प्राचीन काल में स्त्रियां - women in ancient times

प्राचीन काल में स्त्रियां - women in ancient times

जैसा कि हम ऊपर अध्ययन कर चुके हैं कि औपनिवेशिक इतिहास लेखन के अनुसार प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति काफी अच्छी मानी गई। उन्हें वेद शास्त्रों में प्रवीण, अपनी इच्छा से विवाह का अधिकार रखने वाली विदुषी माना गया। लेकिन स्त्रीवादी इतिहासलेखन के माध्यम से महिलाओं के जीवन का एक अलग ही पहलू सामने निकल कर आया। इस क्षेत्र में डॉ. उमा चक्रवर्ती, डॉ. कुमकुम रॉय, डॉ. जया मेहता आदि के कार्य काफी महत्वपूर्ण हैं। प्राचीन काल में वैदिक काल के अतिरिक्त बौद्ध धर्म और जैन धर्मों में भी महिलाओं की स्थिति का आकलन किया गया ताकि महिलाओं को लेकर सिर्फ एक विचार का ही प्रभाव हावी ना रहे।

इसके लिए संस्कृत के अलावा पाली और प्राकृत की रचनाओं को भी शामिल किया गया । धार्मिक पाठ के अतिरिक्त पुरातात्विक स्रोतों, शिलालेखों, विभिन्न साहित्यों आदि का भी प्रयोग किया गया। इसके साथ-साथ इस बात को भी सामने लाया गया कि इस इतिहास में अपाला, गार्गी, घोषा के रूप में सिर्फ उच्चजातीय महिलाओं के अनुभव ही ना रहें, बल्कि हाशिए पर रह रहीं दासियों के भी अनुभव शामिल किए जाएँ। इस प्रकार प्राचीन भारत में महिलाओं के विभिन्न रूपों को विभिन्न स्रोतों के माध्यम से देखने का प्रयास किया गया।


वैदिक, बौद्ध, जैन धर्मों में महिलाओं की स्थिति पर प्रमुख स्त्रीवादी शोध डॉ. स्वाती और डॉ. जावेद द्वारा प्रकाशित छोटी सी पुस्तिका “Women in Early India" में स्त्रीवादी इतिहास से संबंधित कई शोध को एक साथ लेकर उस दौर की महिलाओं की प्रमुख चुनौतियों को सामने लाने की कोशिश की गई है।

इस पुस्तिका में प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति को देखने के लिए हिंसा, संपत्ति और शिक्षा जैसे मुद्दों को केंद्र में रखा गया, ताकि पता चल सके कि महिलाओं के जीवन में इनकी क्या उपस्थिति थी। हिंसा के अंतर्गत उन्होंने महिलाओं के जीवन में घरेलू हिंसा और सार्वजनिक हिंसा को विभिन्न स्रोतों के माध्यम से रखा। डॉ. कुमकुम रॉय द्वारा वात्स्यायन के कामसूत्र पर किए गए शोध "कामसूत्र पर नई रोशनी” (Unrevealing the kamsutra) के माध्यम से हम घरेलू जीवन और पति पत्नी के बीच यौन संबंधो में हिंसा को भी देख सकते हैं। कामसूत्र में पति को संभोग के समय अपनी पत्नी को पीटने की कई प्रकार की विधियाँ बतायी गई हैं,

पर स्त्री सिर्फ सीत्कार ही कर सकती है। हिंसा के प्रति उसका किसी प्रकार का विरोध संभोग क्रिया की अनिवार्यता के रूप में देखा गया है न कि उस स्त्री की तकलीफ के रूप में (रॉय, कामसूत्र पर नई रोशनी, 2008) 1 घर के बाहर महिलाओं के ऊपर हिंसा के भी बड़े उदाहरण हम रामायण और महाभारत में भी महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा, बलात्कार, अपहरण, सती, घर से निकाले जाने आदि को देख सकते हैं। शिक्षा को लेकर भी यह सवाल उठाया जाता है कि ठीक है कुछ महिलाएँ शिक्षित थीं, लेकिन क्या बाकी महिलाओं की शिक्षा के लिए कहीं किसी गुरुकुल की जानकरी मिलती है? अगर शिक्षा की परंपरा थी,

तो ऋग्वेद में महिलाओं द्वारा रचित सूक्तों की संख्या पुरुषों द्वारा रचित सूक्तों की संख्या से कम क्यों है मनुस्मृति में यह क्यों कहा गया कि विवाह ही महिलाओं की शिक्षा का विकल्प है ( Joshi s. 2001, p. 21 ) 1 वैदिक शिक्षा से महिलाओं और शूद्रों को वंचित रखने के प्रयास क्यों किए गए ? संपत्ति के बारे में भी हम देख सकते हैं कि महिलाओं की संपत्ति जिसे स्त्री धन कहा जाता था, वह सिर्फ कपड़ों, गहनों और छोटे मोटे तोहफों तक ही सीमित थी। जमीन पर अधिकार उनके पास नहीं था। सिर्फ उच्च वर्गीय महिलाओं के पास ही अपनी संपत्ति जमीन के रूप में रखने और उसे खर्च करने का अधिकार रहा है। श्रमिकों के रूप में महिलाओं की बड़ी हिस्सेदारी रही है। वे खेती से लेकर डेयरी, पशु पालन, दाई, घरेलू सेविका, नमक बनाने, मालिन का काम करने,

सामान बेचने और राजा की सुरक्षा करने तक के कामों में संलग्न रहीं हैं। (Ramaswami, 1999 ) । विजय रामास्वामी ने महिलाओं के श्रम के विविध रूपों को तमिल के संगम साहित्य के अध्ययन के माध्यम से सामने प्रस्तुत किया। हम यहाँ देख सकते हैं कि महिलाओं की श्रम में भागीदारी तो काफी रही, पर उन्हें संपत्ति पर अधिकार नहीं मिला। खासतौर पर अचल संपत्ति पर तो न के बराबर । संपत्ति के लिए प्रार्थना भी अधिकांशतः पुरुष ही कर सकता था महिलाएँ स्वयं एक संपत्ति के रूप में देखी जाती रहीं। कन्यादान जैसी परंपराओं से समझ सकते हैं कि महिलाओं को तोहफे में देने का प्रचलन रहा है। कुमकुम रॉय ने शतपथ ब्राह्मण में वर्णित कथा का जिक्र किया है,

जिसमें च्यवन ऋषि के गुस्से को शांत करने के लिए सुकन्या के पिता ने उसे ऋषि को दान कर दिया। कन्यादान पर आधारित विवाह श्रेष्ठ माने जाते थे। औरत को संपत्ति इसलिए माना जाता था क्योंकि वह सन्तान उत्पन्न कर सकती थी। अतः अपने उत्तराधिकारी को पैदा करने और उस पर अपना अधिकार बनाए रखने के लिए इस तरह की मान्यताओं को मजबूत किया गया, जिसमें महिलाओं के गर्भधारण की क्षमता को नकार कर उसे पुरुषों द्वारा प्रदत्त अवसर कहा जा सके। मासिक धर्म, प्रजनन आदि को दूषित माना गया। जीवन के हर महत्वपूर्ण पहलू को शामिल कर ऐसे संस्कार विकसित किए गए, जिनमें पुरुषों की प्रधानता ही दिखाई पड़े । कुमकुम रॉय बताती हैं कि गर्भाधान से पहले पुंसवन नामक संस्कार होता है,

जिसमें पुरुष स्त्री के कान में पुत्र उत्पत्ति के मंत्रों को दोहराता है। पुत्र को द्विज (दूसरा जन्म) उसके उपनयन संस्कार के बाद ही कहा जाता है, जो कि उसके गुरु द्वारा किया जाता है। माना जाता है कि जो जीवन उसे माँ से मिला वह अपवित्र था और उपनयन के बाद ही उसे पवित्रता हासिल हुई है, जो कि उसके गुरु (पुरुष) ने प्रदान की है। पारिवारिक अनुष्ठान भी पुरुषों द्वारा किए जाते थे। कभी कभी पत्नियाँ भी सहयोग करती थीं लेकिन बिना पति के उन्हें अनुष्ठान का अधिकार नहीं था। देवियों को अर्पित करने वाली बलियाँ भी देवताओं की बलि के नीचे ही रखी जाती थी, ताकि पुरुषों के अनुसरण को धार्मिक आदेश के रूप में मजबूती से स्थापित किया जा सके।

पत्नी के पतिव्रता धर्म को खासतौर पर केंद्र में रखा गया और उसकी प्रमुख जिम्मेदारी में शामिल किया गया। स्त्रियों को ऐसी वस्तु के रूप में भी दर्शाया गया, जिसकी रक्षा करनी आवश्यक है या सुरक्षा परिवार, समुदाय और धर्म के लिए अति आवश्यक मानी गई। पत्नी द्वारा पतिव्र धर्म का पालन ना करने पर जहाँ उसका पति या परिवार उसके साथ हिंसा कर सकता हैं, वहीं राज्य को भी यह अधिकार था कि वह महिलाओं पर क्रूरतम हिंसा कर सके। (रॉय, 2001)। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं थी। सिर्फ कुछ ही महिलाएँ थीं, जिन्हें कुछ सुविधाएँ प्राप्त थी, अन्यथा महिलाएँ पितृसत्तात्मक व्यवस्था की शिकार और गुलाम के रूप में ही सीमित थी।


बौद्ध धर्म में इसे थोड़ी अलग स्थिति रही। डॉ. उमा चक्रवर्ती का इस विषय पर विस्तृत कार्य है। संघ में महिलाओं का शामिल होना एक बड़ी घटना थी, जिससे महिलाओं को ज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश कराया। पहले महिलाओं को संघ में आने और भिक्षुणी बनने का अधिकार नहीं था, पर प्रजापति गौतमी के प्रयास के फलस्वरूप गौतम बुद्ध ने महिलाओं को संघ में स्थान दिया। संघ में ज्ञान की खोज करते हुए जो महिलाओं के अपने अनुभव रहे उसे थेरी गाथा के रूप में संकलित किया गया। यह पूरे विश्व में महिलाओं की रचनाओं का पहला संकलन था। भिक्षुणियों में उच्च वर्गीय महिलाओं की संख्या ज्यादा थी, लेकिन उसमे तवायफें और दासियाँ भी शामिल थीं।

इस प्रकार से हमें थेरी गाथा में विभिन्न सामाजिक श्रेणियों से आयी महिलाओं के जीवन अनुभव की विविधता से हमारी पहचान होती है। यहाँ उमा चक्रवर्ती कुछ मुख्य बातों की ओर हमारा ध्यान खींचती हैं। वे बताती हैं कि महिलाओं की स्थिति बौद्ध काल में काफी अच्छी थी, लेकिन फिर भी एक पितृसत्तात्मक दबाव हमेशा उनके ऊपर काम करता रहा। वे इसके लिए कई उदाहरण देती हैं जैसे वह बताती हैं कि भिक्षुणियों और गणिकाओं का समाज में सम्मान होने के बाद भी एक बड़े परिवार में रहने वाली कई बच्चों की माँ विशाखा मिगारमाता को सबसे ज्यादा सम्मान प्राप्त होता है। संघ में भिक्षुणियों की स्थिति भी भिक्षुओं के समक्ष भी दोयम दर्जे की थी। इशी दासी नामक कन्या अपने जीवन में लगातार पारिवारिक और सामाजिक हिंसा की शिकार रही (Chakravarti) जातक कथाओं में कई कथाएँ हमें ऐसी मिलती हैं, जो महिलाओं के रोजमर्रा के जीवन में हिंसा की उपस्थिति को दर्शाती हैं।

कई कथाएँ ऐसी भी मिलती हैं, जो श्रमिक महिलाओं या दासियों की विद्वता के बारे में भी होती हैं। पुन्ना दासी की कहानी को हम देख सकते हैं, जिसमें वह एक ब्राहमण के सामने बेहद तर्कपूर्ण सवाल खड़े का देती है (देखें जाती समाज में पितृसत्ता)। महिलाओं के ज्ञान प्राप्ति पर सवाल उठाने वाली मार और भिक्षुणी की कथा भी ले सकते हैं, जिसमें जब वह तप कर रही थी, तो मारने उसके ज्ञान प्राप्त करने पर प्रश्न चिह्न लगाया कि स्त्री होकर वह ज्ञान कैसे प्राप्त कर सकती है? इस पर उस भिक्षुणी ने जवाब दिया कि मैं स्त्री हूँ, लेकिन मैं वह कार्य कर रही हूँ, जो पुरुषों का अधिकार क्षेत्र रहा है, तो महोदय पहले आप यह निर्धारित कर लें कि आप किससे बात कर रहे हैं, एक पुरुष से या एक स्त्री से (चक्रवर्ती, इतिहास निर्माण में विवादी स्वर, 2006) ? इस तरह हम देख सकते हैं कि महिलाओं की ज्ञान में सहभागिता पर सवाल भी खड़े किए जा रहे थे और महिलाएँ भी उन सवालों का जवाब पूरे आत्मविश्वास से दे रहीं थीं।