जेंडर और समाजीकरण - gender and socialization
जेंडर और समाजीकरण - gender and socialization
अब तक जेंडर के बारे में आपकी यह समझ बनी कि यह समाज/संस्कृति सापेक्ष होता है। सापेक्ष होने का तात्पर्य यह है कि किसी समाज/संस्कृति में स्त्री और पुरुष होने के जो मतलब होते हैं, तदनुसार नवजात शिशु का समाजीकरण किया जाता है। समाजीकरण की प्रक्रिया जन्म से शुरू होती है और निरंतर चलती रहती है। लेकिन समाजीकरण शून्य में नहीं होता। इसमें समाज की विभिन्न संरचनाओं की संलग्नता रहती है।
समाजीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत परिवार से होती है। इसमें माता-पिता और घर के बड़े-बुजुर्ग महती भूमिका निभाते हैं। वही शिशु को बताते हैं कि क्या स्त्रियोचित है और क्या पुरुषोचित। ध्यान रहे कि परिवार भी किसी शून्य में अथवा समाज से अलग-थलग नहीं रहता। परिवार की नातेदारी व्यवस्था होती है। उसका वर्ग होता है, धर्म होता है और भारतीय समाज के संदर्भ में, जाति भी होती है।
इसलिए, बच्चे को बड़े होने का पाठ पढ़ाने के क्रम में परिवार को इन सभी सामाजिक संरचनाओं का खयाल रखना होता है। कहने का तात्पर्य यह कि ऐसी बात नहीं है कि माता-पिता या बड़े-बुजुर्ग जैसे चाहें वैसे अपने बच्चे को बड़ा कर लें। उनसे उन प्रत्यक्ष या प्रछन्न कायदों को ध्यान में रख कर बच्चे को स्त्री या पुरुष बनने की राह पर अग्रसर करने की अपेक्षा की जाती है जिन्हें उनकी जाति, धर्म या वर्ग उचित मानता है। हिंदू लड़कियों के समाजीकरण पर अपने लेख में लीला दुबे ने लिखा है:-
जेंडर भूमिकाएँ संबंधों के एक जटिल तंत्र से पैदा होती है। उनका रूप इसी तंत्र में गढ़ा जाता है। और स्त्रियाँ उन्हें यही से सीखती हैं। इस प्रक्रिया को समझने के लिए पारिवारिक संरचना के निहितार्थों को ध्यान में रखना ज़रूरी है। यहाँ यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि पारिवारिक संरचना नातेदारी के वृहत्तर संदर्भ में अंतस्थ रहती है... नातेदारी सामाजिक समूहों में व्यक्तियों के प्रवेश और उनके स्थान, परिवार और घर की रचना, विवाह के बाद आवास के प्रश्न, उत्तराधिकार सहित संसाधनों के वितरण तथा समूह के सदस्यों के कर्तव्य और दायित्वों जैसे मुद्दों को भी निर्धारित करती है... परिवार की संरचना और नातेदारी के पैटर्न जाति की संस्था से जुड़े हैं।
परिवार तो समाजीकरण का प्रथम स्पेस है ही, लेकिन बच्चे के संगी-साथी और स्कूल की भूमिका परिवार से कमतर नहीं है। एक उम्र के बाद बच्चे अपना ज़्यादातर समय संगी-साथियों के साथ बिताते हैं। लड़के अपना समूह बना लेते हैं और लड़कियाँ अपना। उनकी दुनिया अलग-अलग हो जाती है। अपने-अपने समूह में रहते हुए वे स्त्रियोचित और पुरुषोचित आचार-व्यवहार आत्मसात करने लगते हैं। यह सब औपचारिक और अनौपचारिक दोनों ही तरीके से होता है।
स्कूल ऐसी जगह है जहाँ बच्चे अपने बचपन के चौदह साल व्यतीत करते हैं। यह उनके जीवन का सर्वाधिक रचनात्मक समय होता है। ऐसे में बच्चे बड़े होकर क्या और कैसा बनेंगे, इस पर स्कूल के गहरे असर से इंकार नहीं किया जा सकता। किसी भी आधुनिक राष्ट्र में शैक्षणिक संस्था, खासकर प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने वाली स्कूल जैसी संस्था की बुनियाद समानता के भाव पर डाली जाती है। उद्देश्य होता है बच्चों को ऐसी शिक्षा और माहौल मुहैया करना जो उनमें आधुनिक मूल्यों का संचार कर सके। वे परंपरा-पोषित भेदभाव की भावना से मुक्त हो सकें।
लेकिन पाया यह गया है कि न केवल बच्चों के लिए तैयार की गई पाठ्य-पुस्तकें, बल्कि अध्यापकों का व्यवहार भी प्राय: रूढ़िगत आग्रहों से युक्त रहता है। और ऐसा सोचना भी तर्कसंगत नहीं होगा कि लड़के और लड़कियों के बारे में आम समाज में जो रूढ़िगत छवियाँ प्रचलित हैं उनसे अध्यापक मुक्त होंगे। यानि स्कूल भी समाज में व्याप्त मानदंडों के तहत बच्चों को स्त्री और पुरुष के साँचे में ढालने का काम करता है।
उदाहरण के लिए यदि हम धर्म को ही लें तो क्या स्त्रियोचित है और क्या पुरुषोचित, इस पर सभी धर्म एक मत नहीं हैं। हर धर्म में आदर्श स्त्री और आदर्श पुरुष के अपने-अपने मानदंड और छवियाँ हैं। उस धर्म के अनुयायी स्त्रियों और पुरुषों से तदनुसार व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। लगभग सभी धर्म स्त्री की दोयम स्थिति के पक्ष में खड़े दिखलाई देते हैं। जयंती आलम ने अपनी किताब रिलीजन, पैट्रियार्की एंड कैपिटलिज्म' में यह दिखलाने की कोशिश की है कोई भी धर्म ऐसा नहीं जिसने स्त्रियों के आचरण, यौनिकता और आजादी पर बंदिशें न लगा रखी हों।
लीला दुबे के मुताबिक, 'हिंदू अनुष्ठानों और विधि विधानों के जरिए स्त्रियों में एक खास ढंग की सोच और प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जाता है जो अंततः उनके लिए एक जकड़न बन जाती है।
हिंदू धर्म हो या इस्लाम, स्त्री-पुरुष भेदभाव की बुनियाद गर्भधारण के समय ही पड़ जाती है। गर्भवती महिला से यही अपेक्षा की जाती है कि वह बेटे को जन्म दे। बेटा जन्म ले तो जश्न मनाया जाता है, बेटी के जन्म लेने पर मातम सा छा जाता है। लीला दुबे लिखती हैं कि लड़कियों को यह अहसास काफी पहले हो जाता है कि लड़कों को ज़्यादा महत्व दिया जाता है। माता-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची के स्नेह और प्रशंसा के बावजूद तीन या चार साल की छोटी बच्ची के कानों में घर की आया के ये शब्द कभी-न-कभी पड़ ही जाते हैं: 'कितनी प्यारी बच्ची है! अगर यह लड़का होती तो कितना अच्छा होता!' ज़रीना भट्टी ने उत्तर प्रदेश में मुसलमान लड़कियों का समाजीकरण में लिखा है, गर्भवती महिला का जब भी परिचय कराया जाता है तो हमेशा यही कहा जाता है कि उसे बेटा होने वाला है। हिंदू हो या मुसलमान बड़े-बूढ़े शादी शुदा लड़की को पुत्रवती होने का ही आशीर्वाद देते हैं।
ज़रीना भट्टी लिखती हैं, उत्तर प्रदेश में मुसलमान लड़कियों का समाजीकरण तीन मूलभूत धारणाओं के इर्द-गिर्द संपन्न होता है। पहला, स्त्रियाँ पुरुषों के मुक़ाबले प्रत्येक क्षेत्र में कमतर होती हैं। दूसरा, उन पर सांस्कृतिक आदर्शों को ज़िंदा रखने और बच्चों को इन आदर्शों के अनुसार ढालने की ज़िम्मेदारी होती है। तीसरा, घर की इज्जत उन्हीं के हाथों में होती है। यही बातें हिंदू स्त्रियों के साथ भी लागू होती हैं। जाति उनकी स्थिति को और भी पेचीदा बना देती है।
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