आत्म- प्रत्यक्षीकरण : स्वरूप एवं परिभाषा - Self-Reflection: Form and Definition

आत्म- प्रत्यक्षीकरण : स्वरूप एवं परिभाषा - Self-Reflection: Form and Definition


आत्म- प्रत्यक्षीकरण का शाब्दिक अर्थ है स्वयं को जानना। जिस प्रकार व्यक्ति दूसरों को जानने का प्रयास करता है वहीं स्वयं को भी जानने या समझने का भी प्रयास करता है। व्यक्ति एक ओर दूसरों का मूल्यांकन करता तथा उनके प्रति कोई विशेष समझ बना लेता है, तो दूसरी ओर स्वयं का मूल्यांकन भी करता है तथा स्वयं के बारे में एक विशेष धारणा भी बना लेता है। जब हम दूसरों का प्रत्यक्षीकरण करते हैं या उनके प्रति कोई विचार बनाते हैं या कोई निर्णय करते हैं, तो वह अन्य प्रत्यक्षीकरण कहलाता है। परंतु इसके विपरीत जब हम स्वयं का प्रत्यक्षीकरण करते हैं अथवा किसी निर्णय तक पहुंचते हैं, उसे स्व - प्रत्यक्षीकरण या आत्म-प्रत्यक्षीकरण कहते हैं। व्यक्ति का स्वयं की छवि का निर्माण करना आत्म संप्रत्यय बन जाता है। विलियम जेम्स (1890) ने आत्म संप्रत्यय की परिभाषा देते हुए कहा कि इसमें व्यक्ति का मन एवं शरीर, वस्त्र एवं आवास, पत्नी या पति एवं बच्चे, उसके पूर्वज या मित्र. उसकी ख्याति एवं संपत्ति सम्मिलित होते है। इनमें से किसी एक अवयव से संबंधित अनुभव उसके आत्म संप्रत्यय को प्रभावित करते हैं।

जेम्स के अनुसार आत्म संप्रत्यय व्यक्ति के सामाजिक अंतरक्रियाओं का परिणाम होता है। सिगमंड फ्रायड ने आत्म संप्रत्यय के लिए इगो पद का उपयोग किया और उसने आत्म संप्रत्यय को व्यक्तित्व का एक संगठित भाग माना उनके अनुसार इगो एक मूल्यांकन करने वाला अभी करता है जो बुद्धिमत्ता पूर्ण उन व्यवहार ओ को करता है जो व्यक्ति के आनंद को अधिकतम तथा पीड़ादायक परिस्थिति को कम बनाने में प्रतीत होता है। रोजेनवर्ग (1979) के अनुसार एक वस्तु में आत्म का उल्लेख करने वाले विचारों तथा भावनाओं की समग्रता ही आत्म संप्रत्यय है। वरशेल एवं कूपर (1979) के अनुसार व्यक्ति अपने व्यवहारों का स्वयं निरीक्षण करता है। अर्थात स्व प्रत्यक्षीकरण प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यवहार के कारणों को ढूंढ निकालता है, इसी प्रकार वरोन तथा बिरने ने कहा है कि आत्म प्रत्यक्षीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम अपने भावों, शीलगुणों तथा प्रेरणाओं को स्वयं समझने का प्रयास करते हैं।

मैकडुगल ने कहा है कि जो व्यक्ति अपने को जान लेता है और स्वीकार कर लेता है, वह मानसिक रूप से स्वस्थ बन जाता है। ऐसे व्यक्ति में स्वस्थ सामाजिक समायोजन स्वाभाविक ही है। अर्थात कहा जा सकता है कि स्वस्थ सामाजिक जीवन के लिए स्व प्रत्यक्षीकरण अथवा आत्म प्रत्यक्षीकरण का तटस्थ तथा वस्तुनिष्ठ होना आवश्यक है। केगन (1971) ने स्पष्ट किया है कि लोग अपनी बाल्यावस्था में ही पुलिंग तथा स्त्रीलिंग होने की पहचान बना लेते हैं। बच्चे अपने में उन्हीं गुणों का प्रत्यक्ष करते हैं, जिनकी प्रत्याशा उसकी संस्कृति में लिंग के संबंध में की जाती है। कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि आत्म संप्रत्यय की संरचना एक मनोबंध के रूप में होती है. और उसको आत्म मनोबन्ध कहना अधिक सार्थक है। हेजेल मार्कस (1977) ने आत्म मनोबन्ध को परिभाषित किया। उन्होंने कहा कि विगत अनुभवों के आधार पर किए गए ऐसे संज्ञानात्मक सामान्यीकरण है जो व्यक्ति के सामाजिक अनुभवों में निहित एवं स्वयं से संबंधित सूचनाओं के प्रक्रमण को निदेशित एवं संगठित करता है।