वर्णाश्रमः अर्थ एवं परिभाषाएं - Varnashrama: Meaning and Definitions

वर्णाश्रमः अर्थ एवं परिभाषाएं - Varnashrama: Meaning and Definitions


हिंदू सामाजिक व्यवस्था में वर्णाश्रम की भूमिका प्रमुख है तथा यह लौकिक जीवन से ऊपर उठकर पारलौकिक जीवन को अधिक महत्व प्रदान करता है। वर्णाश्रम दो शब्दों से मिलकर बना है वर्ण तथा आश्रम कर्म के आधार पर चार वर्णों की व्यवस्था की गई है तथा यह सामाजिक व्यवस्था, समृद्धि और सुव्यवस्था बनाए रखने के लिए समाज को कार्यात्मक रूप से कुछ स्तरों में वर्गीकृत करता है। जबकि आश्रम व्यवस्था व्यक्ति के जीवन को चार भागों में बांटने से संबंधित धारणा है जो व्यक्तिगत जीवन की समृद्धि के लिए प्रतिबद्ध है। आश्रम व्यवस्था का महत्व व्यक्तिगत तौर पर उचित है जबकि वर्ण व्यवस्था का महत्व सामाजिक स्वरूपों से संबंधित है। संयुक्त रूप से कहा जाए तो दोनों ही व्यवस्थाएं व्यक्ति तथा समाज के संगठन और समृद्धि के लिए कार्यरत हैं।


वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत समाज को चार भागों में वर्गीकृत किया गया ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। इन वर्णों की रचना मूल रूप से मनुष्य की चार इच्छाओं (ज्ञान, रक्षा, जीविका तथा सेवा) के आधार पर किया गया।

बहुत से लोग वर्ण और जाति को एक समान ही मानकर व्याख्यायित कर देते हैं, परंतु यह पूर्णतः अनुपयुक्त है। वर्ण व्यवस्था समाज को चार भागों में वर्गीकृत करती है, जबकि जाति व्यवस्था का निर्माण हजारों जातियों द्वारा मिलकर होता है। हालांकि वर्तमान समय में एक वर्ण के भीतर अनेक जातियों का निर्माण हो चुका है, किंतु यह पूर्ण रूप से जाति व्यवस्था से पृथक धारणा है।


वर्णों की उत्पत्ति के संदर्भ में ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में विवरण मिलता है। उसके अनुसार ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, वक्ष से क्षत्रिय, उदर से वैश्य तथा पैर से शूद्र का जन्म हुआ। बहरहाल वर्ण' के अर्थ को हम तीन प्रकार से समझते हैं


P. 'वर्ण' शब्द का निर्माण ‘वृ’ धातु से हुआ है तथा इसका अभिप्राय वरण करने अर्थात् चुनने से है।


Q. कुछ विद्वानों के अनुसार वर्ण व्यवस्था विभिन्न वर्णों की प्रजातीय विशेषता को इंगित करती है।


R. एक मत यह है कि वर्ण का संबंध वृत्ति से है। स्पष्ट शब्दों में, जिन व्यक्तियों की मानसिक तथा स्वभाव संबंधी विशेषताएं एक जैसी हैं, वे एक वर्ण से संबंधित व्यक्ति रहते हैं।


प्रत्यक्ष तौर पर यह कहा जा सकता है कि वर्ण व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था है, जो सामाजिक विभाजन का आधार कर्म को मानती है। इस विभाजन के आधार रूप में गुण. प्राथमिक स्वभाव तथा प्रवृत्ति को अधिक महत्व दिया गया है। समाज में संगठन तथा व्यवस्था को निरंतर बनाए रखने के लिए यह अत्यंत आवश्यक था कि सामाजिक कार्यों को कुछ भागों में वर्गीकृत किया जाए। इस प्रकार से समाज में प्रत्येक कार्य को व्यवस्थित रूप से बिना किसी अन्य के हस्तक्षेप के सफलतापूर्वक किया जा सके। इन प्रयोजनों की सिद्धि के लिए समाज को चार बड़े समूहों में विभाजित कर दिया गया तथा सभी के लिए पृथक-पृथक कार्य निर्धारित कर दिए गए।


वर्ण व्यवस्था के ही समान आश्रम व्यवस्था को भी चार स्तरों में विभाजित किया गया है तथा ए चार स्तर व्यक्ति के आयु के आधार पर उसके कर्मों को निर्धारित करने से संबंधित हैं।

प्रत्येक आयु के स्तर में व्यक्ति को कुछ उत्तरदायित्वों का निर्वहन करना होते हैं तथा इन दायित्वों के निर्वहन कए पश्च उसे मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। यह सर्वविदित है कि आयु के विकास के साथ-साथ व्यक्ति की योग्यता, अभिरुचि क्षमता दृष्टिकोण और मनोवृत्ति आदि में भी बदलाव आता है। अतः हिंदू सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति को प्रदान किए जाने वाले दायित्वों को उनकी आयु के आधार पर निर्धारित करना उचित प्रतीत होता है।


हिंदू धर्म के महाग्रंथ महाभारत के शांति पर्व में बताया गया है कि 'जीवन के चार आश्रम व्यक्तित्व विकास की चार सीढ़ियाँ हैं, जिनपर क्रम से चढ़ते हुए व्यक्ति ब्रह्म को प्राप्त करता है। हालांकि आरंभिक समय में केवल तीन आश्रमों का उल्लेख मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद तथा मनुस्मृति में तीन आश्रमों का विवरण मिलता है। वानप्रस्थ तथा सन्यास आश्रम आपस में मिश्रित रूप में विद्यमान थे। बाद में इन्हें दो अलग-अलग आश्रमों के रूप में विभाजित किया गया।

सबसे पहले जाबाली उपनिषद में चार आश्रमों की व्यवस्था के बारे में चर्चा प्रस्तुत की गई। हालांकि हम इस बात को पूरी तरह से स्पष्ट नहीं कर सकते कि आश्रम व्यवस्था की रचना का काल क्या है। यहाँ केवल इतना ही कहा जा सकता है कि आश्रम व्यवस्था का निर्माण उत्तर वैदिक काल में हो गया था तथा स्मृतिकाल में इसका व्यवस्थित रूप स्पष्ट हुआ। हिंदू सामाजिक व्यवस्था में आश्रम प्रणाली व्यक्ति के जीवन को कुछ इस प्रकार से चार भागों में विभाजित करता है


● व्यक्ति अपने आरंभिक जीवन के 25 वर्षों में ज्ञान प्राप्त करे (ब्रह्मचर्य)


● इसके पश्चात वह अगले 25 वर्षों में सांसरिक वास्तविकताओं का भोग करे (गृहस्थ) 


● इसके बाद इन सांसारिक वस्तुओं से दूर होकर व्यक्ति अगले 25 वर्षों तक ईश्वरीय ज्ञान को अर्जित करे (वानप्रस्थ) 


● और सबसे अंत के 25 वर्षों में परमात्मा की खोज कर व्यक्ति मोक्ष के मार्ग का अनुसरण करे

(सन्यास)