल खोलकर स्वागत किया। पहले साल में हो 1,00,000 (एक लाख एकड़ जमीन भूदान के लिए प्रापत्र हो गई।


यहाँ इस बात को समझ लेना आवश्यक है कि भूदान के माध्यम से सिर्फ जमीन बटोरना या गरीबों को जमीन देना, इतना ही बिनाया का मकसद नहीं था। वे चाहते थे कि जमीन मालिक विचार को समझकर, प्रेमपूर्वक जमीन दान दें। उनको (विनोबा को) जब कभी शंका आयी कि दान में राजस या तमस भाव है, वहाँ उन्होंने दान नहीं लिया। सात्विक दान, विचारपूर्वक दिया हुआ दान ही उन्हें अभीष्ट था। उकना कहना था कि हमारे तीन सूत्र है:


1. हमारा विचार समझने पर अगर कोई नहीं देता, तो उससे हम दुखी नहीं होते क्योंकि हम मानते हैं कि जो आज नहीं देता वह कल देगा, विचार बीज उगे बगैर नहीं रहता। 


2. हमारा विचार समझकर अगर कोई देता है, तो उससे हमें आनंद होता है क्योंकि उससे सब और सदभावना पैदा होती है और 


3. हमारा विचार समझे बगैर किसी दबाव के कारण कोई देगा तो उससे हमें दुख होगा। हमें किसी तरह जमीन चटारना नहीं है, बल्कि साम्ययोग और सर्वोदय की वृत्ति निर्माण करनी है।


इस प्रकार भूदान यज्ञ विनोबा के लिए अलग किस्म की चीज थी। भूमि समस्या का हल विनोवा के लिए भूदान का केवल एक बाय-प्रॉडक्ट एक सहज प्राप्त परिणाम और प्रार्थमिक परिणाम था। इससे दुनिया को नया रास्ता मिल रहा है, अहिंसा को विकसित करने की कुंजी हाथ लगी है, यह बात विनोबा के लिए ज्यादा • महत्वपूर्ण थी। भूदान-ग्रामदान के रहस्य को समझते हुए विनोबा ने लिखा है कि जो लोग भूदान-ग्रामदान की तरफ भूमि समस्या के हल की दृष्टि से देखते हैं, वे उसकी महिमा ही नहीं जानते। उन्हें लगता है यह भूमि समस्या के निराकरन के लिए है। लेकिन वह तो एक भरीक मात्र है हम मूर्ति को गणेश मूर्ति बनाते हैं, उसमे मिट्टी प्रतीक होता है और गणेश अधिष्ठात्री देवता होता है। भूमि समस्या एक प्रतीक है और हमें अमूर्त की सेवा करनी है। यह धर्म-संस्थापना का कार्य चल रहा है। अभी तक धर्म स्थापना के अनेक प्रयोग हुए लेकिन उनसे धरण-संस्थापना हो नहीं आयी।"


विनोचा भूदान द्वारा समग्र परिवर्तन चाहते थे। उन्होंने एक जगह लिखा है आखिर यह सब मैं ही क्यों कर रहा हूँ? मेरा उद्देश्य क्या है? स्पष्ट है की में परिवर्तना चाहता हूँ। प्रथम हृदय परिवर्तन, फिर जीवन परिवर्तन और बाद में समाज रचना में परिवर्तन लाना चाहता हूँ। इस तरह का त्रिविध परिवर्तन, तिहरा इकलाब मेरे मन में है।


यही कारण है की विनोबा भूदान यज्ञ को एक किस्म का सत्याग्रह ही मानते थे। सत्याग्रह में कष्ट-सहनकर, नैतिक शक्ति से, नैतिक दबाव से प्रतिपक्षी की हृदय ग्रंथिया खोली जाती है, उसे सोचने के लिए मजबूर किया जाता । सल्या ग्रहण के लिए उसे समक्ष बनाया जाता है जिससे उसके साथ संयुक्त रूप से सत्या की खोज की जा सके विनोबा के शब्दों में हम समझते हैं की भूदान यज्ञ का कार्य एक अर्थ में सत्याग्रह ही है। हम लगातार जाड़े में बारिश में और गर्मी में, हर हलम में घूमते है। निरंतर लोगों को समझते रहते हैं। दरिद्र लोगों से भी दान लेते हैं। क्यों? क्योंकि हम सत्याग्रह की ताकत खड़ी करना चाहते हैं। जब छोटे लोग देंगे, तभी वह सिद्ध होगा की मालिकी गलत है। फिर बड़े लोगों पर नैतिक दबाव आयेगा और फिर उनके हृदय में प्रवेश होगा। नैतिक दबाब सत्याग्रह का हो एक अंग है। जब हजारों गरीब दान देते हैं, तो वह भी एक किस्म का सत्याग्रह ही होता है। सत्याग्रह यानि सत्य पर चलना उसमे शक्ति पैदा होती है जो असल्य पर चलते हैं, उनपर उसका परिणाम होता है।



अभी भूदान अपनी शैश अवस्था में ही था कि एक अद्धभूत पटना पटी। उत्तर प्रदेश के मंगरोह गाँव के सभी जमीन मालिकों ने अपनी जमीन भूदान यज्ञ में समर्पित कर दी और देश का पहला ग्रामदान बनाने का गौरव अर्जित किया। इस तरह भूदान अपनी स्थिति को मजबूत किए ही दूसरे चरण, ग्रामदान में प्रवेश कर गया।


भूदान कि तरह ग्रामदान भी कोई पूर्वनिर्धारित सुनियोजित एवं परियोजनबद्ध कार्यक्रम नहीं था। ग्रामदान का अर्थ था- गाँव के जमीन मालिकों द्वारा अपनी सब जमीन का दान और फिर उसका सम-वितरण ग्रामदान के अर्थ को स्पष्ट करते हुए विनीया कहते है कि ग्रामदान का विकसित अर्थ है कि जिसके पास जो हो, वह उसे ग्राम को समर्पित करें। नहीं तो यह होगा की कुछ लोगों का धर्म देने का है और कुछ का धर्म लेने का। ऐसा नहीं हो सकता। धर्म वही है, जो सबको लागू होता है ग्रामदान का विचार इस तरह परिपूर्ण है।"


यहाँ यह बात गौर करने की है कि ग्रामदान का अर्थ गाँव का दान नहीं गाँव के लिए दान है।


भूदान के शुरुआती काल में विनोचा कहते थे हमारे गाँव में भूमिहीन कोई नहीं रहेगा। ग्रामदान के समय


विनोबा कहने लगे- "हमारे गाँव में भूमि मालिक कोई नहीं रहेगा।"


ग्रामदान के माध्यम से विनोबा को ग्राम स्वराज का एक रास्ता मिला। इसमें उन्हें ट्रष्टशिपि का वास्तविक स्वरूप दिखा, इसलिए विनोबा ने ग्रामदान की पुरजोर मांग की तथा सभी जमीन मालिकों को अपनी सारी मिलकीयत दान करने को कहा। इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण घटना तब घटी जब 1954 के बौद्धगया सम्मेलन में जयप्रकाश ने ग्रामदान के लिए जीवन दान देने की बात की।


वपि ग्रामदान की कल्पना उकृष्टमय थी। लेकिन वह लोगों से शायद बहुत ज्यादा मांगती थी। गाँव की जमीन बेची नहीं जा सकती थी. न रेहन राखी जा सकती थी। इससे शादी-ब्याह आदि मौकों पर कर्ज मिलने में दिक्कत आती थी। यही कारण था कि ग्रामदान की सकल्पना अपना व्यापक आधार तैयार नहीं कर सकी। यहाँ एक बात और गौतलब है कि जमीन मालिकों के संस्कार में दान का भाव था लेकिन समानता का भाव संस्कार में नहीं था। मिल्कियत का जो एक भाव मन में होता है वह इस बात की इजाजत नहीं देता कि सामने वाले को भी समान ओहदा प्राप्त हो जाए वह भी एक कारण था की ग्रामदान को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। इसलिए ऐसे रास्ते की तलाश की गई जो प्रामदान और वास्तविक स्थिति के बीच में एक मध्यम मार्ग का कार्य कर सके और इसी क्रम में यह आदोलन अपने तीसरे चरण में 'सुलभ ग्रामदान' का रूप धरण किया।


सुलभ ग्रामदान की निम्न विशेषताएँ थी.


1. जमीन के मालिक अपने जमीन का 20 वो हिस्सा गाँव के भूमिहीनों को दान में देगा।


2. जमीन की मालिकी ग्राम सभा की थी।


3. ग्राम सभा के अनुमति के बिना न तो अमीन बेची आएगाई और न ही रेहन राखी जाएगी। 


4. गाँव के विकास के लिए एक ग्राम कोश बनेगा। ग्राम कोश के लिए किसान उपज में प्रतिमान एक सेर अनाज और दूसरे उद्योग-धंधे तथा नौकरी नजदूरी आदि में लगे लोग आप का 30 वन हिस्सा प्रतिवर्ष प्रदान करेंगे।


5. ग्राम सभा में सभी वयस्क लोग सम्मिलित होंगे। यह अपना काम सर्वसम्मति से करेगी।


6. ग्रामदान-पोषणा पत्र पर गाँव के 75% भूस्वामी का हस्ताक्षर हो। 


7. गांव की कुल भूमि का 51% भी अगर दान मिल जाता है तो उसे सुरम ग्रामदान मान लिया जाएगा।


 8. सुलभ ग्रामदान के लिए आवश्यक था कि गांव के कुछ परिवारों में से 751 परिवार ग्रामदान में शामिल हो।


सुलभ ग्रामदान के अविवि से कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ा। कई लोगों ने इसे समझौता माना। लेकिन विनोबा के लिए यह समझौता नहीं था, यह एक सोची समझी राजनीति थी। विनोबा के अनुसार जो प्रक्रिया कुछ लोगों के साथ जाकर कुछ समय बाद कुंठित हो जाती है, यह क्रांति की प्रक्रिया है या जो प्रक्रिया करोड़ों लोगों तक फेल सकती है, वह क्रांति की प्रक्रिया है। हमे समझना चाहिए कि जिस प्रक्रिया में फैलाने की अधिक शक्ति भरी है, वह क्रांति की दृष्टि से अधिक ग्राह्य प्रक्रिया है।


लेकिन इसके बावजूद भूदान-ग्रामदान-सुलभ ग्रामदान के मार्ग में कई कठिनाइयाँ थी जैसे- विनोबा के प्रभाव में आकार लोग संकल्प पत्र भर देते थे, लेकिन कानूनी कार्यवाही से समय मुकर आते थे। यदि कानूनी कार्यवाही के समय भी हामी भर देते थे तो वास्तविक कब्जे के दौरान अपने वायदे से पीछे हट जाते थे। कभी कभी तो यह प्रक्रिया हिंसक रूप धरण कर लेती थी। जैसे बिहार के मुरहरी गाँव में हुआ नक्सलवादी में आंदोलन ।


इस तरह एक बहुत अच्छी संकल्पना मंजिल पाये बगैर ही डेम तोड़ने लगी। 1974 तक आते-आते यह आंदोलन शिक्षित हो गया तथा इसे भाग्य के भरोसे छोड़ दिया गया।



आंदोलन के परिणाम


विनोबा कहते थे कि मेरे लिए यह आंदोलन भी एक सत्याग्रह है जिसका उद्देश्य समाज में करुणा की भावना का संचार करना तथा उसके मध्यम से वास्तविक स्वराज की स्थापना करना था। इसमें राजनीति की जगह लोकनीति, असमानता की जगह समानता, अन्य के जगह न्याय शामिल करने की बात है। बिनोवा का मानना था कि ज्या ज्या वह आंदोलन आगे बढ़ेगा त्यों-त्यों लोगों में इन भावनाओं का संचार होगा। इस प्रकार विनोबा भूदान-ग्रामदान-सुलभ ग्रामदान आंदोलन के मध्यम से प्रामोद्योग फरक, अहिंसात्मक समाज की स्थापना करना चाहते थे। यह उद्देश्य पूरा हुआ की नहीं, यह आंदोलन किस हद तक सफल हुआ। इन कारणों की जांच जरूरी है।


सफल किस हद तक


इस आंदोलन ने बहुत सी सफलताएँ प्राप्त की है।


1. इस आंदोलन के बहुत से लोगों के मन को बदला। 


2. इस आंदोलन के मध्यम से बहुत सी जमीने प्राप्त हुई जो किसी भी सरकारी प्रयत्न की तुलना में काफी है।


 3. इस आंदोलन में कुल 49 लाख एकड़ दान में प्राप्त हुई। इसमें 42 लाख एकड़ पर कब्जा हो सका।


जिसमें 15 लाख एकड़ भूमि भूमिहीनों को बांटी गयी।


4. ग्राम स्वराज की दिशा में इस आंदोलन में बहुत ही सराहनीय प्रयास किए गए।


भूदान ग्रामदान आंदोलन कितना सफल हुआ यह दिशा में दो महत्वपूर्ण शोध हुए हैं। एक जवाहरलाल नेहरू विचवविद्यालय, नई दिल्ली के प्रो. टी.के. उनैन ने राजस्थान को कम स्टडी बनाकर अध्ययन किया है। तथा दूसरा अनुग्रह नारायण संस्थान, पटना के प्रो. एच, प्रसाद ने मुशहरी के संबंध में शोध कर इस बात का पता लगाने का प्रयास किया है कि यह आंदोलन कि हद तक सफल रहा।


प्रो. टी. के उनैन ने जो शोध किया है उसके लिए उन्होंने कुछ संकेतकों (indicators) का चुनाव किया है।


यह संकेतक व्यक्तिनिष्ट (subjective) न होकर वस्तुनिष्ट (objective) संकेतक है। जैसे इस आंदोलन के कारण आर्थिक संबंधों में परिवर्तन हुआ अथवा नहीं।


1. इससे शासन और राजनीति के सम्बन्धों में परिवर्तन हुआ अथवा नहीं।


2. इसके द्वारा स्थानीय नेतृत्व की गुणवत्ता बदली अथवा नहीं।


3. इस आंदोलन ने अहिंसात्मक समाज रचना के लिए लोगों की मानवीयता बदली अथवा नहीं।


इस अध्ययन के लिए उनैन ने राजस्थान के 4 ग्रामदानों एवं 3 गैर-ग्रामदानी गाँव का चयन किया। उनके निष्कर्ष निम्न थे


1. आर्थिक सम्बन्धों में परिवर्तन को लेकर उनैन ने अपने शोध के दौरान पाया कि भूमि को लेकर मिलकीयत की अवधारणा ए कोई परिवर्तन नहीं आया है। प्रो. उनैन के अपने आध्यान के दौरान यह भी पाया कि ग्रामदानी गाँव में भूमि का वितरण समान नहीं हुआ है। इसके अतिरिक्त दान में मिली अधिकांश भूमि घटिया किस्म की थी था विवादास्पद थी।


इस प्रकार उनैन का निष्कर्ष या क्रि.


1. ग्रामदानी गाँव में भी व्यक्तिगत मिलकीयत का भाव मिटा नहीं


2. समूहिक मिलकीयत का भाव क्रियान्वित नहीं हुआ 3. कृषि संबदों के सामती ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं हुआ इस तरह आर्थिक परिवर्तन की दृष्टि से यह आंदोलन असफल रहा।


2. शासन और राजनीति के सम्बन्धों में परिवर्तन को लेकर प्रो. उनैन ने अपने शोध के दौरान यह भी पाया कि participatory democracy का चलन नहीं हुआ है तथा ग्रामदानी गाँव में अब भी निर्णय प्रक्रिया में अल्पवर्ग का ही प्रभुत्व कायम है। इस प्रकार शक्ति या केन्द्रीकरण यहाँ भी हुआ है। विनोबा भूदान ग्रामदान के मध्यम से जो परिवर्तन लाना चाहते थे यानि राजनीति की जगह लोकनीति वैसा संभव नहीं हो सका। इस प्रकार उनैन का यह निष्कर्ष था कि शासन और राजनीति के सम्बन्धों में परिवर्तन को लेकर भी यह आंदोलन असफल रहा।


3. स्थानीय नेतृत्व की गुणवत्ता को लेकर प्रो. उनैन के अध्ययन का तीसरा आधार यह था कि इस आंदोलन ने स्थानीय नेतृत्व की गुणवत्ता में परिवर्तन किया है अथवा नहीं। अपने शोध के दौरान प्रो. उनैन ने पाया कि इस क्षेत्र में मिश्रित सफलता हाथ लगी है। गुणात्मक चारित्रिक श्रेष्ठता) दृष्टि से ग्रामदानी गाँव के लोगों में सामान्य गाँव की अपेक्षा चारित्रिक श्रेष्ठता पायी गयी। लेकिन इन नेताओं का दृष्टिकोण बहुत परंपरागत था और वे लोग कुछ भी नया करने के पक्षधर नहीं थे। इस प्रकार स्थानीय नेतृत्व यथास्थिति का पोषक था एवं उनैन का यह निष्कर्ष था कि स्थानीय नेतृत्व में जो क्रांतिकारी परिवर्तन की आशा थी उस दृष्टिकोन से भी यह आंदोलन असफल रहा।


4. मूल्य चेतना में परिवर्तन को लेकर प्रो. उनन ने मूल्य चेतना में परिवर्तन को तान स्तरों पर बांटा है। -


1 सैद्धान्तिक परिवर्तन 


2. प्रवृत्तिगत परिवर्तन 


3. व्यावहारिक परिवर्तन


अपने शोध के दौरान प्रो. उनैन ने पाया कि ग्रामदानी गाँव में व्यावहारिक परिवर्तन मूल्य चेतना को लेकर कम दिखता है लेकिन सैद्धान्तिक एवं प्रवृत्तिगत परिवर्तन स्पष्ट दिखते हैं जैसे -


अ. जाति प्रथा गैर ग्रामदानी गांव के 36.44% लोग जाति प्रथा को खराब मानते है। जबकि ग्रामदानी गांव के 61.84% जाति प्रथा को बुरा मानते हैं। इस प्रकार जाति को लेकर प्रवृत्तिगत परिवर्तन दिखते हैं इसी तरह आ. व्यक्ति की हैसियत जन्म के आधार पर या दूसरे आधार पर इस विषय में भी ग्रामदानी लोग ज्यादा अच्छे दिखते हैं। गैर ग्रामदानी लोग जन्म को व्यक्ति की हैसियत का आधार मानते हैं जबकि ग्रामदानी लोग क्रम को हैसियत का आधार मानते हैं।


इस प्रकार प्रो. उजैन का यह निष्कर्ष है कि ग्रामदानी लोगों में मूल्य चेतना में परिवर्तन दिखाता है एवं इस आधार पर यह आंदोलन सफल रहा है।


प्रो. उनैन के अतिरिक्त के एवं प्रसाद ने भी मुशहरी के संबंध में शोध किया है उनके निष्कर्ष निम्नलिखित है


1. शक्ति संतुलन मुख्यत अल्पसंख्यक वर्ग की और की झुका रहा 


2. इससे सिर्फ मालिक हो और मजबूत हुए क्योंकि कमजोर वर्ग के मन में यह बात पर कर गई कि मेरी स्थिति में परिवर्तन सिर्फ मालिकों की कृपा से ही हो सकता है इस प्रकार मालिक मुक्तिदाता माने जाने लगे।


इस प्रकार प्रो. उनैन एवं एच. प्रसाद के शोधों के आधार पर हम कह सकते हैं कि कि भूदान-ग्रामदान आंदोलन अपने तत्कालीन लक्ष्य में असफल रहा। विचार के स्तर पर यह कितना भी सुगठित एवं सफल दिखता हो, वह आंदोलन अपने तत्कालिक उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सका इसलिए अब हम इस बात पर चर्चा करें कि आखिर क्यों यह आंदोलन सफल हो गया।


असफलता के कारण


गणेशमंत्री ने कहा है कि किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए और अनिवार्यता का मेल होना चाहिए। अर्थात किसी वास्तविक व्येव का होना एवं परिस्थितिगत अनिवार्यता किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए अनिवार्य तत्व मान जाते है। विनावा के आंदोलन में इसकी कमा दिखता है वैचारिक दृष्टि से यह आदोलन सही था किंतु परिस्थितिगत अनिवार्यता का तत्व इसमें समाहित नहीं था। इसका प्रमाण यह है कि भूवान-ग्रामदान के लिए जो अब (तरीक) अपनाए गये, वह पर्याप्त नहीं थे लोकशिक्षण, हृदय परिवर्तन, प्रेम करुणा आदि के अलावा और कोई उपाय इसमें नहीं अपनाए गये। जैसा कि लोहिया ने कहा कि साम्यवाद घृणा का सिद्धांत है किन्तु सर्वोदय प्रेम का अपर्याप्त सिद्धांत है। किसी भी आंदोलन में प्रेम और सात्विक रोष का मेल होना चाहिए। भदान ग्रामदान आंदोलन में इसका अभाव था इसलिए यह आंदोलन असफल हो गया।


बसंत नालवोकर का कहना है कि इस आंदोलन में प्रत्यक्ष क्रिया के लिए कोई स्थान नहीं था। इसमें देने वाले को उच्चतर भूमि पर पहुंचा दिया जाता था जबकि लेने वाले में ही भाव आ जाता था क्योंकि कि इसमें पाने वाले के आत्मा सम्मान का स्थान नहीं था तथा सब कुछ मालिक की कृपा पर दिखाता था। इस कारण यह आंदोलन असफल हो गया।


इस आंदोलन की असफलता का एक कारण यह भी है कि सैद्धान्तिक रूप से क्योंकि यह सिर्फ समझाने बुझाने पर आधारित था इसलिए वे सामाजिक संबंध नहीं बन सके जो बनाने चाहिए थे। खुद विनोबा स्वीकार करते हैं कि में यह समझता था कि भूदान ग्रामदान से सभी प्रकार के भेद समाप्त हो जाएंगे लेकिन इन भेड़ों ने ही ग्रामदान- भूदान को तोड़ दिया।' एक और कारण जो इस आंदोलन की असफलता के लिए माना जाता है वह यह है कि इसने शासन (सरकार) का सहयोग प्राप्त किया। ऐसा कदपी संभव नहीं है कि एक तरफ शासन के साथ सहकार किया जाए तथा दूसरी और नीतियों का विरोध किया जाए। कहा भी गया है कि कोई भी क्रांति शासन के कंधों पर चढ़कर नहीं लड़ी जा सकती। इसका यह कारण है कि शासन का चरित्र दोहरा होता है। वह किसी का भी सहायो अपने फायदे के लिए करता है। और ऐसे में जनता में बहुत ही गलत संदेश जाता है। विनोबा ने भी बाद में स्वीकार किया कि हमने भोलेपन में राज्य पर विश्वास कर लिया कि लोकतान्त्रिक राज्य को स्वयं से भी जन का अनुकरण करना पड़ेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ।


भूदान-ग्रामदान आंदोलन की असफलता का एक कारण यह भी था कि इसका कानूनी पक्ष काफी कमजोर था। राज्य द्वारा बनाए गए कानून अपर्याप्त थे। ग्रामदान कानून कुछ राज्यों में बने लेकिन वे तब बने जब ग्रामदान आंदोलन उतार पर था। वे कानून खुले दिल से गावों को स्वशासन देना जरूरी मानकर समझ बूझकर नहीं बनाए गये थे। इसलिए उनका उतना फाइदा नहीं उठाया जा सका। हाय कोर्ट के पूर्वी मुख्य न्यायाधीश गजेन्द्र गडकर ने भी कहा कि इस आंदोलन ने बहुत अच्छा वातावरण बना दिया है लेकिन राज्य को जो करना चाहिए था उसने वह नहीं किया।


भूदान-ग्रामदान आंदोलन की असफलता का एक कारण यह भी था कि इसको कोई पृष्टपोषण (बैंकिंग) नहीं मिला। किसी आंदोलन को चलाने के लिए शिक्षण, प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है वह नहीं की गयी। स्वयं कार्यकर्ताओं का पैसा प्रशिक्षण नहीं हुआ था। यह कहना गलत होगा कि कार्यकर्ताओं में निष्ठा का अभाव था। अभाव स्वयं विचार करने का था। वह बौद्धिक तैयारी नहीं भी थी।


एक और कारण जो इसकी असफलता का गिनाया जाता है कि इस आंदोलन ने वैकल्पिक विकास की कोई स्पष्ट अवधारणा प्रस्तुत नहीं की। मसलन इस आंदोलन ने केन्द्रीकरण, औद्योगीकरण का विरोध किया, लेकिन इसके विकल्प में क्या करना है इसपर पर्याप्त विचार नहीं किया।


ग्रामदान आंदोलन ने शहरों की उपेक्षा की यह भी एक कमी मानी गयी। अन्नसहब सहस्त्रबुदे ने कहा कि ग्रामदान आंदोलन समस्त ग्रामों के लिए था। नगर इसकी परिधि के बाहर थे किसी क्रांति में सार्वत्रिक प्रभावकारिता होनी चाहिए। अतः ग्रामदान स्वभावतः एक एकांकी आंदोलन रहा। मैं दुदता पूर्वक कहूँगा कि यदि हर गाँव ग्रामदान की घोषणा कर दे तो भी भूमिक्रांति कामयाब न होगी। यह आंकलन सही है क्योंकि भारत गवों में बसता है। एक romantic आग्रह है। आज केंद्र शहर हो गये है। इसलिए शहरों की उपेक्षा ठीक नहीं थी। कोई भी आंदोलन समाज के सभी अंगों को छूए बिना सफल हो ही नहीं सकता। भूदान-ग्रामदान ने ऐसा नहीं किया इसलिए यह असफल हो गया।


प्रसार माध्यमों (मोडिया) ने इस आंदोलन की अनदेखी की यह भी असफलता का एक कारण माना गया। दरअसल, प्रसार माध्यमों के लिए समाचार मूल्य उसी का होता है, भड़कीला हो, सनसनीखेज हो। चूंकि भूदान-ग्रामदान की शांत क्रांति में वैसा कुछ नहीं था इसलिए मीडिया ने इसकी उपेक्षा की।


इसके अतिरिक्त यह आंदोलन बुद्धिजीवियों के भी उपेक्षा का शिकार बना। बुद्धिजीवियों की अनास्था के पीछे कई कारण थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा आधुनिक सभ्यता के मूल्यों में हुई थी और उस सभ्यता में उनका निहित स्वार्थ भी था। ग्रामदान उनके स्वार्थों के प्रतिकूल था, इसलिए बुद्धिजीवियों ने इसकी उपेक्षा की।


इस आंदोलन की असफलता का एक प्रमुख कारण इसका संगठनात्मक कमजोरी है। विनोबा असामान्य प्रतिभाशाली पुरुष के विचार दे सकते थे, प्रेरणा दे सकते थे, लेकिन वे मूलतः आध्यात्मिक दृष्टि के थे।


संगठन करने की उनकी शक्ति नहीं थी। सच्चितनद सिन्हा ने सही कहा है कि विनोबा एक मार्क्स है, जिनहे भारतीय संदर्भ में एक लेलान की जरूरत है। विनोबा के पास कार्यकर्ताओं की कमी नहीं थी, कमी थी तो संगठनकर्ता की जयप्रकाश जी में 'लोकनायक' बनाने की समता थी, लोकसंगठक बनाने की नहीं। इस तरह कोई भी नेता नहीं था जो कि अपने डैम पर ठोस संगठन तैयार कर सके।


भूदान-ग्रामदान आंदोलन की असफलता का एक कारण वह भी था कि बौद्धिक स्तर पर अन्य विरोधी विचारों को कोई चुनौती नहीं मिली। एक तरफ सामंतवादी परंपरा थी, तो दूसरी तरफ आधुनिक सभ्यता का आक्रमण था, जिसके पिचचे अंतरराष्ट्रीय पूंजी थी। एक तरफ मार्कस्वाद था तो दूसरी तरफ social democratic (सामाजिक जनतंत्र इन सब विचारों कि इस आंदोलन के मार्फत से कोई ठोस जवाब नहीं दिया गया।


अंत में यह सवाल उठता है कि सफलता विफलता की क्या कसौटी होनी चाहिए। सर्व नारायण दास कहते है कि किसी क्रांतिकारी विचार और कार्यक्रम की सफलता विफलता की पहचान इन बातों से होती है।


1. क्या मानव समाज को नवीन और उदांत ध्येय प्राप्त हुआ? 


2. क्या उस ध्येय की प्राप्ति के लिए मार्ग भी मिला ?


3. क्या वह मार्ग उत्तरोतर सुगम और प्रशस्त होता गया 


4. क्या ध्येय कुछ करीब भी आया है


उनका कहना है कि भूदान यज्ञ के संदर्भ में इन चारों का उत्तर 'हो' में मिलता है। अतः विचार रूप में यह आंदोलन पूर्णत सफल रहा, परिणाम कम या ज्यादा हो सकते हैं क्योंकि विचार कभी फेल नहीं होते हैं। वैसे परिणाम से भी रही किसी चीज का मूल्यांकन करना गलत होगा। मुख्य कसौटी यह चीज होनी चाहिए कि काम उचित है या अनुचिता अगर काम उचित है, तो वह अपने आप में मूल्यवान है।

इसलिए निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि ऊपर से भले ही यह दिखाता हो कि भूदान-ग्रामदान आदोलन असफल हो गया क्योंकि इसे अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हुए लेकिन गहराई से विचार करें तो पाएंगे कि यह आदोलन असफल नहीं हुआ, बरन पूरे सफल माने जाएंगे। इसकी अमृतपूर्व ऐतिहासिक सफलता इस बात में है कि इसने अहिंसक क्रांति को राष्ट्र की दहलीज तक ला पहुंचाया और बिना संघर्ष वा टकराव की राह गये ही क्रांति आ सकती है, यह दिखला दिया। यह अलग बात है कि इस क्रांति के स्वागत की तैयारी न तो राष्ट्रनेताओं ने की, न तो बुद्धिमान माने जानेवाले वर्ग की और न कुल मिलकर देश की जनता की ही। आज जो दृश्य प्रस्तुत है वे उस क्रांतिदेवी की दहलीज पर से वापस लौट जाने के ही परिणाम है।


महात्मा गांधी के दर्शन एवं उनके विचारों को नयी ऊंचाई तक पहुंचाने की दिशा में उल्लेखनीय योगदान देने वाले विनोबा भावे उन सामाजिक विचारकों में थे जिन्होंने राष्ट्रपिता के विकास के मादल पर काम किया और भूदान आंदोलन के जरिए जमीन के पुनर्वितरण के लिए एक नयी दिशा दिखायी विनोबा ने अपने आंदोलन को सफल बनाने के लिए पूरे भारत का पैदल ही भ्रमण किया। भूदान आन्दोलन आचार्य विनोबा भावे द्वारा सन् 1951 में आरम्भ किया गया स्वैच्छिक भूमि सुधार आन्दोलन था। विनोबा भावे की कोशिश थी कि भूमि का पुनर्वितरण सिर्फ सरकारी कानूनों के जरिए नहीं हो, बल्कि एक आंदोलन के माध्यम से इसकी सफल कोशिश की जाए 20वीं सदी के पचासवें दशक में भूदान आंदोलन को सफल बनाने के लिए विनोबा भावे ने गांधीवादी विचारों पर चलते हुए रचनात्मक कार्यों और ट्रस्टीशिप जैसे विचारों को प्रयोग में लाया। उन्होंने सर्वोदय समाज की स्थापना की। यह रचनात्मक कार्यकर्ताओं का अखिल भारतीय संघ था। इसका उद्देश्य अहिंसात्मक तरीके से देश में सामाजिक परिवर्तन लाना था। इस आंदोलन ने ऐसे सामाजिक वातावरण का निर्माण किया जिससे देश में भूमि सुधार गतिविधि की शुरुआत हुई। इस आंदोलन ने बड़ी संख्या में लोगों के जीवन को प्रभावित किया और इसके तहत पूरे देश में करीब लाखों लाख एकड़ भूमि दान में मिली जिसे जरूरतमंद भूमिहीन गरीबों में वितरित कर दिया गया।