महात्मा गांधी का 'खूनी कानून' के विरुद्ध सत्याग्रह - Mahatma Gandhi's Satyagraha against the 'Bloody Law'

महात्मा गांधी का 'खूनी कानून' के विरुद्ध सत्याग्रह - Mahatma Gandhi's Satyagraha against the 'Bloody Law'


दक्षिण अफ्रीका के ट्रांसवाल उपनिवेश में 11 सितंबर, 1906 ई. को यहूदियों की एक नाटक शाला में भारतवंशियों की एक सभा हुई। इस सभा में ट्रांसवाल के भिन्न-भिन्न शहरों से प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया गया था। सभा का प्रस्ताव महात्मा गांधी ने तैयार किया था। उस नाटक शाला की सभा में इतनी भीड़ थी कि वहाँ पाँव रखने के लिए भी स्थान नहीं था। इस सभा के सभापति 'ट्रांसवाल ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के अध्यक्ष श्री अब्दुल गनी थे। अब्दुल गनी सेठ ट्रांसवाल के बहुत ही पुराने निवासियों में से एक थे और वे मुहम्मद कासिम करीमुद्दीन नामक पेढ़ी (व्यापारिक प्रतिष्ठान) के साझेदार व्यापारी थे। वे इस पेढ़ी के जोहान्सबर्ग शाखा के व्यवस्थापक थे। इस सभा में विभिन्न प्रस्ताव पास हुए।

महात्मा गांधी ने लिखा है कि इस सभा में सच्चा प्रस्ताव एक ही था, जिसका आशय, “ट्रांसवाल में 22 अगस्त, 1906 ई. में पारित बिल, जो एशियाटिक दफ्तर में प्रत्येक हिंदुस्तानियों का नाम दर्ज कराने से संबंधित थी उसके विरोध में सारे उपाय किए जाने के बावजूद यदि वह धारा सभा में पास हो ही जाए तो हिंदुस्तानी उसके समक्ष हार न माने और हार न मानने के फलस्वरूप जो-जो दुःख भोगने पड़े, उन सबको बहादुरी से सहन करें।" इस विरोध एवं संघर्ष प्रस्ताव को महात्मा गांधी ने सभा के समक्ष प्रस्तुत किया, जिसका समस्त वक्ताओं ने और हिंदुस्तानियों की भीड़ ने सहर्ष समर्थन किया।


इस सभा के समर्थक वक्ताओं में सेठ हाजी हवीब दक्षिण अफ्रीका के बहुत पुराने निवासी एवं काफी अनुभवी थे, उनका भाषण काफी जोशीला था। उन्होंने कहा- “बिल के विरोध का प्रस्ताव हमें खुदा को हाजिर मानकर पास करना चाहिए। हम नामर्द बनकर ऐसे कानून के समक्ष कभी न झुके। इसलिए मैं खुदा की कसम खाकर कहता हूँ कि इस कानून के सामने मैं कभी सिर नहीं झुकाउँगा। मैं इस सभा में आए हुए सभी लोगों को यह सलाह देता हूँ कि वे भी ख़ुदा को हाजिर मानकर ऐसी कसम खाएँ।" सेठ हाजी हवीब के भाषण में कसम की बातें आने से महात्मा गांधी चौक गए।

उन्हें स्वयं अपनी जिम्मेदारी एवं हिंदुस्तानी जनता की ज़िम्मेदारी का आभास हुआ। उन्होंने लिखा है कि “ईश्वर या ख़ुदा को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा करने वाला मनुष्य जब प्रतिज्ञा भंग करता है तब वह खुद ही नहीं शरमाता है, समाज से उसे धिक्कारा जाता है और वह पापी माना जाता है, इसलिए प्रतिज्ञा करने वाला व्यक्ति प्रतिज्ञा पर अमल करने का प्रयास करता है।" अंत में महात्मा गांधी ने कहा “यद्यपि हम सभी साथ मिलकर यह प्रतिज्ञा लेना चाहते हैं। हम सभी अपनी-अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह समझकर स्वतंत्र रूप से प्रतिज्ञा लें और यह समझकर लें कि दूसरे लोग कुछ भी करें, हम तो मरते दम तक उसका पालन करेंगे।" इस प्रकार सभा में समस्त हिंदुस्तानियों ने महात्मा गांधी के बिल का विरोध करने का प्रस्ताव ध्यान पूर्वक सुना। अन्य भारतीयों ने भी सभा में अपने वक्तव्य दिए और सभी ने अपनी एवं श्रोताओं की ज़िम्मेदारी की चर्चा की।


अंत में सभापति श्री अब्दुल गनी सेठ खड़े हुए और उन्होंने सभा के समक्ष हिंदुस्तानियों के विरोधी बिल का विरोध करने एवं इसके खिलाफ संघर्ष करने संबंधी संपूर्ण स्थिति को स्पट किया। अंतिम क्षण में सभा में उपस्थित समस्त भारतवंशियों ने खड़े होकर हाथ ऊँचे करके और ईश्वर को साक्षी मानकर यह प्रतिज्ञा ली कि, "बिल पास होकर यदि कानून का रूप ले ले तो भी हम उसके सामने सिर नहीं झुकाएँगे।" इस प्रकार ट्रांसवाल में प्रस्तावित भारतवंशियों को एशियाटिक दफ्तर में अपना नाम दर्ज कराने की अनिवार्यता एवं ऐसा नहीं करने पर अपराधी के रूप में सजा संबंधी खूनी कानून का सभा में उपस्थित समस्त हिंदुस्तानियों ने प्रतिज्ञा सहित विरोध किया, जिससे महात्मा गांधी का संघर्ष का उत्साह काफी बढ़ गया।


इस विरोध प्रस्ताव के स्वरूप को महात्मा गांधी ने प्रारंभ में पैसिव रेजिस्टेन्स' नाम दिया था। इस प्रस्ताव के आंदोलन का नाम 'पैसिव रेजिस्टेन्स' अंग्रेज़ी में होने से भारतवंशियों को समझने में कठिनाई महसूस हुई। महात्मा गांधी ने इस आंदोलन का नाम प्रस्तावित करने के लिए 'इंडियन ओपीनियम' समाचार पत्र में विज्ञापन निकालकर भारतवंशियों को उपयुक्त नाम खोजने का अवसर प्रदान किया। मगनलाल गांधी ने इस आंदोलन का नाम 'सदग्रह' लिखकर भेजा, जिसमें महात्मा गांधी ने द 'का' 'त' करके उसमें य जोड़कर 'सत्याग्रह' नाम बनाया और 'सत्याग्रह' के नाम से दक्षिण अफ्रीका में भारतवंशियों का अत्याचार एवं अन्याय के विरोध में संघर्ष प्रारंभ हो गया।


1907 ई. में उन्होंने निष्क्रिय प्रतिरोध आंदोलन चलाया और सार्वजनिक सेवा के लिए अपना जीवन अर्पित करते हुए वकालत छोड़ दी। सत्याग्रह आंदोलन के कारण उन्हें 10 जनवरी, 1908 ई. को दो महीने के कारावास की सजा दी गई। जनरल स्मट्स (सरकार) द्वारा समझौता वार्ता के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया तथा समझौता होने पर गांधी को जेल से मुक्त कर दिया गया, किंतु प्रवासी भारतीय पठानों ने इस समझौते को भारतीय हितों के विरुद्ध विश्वासघात माना और उन्होंने गांधी पर प्राणघातक हमला किया। भाग्य से गांधी बच गए, फिर भी उन्होंने हमलावरों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही नहीं की। जनरल स्मट्स द्वारा समझौते की शर्तों के साथ विश्वासघात करने के कारण गांधी ने पुन सत्याग्रह प्रारंभ किया।

उन्हें दो महीने का कठोर कारावास दिया गया। कारावास की अवधि पूरी करने के एक माह के अंदर सत्याग्रह करने पर पुन: गिरफ्तार किया गया। इस बार गांधी को तीन माह की सजा दी गई।


भारतीय समस्याओं पर ब्रिटेन की सरकार से वार्ता करने के लिए गांधी शिष्टमंडल लेकर 1909 ई. में इंग्लैंड गए और वहाँ से दक्षिण अफ्रीका के लिए वापस किल्डोनन कैसल नामक जहाज़ से लौटते हुए अराजकतावादी विचारधारा रखने वाले हिंदुस्तानियों के शंका समाधान के लिए और अपनी विचारधारा को स्पष्ट रूप से दुनिया के सामने रखने के लिए बीज ग्रंथ के रूप में 'हिंद स्वराज' की रचना की।

30 मई, 1910 ई. को जोहान्सबर्ग के निकट सत्याग्रहियों के उपयोग के लिए जर्मनी मूल के अफ्रीकी नागरिक और गांधी के दोस्त कोलनबैक द्वारा 1100 एकड़ पर टालस्टाय फार्म' की स्थापना की गई। इस फार्म की महत्ता को बताते हुए खुद गांधी ने कहा- “सत्याग्रह के अंतिम युद्ध के लिए 'टालस्टाय फार्म' आध्यात्मिक शुद्धि और तपश्चर्या का स्थान सिद्ध हुआ" गांधीजी के नेतृत्व में भारतीयों द्वारा चलाए जा रहे सत्याग्रह को अपना नैतिक समर्थन देने के लिए गोपाल कृष्ण गोखले 22 अक्टूबर, 1912 ई. को दक्षिण अफ्रीका के नेटाल आए। गांधी जी ने नवंबर 1913 ई. में दक्षिण अफ्रीका की संघीय सरकार द्वारा तीन पौंड के पोल टैक्स को निरस्त न करने के विरोध में सत्याग्रह किया।

गांधी ने 2023 पुरुषों, 127 स्त्रियों तथा 57 बालकों के जुलूस का नेतृत्व करते हुए ट्रांसवाल में प्रवेश किया। उन्हें गिरफ्तार कर जमानत पर रिहा किया गया। सरकार ने समझौता वार्ता के लिए उन्हें 18 दिसंबर को बिना शर्त रिहा कर दिया। जनरल स्मट्स के साथ हुए समझौते के कारण गांधी ने सत्यग्रह आंदोलन समाप्त कर दिया। इसी के तहत भारतीयों को राहत देने वाले कानून (इंडियन्स रिलीफ बिल) को पारित किया गया।


9 जनवरी, 1915 ई. को गांधी सपरिवार एवं कुछ सत्याग्रहियों के साथ दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे। गांधी जी के स्वदेश लौटने की याद में ही भारत सरकार ने 2003 से प्रतिवर्ष प्रवासी भारतीय 'दिवस' मनाना प्रारंभ किया है।