सावयवी एकता - organic unity

 सावयवी एकता - organic unity


दुर्खीम की सावयवी एकता का आधार यांत्रिकी एकता के विपरीत है। दुर्खीम के अनुसार सावयवी एकता संविदा गत सुदृढ़ता पर निर्भर करती है। दुर्खीम ने सावयवी एकता को बढ़ते हुए श्रम विभाजन से जुड़ा है। उनका कहना है कि जितना अधिक श्रम विभाजन होगा। उतना ही अधिक सावयवी एकता होगी। सावयवी एकता आधुनिक जटिल विकसित और औद्योगीकृत समाजों में पाई जाती है। ऐसे समाजों में प्रतिकारी कानूनों की प्रधानता होती हैं और ये व्यक्ति को समूह के साथ प्रत्यक्ष रुप से जोड़ते हैं। क्योंकि विभिन्नता एवं विशिष्टता के कारण समूह का प्रत्येक सदस्य दूसरे सदस्यों के कार्यों में लाभ पहुंचाता है। विभिन्नता युक्त आधुनिक समाजों में लोगों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है और विशेषीकरण के कारण हर व्यक्ति केवल एक कार्यकारी विशेषज्ञ नहीं होता है बल्कि दूसरे कार्यों के लिए समाज के अन्य सदस्यों पर भी निर्भर रहना पड़ता है।

समाज के सदस्यों के बीच यह पारस्परिक निर्भरता और विशेषीकरण से उत्पन्न असमानता उन्हें एक दूसरे के निकट लाने के आने के लिए बाध्य करती है। जिससे समाज में एक विशेष प्रकार की एकता स्थापित हो जाती है और इसी एकता को दुर्खीम सावयवी एकता कहते हैं।


इस प्रकार की एकता को दुर्खीम ने सावयवी एकता की संज्ञा इसलिए भी दी है क्योंकि यह एकता प्राणियों के शरीर में पाई जाने वाली एकता से मिलती जुलती है। सावयवी एकता शारीरिक एकता के समान है। जिस तरह से एक मनुष्य के शरीर का निर्माण आंख कान नाक हाथ पैर मुंह पेट आदि विभिन्न अंगों के मिलने से होता है और शरीर के इन सभी अंगों के कार्य विभिन्न होते हैं। यह सभी अंग अपना कार्य भी कर सकते हैं जबकि यह परस्पर जुड़े हो आंख और कान शरीर से अलग होकर अपना कार्य नहीं कर सकते। इस तरह हम यह देखते हैं कि शरीर के विभिन्न अंगों के बीच जो एकता पाई जाती है। वह पारस्परिक निर्भरता के कारण ही उत्पन्न होती है।

ठीक यही स्थिति समाज में व्यक्तियों के साथ होती है। आधुनिक समाज में श्रम विभाजन एवं विशेषीकरण होते हुए भी व्यक्ति एवं व्यक्ति में समूह व्यक्ति एवं समूह में तथा समूह एवं समूह में पारस्परिक संबंध पारस्परिक निर्भरता एवं एकता है और यही सावयवी एकता की स्थिति हैं।


दुखम का कहना है कि परिवार, व्यवसाय, सरकार आदि में जो एकता और संगठन हमें दिखाई देता है वह इन सबसे संबंधित व्यक्तियों में पाई जाने वाली समानताओं के कारण नहीं है। यह एकता ठीक उसी प्रकार की है जो किसी सावयव के विभिन्न अंगों में पाई जाती है। यह विभिन्न अंगों के सहयोग के आधार पर ही उत्पन्न होती हैं। जिससे संपूर्ण सावयव में संतुलन बना रहता है और वह सावयव क्रियाशील रहता है। इसी एकता को दुर्खीम ने सावयवी एकता का नाम दिया है। इसका कारण यह है कि इस एकता की उत्पत्ति किसी सावयव के विभिन्न अंगों के बीच पाए जाने वाले श्रम विभाजन एवं सहयोग से होती है। आधुनिक समाजों में श्रम विभाजन के कारण ही सावयवी एकता पाई जाती है और प्रतिकारी कानून इसी एकता को स्पष्ट करते हैं।

दुर्खीम का यह मानना है कि श्रम विभाजन से उत्पन्न सावयवी सामाजिक एकता ही वास्तव में श्रम विभाजन का प्रकार है।


दुर्खीम के अनुसार सावयवी समाज की अवधारणा उद्विकास का परिणाम है। समाज के विकास के प्रारंभिक वर्षों में बहुत सीमित होती थी और इन आवश्यकताओं की पूर्ति सामान्य श्रम विभाजन के द्वारा हुई हो जाती थी। जैसे-जैसे समाज की आवश्यकता बढ़ी समाज का विभेदीकरण भी बढ़ा और विभेदीकरण के कारण श्रम विभाजन भी विकसित हुआ, इसके साथ जटिलताएं भी बढ़ते हुए विभेदीकरण ने श्रम विभाजन को बढ़ाया। जिसके परिणामस्वरुप सावयवी समाज का उद्भव हुआ।