दक्षिण अफ्रीका में भारतवंशियों का प्रवेश - Entry of Indians in South Africa

दक्षिण अफ्रीका में भारतवंशियों का प्रवेश - Entry of Indians in South Africa


सर्वप्रथम 1653 ई. में भारतीय दक्षिण अफ्रीका पहुँचे। 1653 ई. में जब डच व्यापारी स्वदेश वापस गए तो वे अपने साथ भारतीय एवं पूर्वी भारतीयों (दासों एवं गुलामों) को ले गए और उन्हें डच कॉलोनियों (उपनिवेशों) में दास एवं गुलाम के रूप में बेच दिया गया। उस समय दासों का व्यापार होता था। गांधी जी ने लिखा है कि डच लोग गुलाम रखते थे कुछ डच अपने जावा एवं पूर्वी भागों से गुलामों को लेकर दक्षिण अफ्रीका के उस भाग में गए जिसे 'केप कॉलोनी के नाम से जानते हैं। इनमें भारतीय एवं मलायी मुसलमान थे, जो गोरों की नौकरी एवं गुलामी करते थे।


1833 ई. में दास प्रथा की समाप्ति के बाद अफ्रीकी मूल के लोगों के द्वारा बागानों, खदानों एवं अन्य निर्माण कार्यों में काम करने से मना करने तथा मन से काम नहीं करने के कारण अंग्रेज़ों के उपनिवेश दक्षिण अफ्रीका के नटाल, ट्रांसवाल, प्रिटोरिया, डरबन, जोहान्सबर्ग जैसे राज्यों में गन्ने, चाय, कॉफी, खदान के उत्पादन तथा संरनात्मक निर्माण कार्य (रेल, सड़क, भवन निर्माण) के लिए हजारों मज़दूरों की जरूरत थी। नटाल सरकार ने इसके लिए भारत सरकार (ब्रिटिश भारत) से मज़दूरों की माँग की। भारत सरकार ने नटाल की माँग स्वीकार की जिसके फलस्वरूप हिंदुस्तानी मज़दूरों का पहला जहाज 16 नवंबर, 1860 ई. को नटाल पहुँचा। ये हिंदुस्तानी मज़दू नटाल में 3 से 5 वर्ष के एग्रीमेंट पर ले जाए गए 


जो अपने को 'गिरमिटिया' कहते थे। गिरमिटिया मज़दूरों को गोरे लोग अपमानित करने के लिए 'कुली' कहते थे, जैसे- कुली, कुली व्यापारी, कुली बैरिस्टर। कुली का अर्थ था बोझ ढोने वाले मजदूर। इस प्रकार भारतीयों का दक्षिण अफ्रीका में बसने का सिलसिला ही शुरू हो गया। मजदू गए, तो पीछे-पीछे व्यापारी भी गए। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों का तीसरा वर्ग उनका था जो अनुबंध की अवधि समाप्त होने के बाद वहीं बस गए थे। तत्कालीन एक अंग्रेज पदाधिकारी सर विलियम्स हंटर ने अफ्रीका पहुँचे हिंदुस्तानी मजदूरों की स्थिति के अध्ययन करने के बाद पाया कि ये मज़बू लगभग गुलामी की स्थिति में थे। महात्मा गांधी के अनुसार,

जो जहाज इन मज़दूरों को हिंदुस्तान से दक्षिण अफ्रीका के नटाल ले गया वही जहाज मजदूरों के साथ सत्याग्रह के महान वृक्ष का बीज भी नटाल ले गया। दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों में ज्यादातर तो अशिक्षित थे और जो थोड़ा-बहुत पढ़े-लिखे थे, उनका अंग्रेज़ी का ज्ञान नाममात्र का था। पैसेवाले धनी व्यापारी बस उतनी ही अंग्रेज़ी समझ बोल लेते थे, जो व्यापार करने के लिए जरूरी था। भारतीयों के प्रति औपनिवेशिक शासकों की गोरी जाति, जातीय एवं नस्लीय भेदभाव बरतती थी। भारतीयों ने इस अत्याचार को अपनी नियति मान लिया था। कभी यदि उनके दिल में विरोध की भावना उठती भी, तो वे उसे दबा देते, क्योंकि उन्हें मालूम ही नहीं था कि कैसे इसका विरोध किया जाए। लेकिन ब्रिटेन से बैरिस्टर बनकर लौटे और दक्षिण अफ्रीका पहुँचने वाले मोहनदास करमचंद गांधी झ अत्याचारों को सहने के आदी नहीं थे।