चंद्रगुप्त का शासन प्रबंध - Administration of Chandragupta

चंद्रगुप्त का शासन प्रबंध - Administration of Chandragupta


चंद्रगुप्त एक महान विजेता ही नहीं अपितु एक योग्य शासक भी था। उसे चाणक्य जैसे राजनीतिज्ञ का सहयोग भी प्राप्त था। इन दोनों ने मिलकर एक उच्च कोटि की अत्यंत सुव्यवस्थित शासन व्यवस्था की और ये आगे के सम्राटों के लिए अनुकरणीय बनी रही। चंद्रगुप्त के शासन प्रबंध का ज्ञान हमें कौटिल्य के * अर्थशास्त्र एवं मेगास्थनीज़ की 'इंडिका' से प्राप्त होता है। इन स्रोतों से उस समय के राजनीतिक सिद्धांत, राज्य और राजा के अधिकार तथा कर्तव्य, जनजीवन और विभिन्न राज्यों के पारस्परिक संबंधों आदि का भी ज्ञान प्राप्त होता है।


राजा- राजा राज्य का प्रधान था। वह प्रधान सेनापति, प्रधान न्यायाधीश और प्रधान दंडाधिकारी होता था।

युद्ध संचालन व न्यायकार्य उसके प्रधान कार्य थे। उसका अधिकार वंशानुगत था और कानूनतः उसके अधिकारों की कोई सीमा न थी। परंतु व्यावहारिक दृष्टि से मौर्य सम्राट स्वेच्छाधारी नहीं थे। राजा के कर्तव्यों और आदर्शों का प्रतिपादन किया जाता था और राजा उन्हीं आदर्शों पर चलने का प्रयत्न करते थे। राजा का मुख्य उत्तरदायित्व अपने प्रजा की रक्षा और भलाई करना था। वह प्रजा का शोषक न होकर उनका पोषक था। संक्षेप में, उसके शासन में उदारता, न्याय और निरंकुशता का समुचित समन्वय था । अर्थशास्त्र के अनुसार, 'राजा का जो शील होता है, वही प्रजा का भी होता है।"


मंत्रिमंडल सम्राट का अकेले इतने बड़े साम्राज्य का संचालन करना संभव नहीं था, अतएव उसकी सहायता के लिए मंत्रियों की एक समिति होती थी, जो मंत्रिपरिषद कहलाती थी। मंत्रियों के परामर्श से ही संपूर्ण राज्य का शासन संचालन होता था। मंत्री परिषद के परामर्शो को मानना या न मानना राजा के ऊपर निर्भर करता था। मंत्री का वेतन 48000 पण होता था। समस्त उच्च पदाधिकारी इन्हीं मंत्रियों की सम्मति से नियुक्त होते थे।


अमात्य मंडल- मंत्रिपरिषद के मंत्रियों के अतिरिक्त अमात्यों का एक अलग वर्ग होता था। शासन की सुविधा के लिए केंद्रीय शासन कई भागों में विभक्त था, जिसको 'तीर्थ' कहते थे।

प्रत्येक विभाग का अध्यक्ष अमात्य' कहलाता था। केंद्रीय शासन में कुल अठारह विभाग थे। इनके नाम इस प्रकार हैं- (1) पुरोहित (2) मंत्री (3) सेनापति (4) दंडपाल अर्थात् पुलिस का प्रधान (5) दौवारिक अथवा द्वारपाल (6) युवराज ( 7 ) दुर्गपाल अथवा गृह अधिकारी (8) अन्तपाल अर्थात् सीमारक्षाधिकारी ( 9 ) अन्तर विंसक अथवा अंत:पुर रक्षाधिकारी (10) सन्निधात्री, अर्थात् राजकोष, अस्त्रागार और कोष्ठागार का अधिकारी (11) प्रशास्तृ अर्थात् कारागार का अधिकारी (12) समाहर्त्ता अर्थात् राज्य की संपत्ति एवं आय-व्यय का अधिकारी (13) नायक अर्थात् नगर रक्षक ( 14 ) प्रदेष्टा अर्थात् कमिश्नर ( 15 ) व्यवहारिक अर्थात् प्रधान न्यायाधीश (16) पौर अर्थात् कोतवाल (17) मंत्रिमंडलाध्यक्ष तथा ( 18 ) कर्मान्तिक अर्थात् कारखानों का अधिकारी।



उपर्युक्त विभागों के पदाधिकारियों के अतिरिक्त कुछ अन्य पदाधिकारी भी थे, जो निम्न विभागों के अध्यक्ष थे, जैसे- कोष आकर (खान), लौह (धातुएँ), लक्षण ( टकसाल), लवण, सुवर्ण, कोष्ठागार (भंडार), पण्य (राजकीय व्यवसाय), कुप्य ( वन विभाग), आयुधागार (शस्त्रालय), पोतव (बटरवारे), शुल्क, सूत्र (कताई बुनाई), मुद्रा (पासपोर्ट), बंधनागार (जेल), गौ (मवेशी), गणिका संस्था (व्यापार), अश्व, हस्ति, रथ विभाग आदि।


प्रांतीय शासन


चंद्रगुप्त एक विशाल साम्राज्य का शासक था। अतएव शासन की सुविधा के लिए साम्राज्य अनेक प्रांतों में विभक्त कर दिया गया था।

इस समय संभवतः पाँच, छह मुख्य प्रांत रहे होंगे। पहला प्रांत उत्तरापथ का था, जिसकी राजधानी तक्षशिला थी। दूसरा प्रांत अवन्ति था, जहाँ की राजधानी उज्जयिनी थी, तीसरा प्रांत दक्षिणपथ था, जिसकी राजधानी सुवर्णगिरि थी, चौथा कलिंग, जिसकी राजधानी तोसली थी। पाँचवा प्रांत प्राची कहलाता था, जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। अनुमानतः सुदूरस्थ प्रांतों के लिए राजकुमारों को प्रबंध के लिए नियुक्त किया गया था। प्रांत में अनेक छोटी इकाइयाँ थीं, जैसे-


1. स्थानिक 800 ग्रामों का समूह


2. द्रोणमुख - 400 ग्रामों का समूह


3. खार्वरिक 200 ग्रामों का समूह


4. संग्रहण 100 ग्रामों का समूह


5. ग्राम


नगरों का प्रबंध


चंद्रगुप्त की शासन व्यवस्था में राज्य की संपूर्ण शक्ति का केंद्र राजा था।

केंद्रीय शासन, प्रांतीय शासन के साथ ही नगरीय शासन का भी बहुत महत्व था। मेगास्थनीज़ ने पाटलिपुत्र का प्रबंध करने वाली छह समितियों का उल्लेख किया है। अर्थशास्त्र में इस बोर्ड का उल्लेख न होकर नगराध्यक्ष का उल्लेख मिलता है। मेगास्थनीज़ के अनुसार तीस अध्यक्षों का एक आयोग था, इस आयोग को पाँच-पाँच सदस्यों की छह समितियों में बाँटा गया था। हर समिति के अलग-अलग काम थे।


(1) शिल्पकला समिति इसका कार्य औद्योगिक तथा शिल्प संबंधी कार्यों का निरीक्षण करना था । यह समिति कलाकारों, शिल्पकारों का पारिश्रमिक भी तय करती थी। वह उत्पादन की शुद्धता के लिए भी कटिबद्ध थी।

(2) वैदेशिक समिति- इसका कार्य विदेशियों का सत्कार करना था, साथ ही उनकी सुरक्षा का भी भार था। विदेशियों के आवागमन, उनके निवासस्थान, उनकी औषधि आदि का प्रबंध करना भी इस समिति का कार्य था। विदेशियों की मृत्यु के पश्चात् उनकी अंतिम क्रिया तथा उनके धन संपत्ति को उचित उत्तराधिकारियों को देने का कार्य भी इसी समिति का था। 


(3) जनसंख्या समिति इसका कार्य जन्म मृत्यु का लेखाजोखा रखना था।


(4) वाणिज्य व्यवसाय समिति- इसका कार्य क्रय-विक्रय के नियमों का निर्धारण करना था।

भार और माप के परिमाणों को निश्चित करना, व्यापारी लोग उनका शुद्धता के साथ उपयोग करते हैं, इसका निरीक्षण करना भी इसका कार्य था।


(5) वस्तु निरीक्षक समिति- इसका कार्य वस्तुओं के उत्पादन की देखरेख करना था। उत्पादन का निरीक्षण करना, औद्योगिक उत्पादन में मिलावट की जाँच करना आदि इस समिति के मुख्य कार्य थे। नई और पुरानी चीज़ों को मिलाकर बेचना भी कानून के विरुद्ध था ।


(6) कर समिति- इसका कार्य क्रय-विक्रय पर टैक्स वसूल करना था। कर से बचने का प्रयत्न करने पर दंडित किया जाता था।


मेगास्थनीज़ के इस विवरण से स्पष्ट है कि चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में पाटलिपुत्र का शासन तीस नागरिकों की एक सभा के हाथ में था। संभवतः यही प्राचीन पौरसभा थी।


ग्राम्य शासन- जनपदों में बहुत से ग्राम सम्मिलित होते थे और प्रत्येक ग्राम शासन की दृष्टि से स्वतंत्र सत्ता रखता था। ग्राम का प्रमुख 'ग्रामिक' कहलाता था, उसे ग्रामवासी ही चुनते थे। ग्रामिक पंचायत के सदस्यों की मदद से न्याय भी देता था। लगभग दस ग्रामों के ऊपर एक गोप होता था। कई 'गोप के ऊपर एक 'स्थानिक' होता था। इनके ऊपर संपूर्ण जनपद का अधिकारी 'समाहर्ता' होता था ।


सेना का प्रबंध- साम्राज्य की सुरक्षा के लिए चंद्रगुप्त ने एक विशाल सेना का संगठन भी किया था। उसने एक चतुरंगिणी अर्थात् हाथी, घोड़ा, रथ तथा पैदल सेना का संगठन किया और उसकी शिक्षा की समुचित व्यवस्था की। राजा स्वयं प्रधान सेनापति होता था, युद्ध स्थल में युद्ध का संचालन करता था। संपूर्ण सेना के प्रबंध के लिए तीस सदस्यों की एक समिति होती थी। सेना का प्रबंध छह भागों में विभक्त और प्रत्येक विभाग का प्रबंध पाँच सदस्यों के हाथ में रहता था। प्रत्येक विभाग का एक अध्यक्ष होता था। पहला विभाग जल सेना का प्रबंध करता था, दूसरा विभाग सेना को हर प्रकार की सामग्री तथा रसद भेजने का प्रबंध करता था।

तीसरा विभाग पैदल सेना, चौथा अश्वरोहियों, पाँचवा हाथियों की सेना और छठा रथ सेना का प्रबंध करता था। सेना के साथ एक चिकित्सा विभाग भी होता था, जो घायल तथा रुग्ण सैनिकों की चिकित्सा करता था।


गुप्तचर विभाग- मौर्य शासकों की गुप्तचर व्यवस्था बहुत श्रेष्ठ थी। गुप्तचर दो प्रकार के थे- प्रथम, 'संस्था' जो एक ही स्थान पर रहते हुए वेश बदलकर सूचनाएँ एकत्रित करते थे। द्वितीय, 'संचार जो घूम- घूमकर सूचनाएँ एकत्रित करते थे। राज्य के विभिन्न भागों से सभी सूचनाएँ सम्राट के पास पहुँचाई जाती थीं। सम्राट के गुप्तचरों के अतिरिक्त राज्य के सभी प्रमुख अधिकारी अपने-अपने गुप्तचरों की नियुक्ति करते थे।


न्याय और दंड विधान साम्राज्य का सर्वोच्च अधिकारी राजा था। मौर्य शासकों की दंड व्यवस्था कठोर थी। साधारण अपराधों के लिए जुर्माना किया जाता था और बड़े अपराधों के लिए अंगभंग और मृत्युदंड। इस कठोर दंड व्यवस्था के कारण अपराध कम होते थे।


न्यायालय दो प्रकार के होते थे केंद्रीय और स्थानीय केंद्रीय न्यायालयों में दो न्यायालय थे- एक स्वयं सम्राट का और दूसरा मुख्य न्यायाधीश का स्थानीय न्यायालय तीन प्रकार के होते थे। नगरों के न्यायाधीश 'व्यावहारिक महामात्र कहे जाते थे। न्यायालय दीवानी तथा फौजदारी होती थीं। दीवानी की अदालतें 'धर्मस्थीय और फौजदारी की अदालतें 'कंटकशोधन' कहलाती थीं।


राजस्व - राज्य की आय का मुख्य साधन भूमिकर था। यूनानी लेखकों के अनुसार भूमि पर राजा का स्वामित्व होता था, वह किसी की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं समझी जाती थी। साधारणतया उपज का छठा भाग राज्यकर के रूप में वसूला जाता था, उसे 'भाग' कहते थे।


राजकीय भूमि, चरागाहों तथा वनों से भी सरकार को अच्छी आय हो जाती थी। किसानों से सिंचाई कर भी वसूल किया जाता था। आयात और निर्यात, दोनों प्रकार की सामग्री पर कर लगाए जाते थे। आयात कर को प्रवेश्य और निर्यात कर को 'निष्काम्य' कहते थे। राज्य की सीमाओं पर व्यापारियों को वहिशुल्क देना पड़ता था। खानों, नमक, शस्त्रनिर्माण, मादक द्रव्यों, जुआ, वेष्यावृत्ती आदि पर सरकार का एकाधिकार था और इन साधनों से काफी आमदनी होती थी। शिल्पियों, व्यापारियों आदि लोगों को लाइसेंस लेना पड़ता था और उसके लिए शुल्क देना पड़ता था। राजस्व विभाग का संचालक समाहर्ता था और उसके नीचे अनेक अध्यक्ष कार्य करते थे।