उन्नीसवीं सदीं में महिला प्रश्नों के विभिन्न चरण - Different phases of the women's question in the nineteenth century

उन्नीसवीं सदीं में महिला प्रश्नों के विभिन्न चरण - Different phases of the women's question in the nineteenth century


उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से लेकर अब तक इस पूरी बहस को हम पाँच चरणों में विभाजित कर सकते हैं। प्रथम चरण में महिला प्रश्नों का उद्भव, नए शिक्षित मध्यम वर्ग के बीच एक प्रकार के पहचान की संकट के तौर पर हुआ। ये वो मध्यम वर्ग था जो कि औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था का पहला उत्पाद था। यह वर्ग औपनिवेशिक शासकों की जीवन शैली का अनुकरण कर रहा था परंतु इस लक्ष्य प्राप्ति में वे अपनी स्त्रियों की स्थिति को एक बाधा के रूप में देख रहे थे। इसी दौरान पश्चिम के आलोचकों द्वारा हमारे तमाम रीति-रिवाजों की आलोचना भी हुई और शिक्षित मध्यम वर्ग भी इन कुरीतियों को जैसे विधवाओं के साथ किया जाने वाला व्यवहार,

बाल-विवाह, महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखना, सती-प्रथा, आदि को समाज में एक धब्बे के रूप में मान रहा था। इन आलोचनाओं की वजह से इन मुद्दों को काफी गंभीरता से लिया गया। समाज सुधारकों की प्रथम पीढ़ी ने इन कुप्रथाओं को • मिटाने के आम जन के बीच लगातार प्रयत्न जारी रखा। हालाँकि इनमें से कुछ सुधारक ही ऐसे थे जो पाश्चात्य संस्कृति की नकल से परे जाकर महिलाओं की अधीनता, गुलामी को अलग नजरिए से व्याख्यायित कर रहे थे। उन्नीसवीं शताब्दी की अंतिम दशकों में महिलाओ से जुड़े प्रश्न सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और पुनरुत्थानवादी रंग में रंगे नजर आए, जो पश्चिम के प्रभाव और उनके मूल्यों का जवाब देने के लिए तैयार किए गए थे।

इस दृष्टिकोण को विशेष तौर पर शिक्षित युवाओं के बीच में देखा गया। सुधारवादी स्वदेशी परंपराओं को बचाने के लिए महिला शिक्षा को समर्थन दे रहे थे। वे रूढ़िवादियों की खिलाफत कर रहे थे उनका मानना था कि महिला शिक्षा के माध्यम से हम हम स्वदेशी संस्कृति को बढ़ावा दे सकते हैं जिसमें परिवार जैसी संस्थाएँ उपयोगी साबित होंगी और महिलाओं की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होगी। उनका मानना था कि महिलाओं की शिक्षा परिवार में संवादहीनता को समाप्त करने का काम करेगी। शिक्षा के माध्यम से परिवार में महिलाओं की स्थिति में सुधार होगा और वे युवाओं के मन से पाश्चत्य प्रभाव को हटाने का काम करेंगी। इस प्रकार सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों द्वारा एक नए प्रकार की अवधारणा की शुरुआत की गई,

और महिलाओं के प्रश्नों को सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षक की अवधारणा से जोड़ दिया गया। दूसरे चरण में ही, 1890 के दौरान ज्योतिबा फुले ने अपने लेखन के माध्यम से ये बताया कैसे उच्च वर्ग के वर्चस्व और भारतीय समाज में ब्राह्मण प्रभुत्व को स्थापित रखने में महिला की अधीनता को साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसी समय बी.एम. मालाबारी ने सामाजिक अभियान में प्रेस की वृहद भूमिका को रेखांकित करने का काम किया। सर्वप्रथम टाइम्स ऑफ इंडिया के पाठकों ने उन महिलाओं की सच्ची घटनाओं और उनकी आपबीती को पढ़ा जो अपने पतियों के हाथों यातना का शिकार हुई।


तीसरे चरण में, महिला प्रश्न राष्ट्रीय आंदोलन से गुंथे हुए रूप में हमारे सामने आए।

स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल मुट्ठी भर महिलाओं ने पुरुष नेताओं को चुनौती देते हुए उन्हें भी क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने की अनुमति माँगी। इस आंदोलन में बड़े पैमाने पर महिलाओं की लामबंदी और भागीदारी देखी गई एवं महिलाओं से जुड़े बुनियादी प्रश्नों को भी को उठाया गया। यद्यपि यह अचंभित करता है कि कैसे महिलाओं की समानता का अधिकार जैसा मुद्दा एक राजनितिक मुद्दे में परिवर्तित हो गया।


उन्नीसवीं शताब्दी के समाज सुधारकों द्वारा अपना ध्यान मुख्य रूप से शहरी माध्यम वर्ग की महिलाओं की समस्या तक केंद्रित रखा गया। भारतीय साहित्यकारों और पश्चिमी साहित्यकारों द्वारा भारतीय महिलाएं चाहे वह हिंदू हो या मुस्लिम,

की दबी-कुचली छवि को प्रस्तुत किया गया, लेकिन उन लाखों महिलाओं के बारे कोई चिंता नहीं व्यक्त की गई जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी की तरह थीं और उन पर औपनिवेशिक व्यवस्था का अत्यंत बुरा प्रभाव पड़ा और यह प्रभाव पुरुषों की तुलना में महिलाओं पर ज्यादा पड़ा। सिर्फ बंगाल में ही सूत कातने के व्यवसाय में लगी 30 लाख महिलाएँ बुरी तरीके से प्रभावित हुई। ये पूरी जनसंख्या की 1 / 5 भाग थीं। उन्नीसवीं शताब्दी तक इनकी संख्या में और बढ़ोत्तरी हुई। यही स्थिति भारत में विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत उन महिलाओं की भी थी जो सिल्क व्यवसाय एवं कुटीर उद्योगों में कार्यरत थीं। 1920 के आरंभ में सूरत में एक स्थानीय संगठन ने ग्रामद्योगों महिलाओं की गिरती आर्थिक और सामान्य स्थिति का पता लगाने का प्रयास किया।

जूट उद्योग में कार्यरत 50% महिलाएँ अपने उद्योगों को छोड़कर गाँवों से आजीविका की तलाश में शहर की तरफ पलायन कर गईं। यही स्थिति उन आदिवासी महिलाओं की भी देखी गई जो चाय बागानों एवं कोयला खाद्यानों में श्रमिक के रूप में काम कर रही थीं. उनको भी पलायन का शिकार होना पड़ा।


चौथा चरण आजादी के बाद की स्थिति को दर्शाता है, संविधान निर्माण के बाद काफी सारी समस्याओं का समाधान हो गया जैसे महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला जिससे की राजनैतिक समानता की प्राप्ति हुई,

सार्वजनिक सेवाओं में प्रवेश मिला, व्यवसायों आदि में भी महिलाओं को अधिकार मिला। इस दृष्टिकोण से यह समय मध्यम वर्ग की महिलाओं के लिए अत्यंत सफल रहा जिसमें महिलाएँ बड़ी संख्या में लाभान्वित हुई। इस दौरान महिला संगठनों ने भी महिलाओं की समानता और अधिकार के लिए युद्ध स्तर पर जुझारू तरीके से कार्य किया और सरकार ने भी सामाजिक कल्याण के लिए अनुदान आदि दिए। लेकिन, लगभग 20 वर्षों तक के लिए महिलाओं के प्रश्न सार्वजनिक क्षेत्र से गायब ही हो गए और महिलाओं से जुड़े हुए लेखन और अनुसंधान दोनों में गिरावट दर्ज की गई।


पाँचवा चरण वास्तव समाज में बढ़ रही असमानता, गरीबी और जनता के अधिकारों को लेकर एक प्रकार की असुरक्षा का दौर था।

1971-74 में गठित 'भारत में महिलाओं की स्थिति का पता लगाने वाली समिति ने अपने रिपोर्ट में यह निष्कर्ष दिया कि अर्थव्यवस्था में महिलाओं की स्थिति हाशिए पर हैं। आँकड़ों के अनुसार, महिलाओं की यह स्थिति आजादी से पहले भी थी, इन परेशान करने वाला तथ्यों को कुछ अधिकारी एवं समाज वैज्ञानिकों के द्वारा भी पहचाना गया लेकिन वे इस मुद्दे की तरफ सबका ध्यान आकर्षित करने में असफल रहे। 70 के दशक में, भारत में नियोजित विकास कार्यक्रम की वजह से भारत परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था। तमाम समाज वैज्ञानिक विभिन्न आयामों से और इन जटिल प्रक्रियाओं का विश्लेषण करने की कोशिश कर रहे थे।

समिति ने अपने जनसांख्यिकीय रुझानों में पाया कि पुरुषों और महिलाओं के जीवन प्रत्याशा और मृत्यु दर में असमानता की खाई बहुत ज्यादा हो गई। थी, शिक्षा में भी असामनता पाई गई। ये सारी स्थितियाँ उन मूल्यों के विपरीत थीं जिन मूल्यों और आदर्शों के साथ हमारे सविधान निर्माताओं ने संविधान का निर्माण किया था। जिस राजनैतिक अधिकार, कानूनी समानता और शिक्षा को विश्वसनीय साधन माना गया वे सिर्फ कुछ महिलाओं तक ही सिमट कर रह गए और हाशिए पर मौजूद महिलाओं की पहुँच से बाहर ही रहे। साथ ही, पितृसत्ता ने भी पहले की • अपेक्षा ज्यादा मजबूती से अपनी पकड़ बनाई। इसी दौरान समिति ने अपनी रिपोर्ट में कुछ सवाल भी पेश किए इसी दौरान महिला आंदोलन की नई लहर ने भी समाज को प्रभावित किया और आपातकाल के दौरान लोग अपने राजनैतिक अधिकारों के प्रति सचेत हुए।