भारत में अल्पसंख्यकों की प्रमुख श्रेणियां - Major Categories of Minorities in India

भारत में अल्पसंख्यकों की प्रमुख श्रेणियां - Major Categories of Minorities in India


भारतीय संदर्भ में अल्पसंख्यकों को मूल रूप से तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-


• धार्मिक अल्पसंख्यक


भारत में अनेक धर्मों को मनाने वाले लोग रहते हैं तथा इनमें हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध, जैन, पारसी आदि धर्मों को मानने वाले लोग प्रमुख हैं। हिंदू धर्म बहुसंख्यक समूह से संबंधित है जबकि शेष सभी धर्म अल्पसंख्यक समूह के अंतर्गत आते हैं।


भारत के अल्पसंख्यकों में सर्वाधिक संख्या मुसलमानों की है। एक लंबे समय तक भारत पर मुसलमान शासकों का आधिपत्य रहा है तथा तत्कालीन समय में मुसलमानों के हितों तथा संरक्षण संबंधित समस्याएं नहीं थी। ए परेशानियां ब्रिटिश काल की शासन नीति फूट डालो और राज करो के कारण उत्पन्न हुई।

इस नीति ने हिंदुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे के विरुद्ध लाकर खड़ा कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि आज भारत और पाकिस्तान के रूप में दो राष्ट्र बन गए। हालांकि पाकिस्तान के निर्माण के पश्चात भी मुसलमानों की एक बड़ी संख्या भारत में ही रह गयी। इसके पश्चात स्वतंत्र भारत में जब बहुमत के आधार पर जनप्रतिनिधियों को चयनित किया गया तो यह मुसलमानों के भय का कारण बना। यह भय मुसलमानों के हितों की रक्षा और सुरक्षा को लेकर पैदा हुआ। हालांकि स्वतंत्र भारत में मुसलमानों को समानता, स्वतन्त्रता, न्याय आदि की प्राप्ति के समान ही अधिकार दिए गए।


मुसलमानों की प्रमुख समस्याएं तथा शिकायतें निम्न हैं- 


• विधानमंडलों तथा प्रशासन के प्रतिनिधित्व से असंतुष्टि


• सांप्रदायिक दंगे


• उर्दू भाषा की अस्मिता का प्रश्न


• मुस्लिम पासनाल लॉ के संदर्भ में हस्तक्षेप


भारतीय संदर्भ में धार्मिक अल्पसंख्यकों में मुसलमानों के बाद ईसाइयों का स्थान आता है। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान ईसाइयों ने भारत पर राज किया। भारत में रहने वाले अधिकांश यहीं ने निवासी हैं तथा ईसाई मिशनरियों के प्रभाव से धर्म परिवर्तन के बाद उन्होंने ईसाइयत को अपना लिया। ईसाइयों की संख्या केरल और भारत के दक्षिणी क्षेत्रों में अधिक है। इंका कोई पृथक राजनीतिक दल नहीं होता है तथा ए अपने को राजनैतिक कार्यों में व्यस्त रखने की अपेक्षा सामाजिक, धार्मिक और शैक्षणिक कार्यों में लगाए रखना ज्यादा पसंद करते हैं। ईसाइयत की ओर लोगों को आकर्षित करने तथा धर्म परिवर्तन के एजेंडे के कारण हिंदुओं द्वारा उनको संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। उन्हें विघटनकारी तत्व समझा जाता है। हिंदुओं को अपने धर्म से विमुख करने के लिए करोड़ों रुपए प्रतिवर्ष विदेशों से आने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि मणिपुर, मेघालय, असम, नागालैंड आदि क्षेत्रों में ईसाइयों की संख्या में इजाफा होने लगा।


ईसाइयों के प्रति संदेह का एक कारण यह भी रहा है कि जिन जनजातियों ने ईसाई धर्म को स्वीकार किया है इससे पृथकतावादी आंदोलन पैदा हुआ है

तथा इसके अलावा अन्य हिंदुओं आदि के परिवर्तित होने का डर भी बना हुआ है। अतः यह कहा जा सकता है कि ईसाइयों की वजह से भारतियों में •एकीकरण की समस्या पैदा हुई है।


धार्मिक तौर पर अल्पसंख्यक के रूप में सिक्ख तीसरे स्थान पर आते हैं। स्वतन्त्रता के पश्चात सिक्खों ने अकाली दल द्वारा किए गए आंदोलन के माध्यम से एक अलग पंजाबी क्षेत्र की मांग की। इसके बाद 1967 में पंजाब को हरियाणा तथा पंजाब के रूप में विभाजित कर दिया गया। इस नवगठित पंजाब में सिक्खों की संख्या 61 प्रतिशत थी। सिक्खों का प्रतिनिधित्व केन्द्रीय मंत्रिमंडल, संसद तथा विधानसभा में पर्याप्त है। हालांकि इसके बावजूद अकाली दल ने पृथक खालिस्तान राज्य की मांग की तथा कहा है


कि यदि ऐसा नहीं हुआ तो वे जनआंदोलन का सहारा लेंगे। इन तीनों अल्पसंख्यकों के अलावा बौद्ध, जैन, पारसी अन्य अल्पसंख्यक समुदाय हैं, किन्तु इन समुदायों ने अपेक्षाकृत राजनीतिक दृष्टि से राष्ट्र के लिए किसी गंभीर समस्या को पैदा नहीं किया है।


• भाषायी अल्पसंख्यक


धार्मिक अल्पसंख्यकों की तुलना में भाषायी आप्लसंख्यक भिन्न होते हैं। इसमें विविधता तथा जटिलता भी काफी पायी जाती है। बंगाली भाषा बोलने वाले हिंदू और मुसलमान दोनों मिलेंगे। संविधान के अनुच्छेद 29 तथा 30 में भाषायी अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने की बात कही गयी हैं। भारतीय संविधान में कुल 22 भाषाओं को मान्यता प्रदान किया गया है तथा इनमें से हिन्दी भाषा बोलने वालों की संख्या भारत में सबसे अधिक है। 1991 तथा 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में बोली जा रही प्रमुख भाषाओं की प्रतिशत सूची इस प्रकार से है-


किसी भी भाषा के अनुयायी को उस भाषा, लिपि तथा संस्कृति को संरक्षित करने का पूर्ण अधिकार है। संविधान के अनुच्छेद 347 के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा किसी राज्य के आनुपातिक तौर पर अधिक क्षेत्र द्वारा बोली जाने वाली भाषा को उस राज्य को सरकारी तौर पर भाषा के तौर पर मान्यता देने का निर्देश दिया जा सकता है।

इसके अलावा अनुच्छेद 35 के अनुसार प्रत्येक राज्य को इस बात का खयाल रखना होगा कि अल्पसंख्यकों के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में दिया जाए।


विविध सरकारी प्रावधानों के बाद भी भाषायी अल्पसंख्यकों में पर्याप्त असंतोष की भावना देखने को मिलती है। कई भाषायी अल्पसंख्यकों द्वारा भाषा के आधार पर एक नए राज्य की मांग की गई है। भाषा के आधार पर ही आंध्र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात राज्यों का निर्माण हुआ है। उर्दू भाषी लोगों में भी काफी असंतोष व्याप्त है, उनकी संख्या काफी अधिक है। परंतु समस्या यह है कि वे देश के विभिन्न भागों में फैले हुए हैं। हालांकि, उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त किसी भी राज्य ने उर्दू को सरकारी भाषा का स्थान नहीं दिया है। असम में भाषा के आधार पर आंदोलन हुआ तथा उन्होंने बंगाली भाषियों को उनके राज्य से बाहर निकालने की मांग की। इसी प्रकार के दक्षिण भारत के गैर-हिन्दी भाषी लोगों ने हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने से माना किया है।


• जनजातीय अल्पसंख्यक


वर्तमान समय में भारत की संपूर्ण जनसंख्या में 8 प्रतिशत की सहभागिता जनजातीय समुदायों की है।

जनजातियों को आदिवासी, वनवासी, गिरिजन, वनजाति, पिछड़े हिंदू, अनुसूचितजनजाति आदि नामों से जाना जाता है। इन्हें आदिम अथवा आदिवासी कहने के पीछे यह मान्यता है कि ए भारत के प्राचीन निवासी हैं तथा संभवतः द्रविड़ों के आगमन से पूर्व भी ए लोग भारत में निवास करते थे। वैरियर एल्विन ने भी जनजातियों को आदिम कहकर संबोधित किया है तथा उन्होने बताया कि "आदिवासी भारत की वास्तविक स्वदेशी उपज है, जिनकी उपस्थिति में प्रत्येक व्यक्ति विदेशी है। ए वे प्राचीन लोग हैं जिनके नैतिक अधिकार तथा दावे दोनों ही हजारों साल पुराने हैं, वे ही सबसे पहले यहां आए हैं।" वैरियर एल्विन की ही तरह ठक्कर बापा (इन्हें आदिवासियों का मसीहा कहा जाता है) तथा जयपाल सिंह (भारतीय संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य) ने भी जनजातियों को आदिवासी कहना ज्यादा उचित समझा।


वहीं जी.एस. घूरिए ने इन जनजातियों को पिछड़े हिंदू कहना ज्यादा बेहतर समझा। इसके लिए उन्होंने ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत किया तथा कहा कि अधिकांश जनजातियों द्वारा माने जाना वाला धर्म हिंदू धर्म है। अतः यह सिद्ध होता है कि वे हिंदू समाज के ही अंग हैं।

इनके अलावा कुछविदवानों ने इन्हें जनजातियां कहना ही उचित बताया है। ऐसा इसलिए क्योंकि उनके द्वारा बोली जाने वाली भाषा जनजातीय भाषा की श्रेणी में आती हैं।


भारतीय सरकार द्वारा अनुसूचित जातियों के समान ही इन जनजातियों की भी सूचीबद्ध किया गया है तथा यही कारण है कि इन्हें अनुसूचित जनजातियों के रूप में भी जाना जाता है। भारतीय संविधान में उन वर्गों/समूहों के लिए कुछ विशिष्ट प्रावधानों तथा सुविधाओं की व्यवस्था की जाने की बात कही गयी है. जो सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से पिछड़े हैं। इसी प्रयोजन की सिद्धि हेतु जनजातियों को अधिसूचित किया गया।


प्रायः सभी देशों में धर्म तथा भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक समूहों को चिन्हित किया गया है। धार्मिक, भाषायी तथा जनजातीय अल्पसंख्यकों का मूल प्रयोजन राज्य से कुछ सुविधाओं को प्राप्त करना होता है तथा इन सुविधाओं से वे अपने धर्म, संस्कृति, भाषा को सुरक्षित रख सकने में सक्षम हो सकें। साथ ही वे अपने धर्म, संस्कृति. भाषा का प्रचार-प्रसार कर सकें, ताकि उनकी विशिष्टता बहुसंख्यक समूहों के साथ विलय न हो जाए।