मॉरीशस की बसावट - Mauritius settlement
मॉरीशस की बसावट - Mauritius settlement
मॉरीशस की अनुमानित जनसंख्या दिसंबर, 2016 में 12,64,000 थी, जिसमें 637,032 त्रियाँ एवं 624,176 पुरुष सम्मिलित हैं। इनमें से मॉरीशस द्वीप की जनसंख्या 12, 19, 265, रोड्रिग्ज द्वीप की 41,669 एवं अगालेगा और ब्रेडन द्वीप की जनसंख्या 274 है। 1972 की जनगणना के आँकड़ों में नृजातीय गणना संबंधी विवरण हटा लिए गए इस कारण आधिकारिक तौर पर नृजातीय समूहों का विवरण नहीं उपलब्ध हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार हिंदू धर्म 51.9 प्रतिशत, ईसाई धर्म 31.4 प्रतिशत, इस्लाम 15.3 प्रतिशत एवं बौद्ध धर्म 0.4 प्रतिशत है।
औपनिवेशिक सत्ता
पुर्तगाली और डच आगमन
आज से करीब ढाई हजार साल पहले फिनीशियन नाविक अफ्रीका के पश्चिमोत्तर तटों की खोज करते हुए केप ऑफ़ गुड होप अंतरीप को पार करके हिंद महासागर से होते हुए लाल सागर में पहुँचे थे। पुराने डच नक्शों में अरबी सूत्रों पर आधारित ऐसे प्रमाण मिलते हैं, जिनसे पता चलता है कि सातवीं शताब्दी से ही अरब नाविकों का आगमन हिंद महासागर में हो गया था। अरब के प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता अल इदरीसी ने सन् 1153 ई. के एक नक्शे में अफ्रीकी द्वीपों के नाम अंकित किए थे। इसी नक्शे पर आधारित कांटीनों के विश्व नशे में मासकारेने के तीन द्वीपों के नाम अंकित हैं-मॉरीशस का दीना अरोबी; रीनियन का दीना मारग्रावीन और रोड्रीगज का दीनामोराज प्रख्यात पुर्तगाली नाविक वास्को-द-गामा 1498 ई. में केप ऑफ़ गुड होप से होकर भारत की ओर जा रहा था।
उन्हीं दिनों पुर्तगालियों ने प्रथम बार मॉरीशस का दौरा किया था। अलबुकर्क ने डोमिंगो फर्नाडज को हिंद महासागर में अनेक बार साहसिक यात्रा पर भेजा। सन् 1510 ई. के ऐसे ही एक यात्रा के दौरान डोमिंगो फर्नांडज के जहाज ने मॉरीशस को छू लिया। उस समय की प्रथा के अनुसार जहाज के कप्तान ने अपने नाम के आधार पर ही द्वीप का नामकरण किया। इसी कारण इस द्वीप का पहला नाम 'डोमिंगो फर्नांडज' रखा गया था। पुर्तगालियों ने प्रवेश अवश्य किया था, परंतु इस द्वीप पर बसने का उनका कोई इरादा नहीं था। फिर भी केप ऑफ़ गुड होप (उत्तमाशा अंतरीप) और एशियाई तटों के मध्य स्थित मॉरीशस का इस्तेमाल वे अपने टूटे जहाजों की मरम्मत के लिए अथवा सिर्फ मीठा पानी के लिए करते थे।
डचों का आगमन
सोलहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में यूरोप की एक अन्य जाति- डच लोगों का प्रवेश हिंद महासागर में हुआ। उन्होंने सन् 1596 ई. में केप ऑफ़ गुड होप को पार किया और इंडोनेशिया की ओर बढ़कर वटेविया को अपना केंद्र बनाया था। जावा, सुमात्रा और बोर्नियो आदि देशों में अपनी व्यापारिक स्थिति को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से, डच कंपनी ने सन् 1595 ई. में आठ मालवाही जहाज पूर्वीय द्वीप समूह की ओर भेजे थे। यह बेड़ा दक्षिण के पास तितर-बितर हो गया था। इसी बिछड़े बेड़े के पाँच जहाज, कप्तान वाय ब्रांत वान वारविक की देख-रेख में हिंद महासागर के दक्षिण-पूर्व की ओर चले जा रहे थे। कप्तान को मालूम था, कुछ छू जाने पर उन्हें मानसूनी हवाओं का लाभ होगा। परंतु इसी दिशा में जाते-जाते उनके जहाज पहली बार 1598 ई. में मॉरीशस द्वीप पर जा पहुँचे थे।
एक नए द्वीप की खोज की खुशी में कप्तान ने इसका नामकरण अपने देश के राजकुमार के नाम पर कर दिया। राजकुमार का नाम था 'मॉरिस ऑफ़ नासो'। अतः द्वीप का दूसरा नाम 'मॉरीशस' तब से ही प्रचलित हुआ। गृह सरकार की उदासीनता, चूहों तथा मक्खियों के आतंक असफल खेती तथा प्लेग के • प्रकोप से तंग आकर सन् 1710 ई. में डच लोगों ने द्वीप छोड़ दिया। यहाँ केवल कुछ दास रह गए। इससे पूर्व भी 1658 ई. में तथा 1661 में स्थायी लाभ न होने की स्थिति में उन्होंने द्वीप को त्यागा था, परंतु इस बार वे इस द्वीप को हमेशा के लिए छोड़कर चले गए।
फ्रांसीसी उपनिवेश
मॉरीशस में फ्रांसीसियों का आगमन डचों के जाने के लगभग 5 वर्षों बाद हुआ। फ्रांसीसी यूनियन द्वीप पर पहले से ही रह रहे थे।
जिफ्रेंन, 'ल सासेर जहाज के कप्तान ने 20 सितंबर, सन् 1715 ई.. को इसे अपने अधिकार में ले लिया। उन्होंने द्वीप का नाम बदलकर 'इल द फ्रांस (फ्रांस का द्वीप) रखा। पाँच वर्ष तक यह द्वीप प्रायः जनशून्य ही रहा। 21 अक्टूबर, 1721 ई. को फ्रांसीसी पुनः द्वीप पर वापस आए फ्रांस के राजा ने मॉरीशस के प्रथम गवर्नर के रूप में 'न्योंन' को नियुक्त किया तथा फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी के कुछ कर्मचारियों को यहाँ भेजा। गवर्नर ने इन्हीं कर्मचारियों के सहयोग से एक उच्च परिषद की स्थापना की, जिसके माध्यम से शासन प्रारंभ हो गया। न्योन ने 'व्ये ग्रां पोर को अपनी राजधानी बनाया। न्योन के बाद 'ब्राउन' को गवर्नर बनाया गया। ये बहुत सदाचारी था।
इसने मानवहित में कानून जारी किया जो इसके विरोध का कारण बना। तदुपरांत सन् 1726 से 1735 ई. तक मापें यहाँ का राज्यपाल रहा। उन्होंने द्वीप की राजधानी व्ये-ग्रां पोर से हटाकर, पोर्ट लुई को नई राजधानी बनाया। सन् 1730 में द्वीप की आबादी 160 थी। एक गवर्नर, 30 फ्रेंच, 20 दास और प्रथम व द्वितीय रेजिमेंट के 53-53 स्वीट्ज सैनिक थे।
मॉरीशस पहले फ्रेंच इंडिया कंपनी के माध्यम से संचालित था, परंतु यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं रही और सन् 1735 में द्वीप की देखरेख एक कुशल योद्धा एवं शासक 'महे द लाबोदने' के हाथों में आ गई।
इन्हें मॉरीशस में फ्रेंच शासन की पक्की नींव रखने का श्रेय प्राप्त है। सन् 1767 में फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी ने 2,50,000 रुपये में इल-द-फ्रांस (मॉरीशस) को फ्रांसीसी सरकार को बेच दिया। फ्रेंच इंडिया कंपनी की देखरेख में दे फोश बूशे अंतिम गवर्नर रहा।उस समय द्वीप की जनसंख्या लगभग 18000 थी, जिसमें 3 हजार यूरोपियन और 15 हजार काले दास थे। उस समय तक कोई 6400 बीघे जमीन पर खेती होती थी। बूशे के राज्यकाल में इंग्लैंड और फ्रांस के मध्य दुश्मनी पैदा हो गई । सप्तवर्षीय युद्ध में अंग्रेजों की जीत हुई तथा मॉरीशस में पियरेप्वात्र प्रशासक नियुक्त हुए।
यूरोप के अधिकांश देशों को जीतकर नेपोलियन महान ने पूर्व के देशों को जीतने का स्वप्न देखना प्रारंभ कर दिया।
नेपोलियन भारत पर अधिकार बनाए रखने के लिए मॉरीशस की सामरिक उपयोगिता को समझता था। सन् 1805 ई. में ट्राफ़नगर की लड़ाई लड़ी गई। इस युद्ध में अंग्रेजों की जीत हुई। हिंद महासागर के इलाके में भी अंग्रेजों ने सन् 1809 ई. में रोड्रीगज और 1810 ई. में रीयूनियन पर अधिकार जमा लिया। अंग्रेजों की इस सफलता के पीछे भी भारतीय सैनिकों का हाथ था। 20 अगस्त, सन् 1810 ई. को वीर योद्धा मोताई लोंग ने मैदान की ओर बढ़कर फ्रेंचों को हरा दिया। 3 दिसंबर 1810 ई. को दोनों के मध्य समझौते की शर्तों के अनुसार-
1- सभी सिपाही अपने हथियार और सामान सहित अंग्रेजी व्यय पर फ्रांस चले जाएंगे।
2- किसी की संपत्ति को नहीं छीना जाएगा।
3- दो वर्ष में जो जाना चाहे जा सकते हैं, वे अपने सामान भी लेकर जा सकते हैं।
4- फ्रांसीसी रीति, फ्रांसीसी भाषा, रोमन कैथोलिक चर्च ज्यों का त्यों बना रहेगा। सन् 1815 ई. में पेरिस संधि द्वारा रीयूनियन द्वीप फ्रांस को दे दिया गया और इस प्रकार मॉरीशस अंग्रेजों के अधिकार में आ गया।
अंग्रेजी उपनिवेश
3 दिसंबर, 1810 ई. को अंग्रेज और फ्रेंच के मध्य हुए समझौते के आधार पर मॉरीशस अंग्रेजों के अधिकार में आ गया और प्रथम गवर्नर फारकूहार नियुक्त हुए।
इनका शासन काल सन् 1810 से 1823 ई. तक रहा। इसी बीच जनरल हाल, डालरिम पल और डार्लिंग ने सन् 1817 से 1820 ई. तक गवर्नर का पद संभाला था।
जिस समय मॉरीशस पर अंग्रेजों का अधिकार हुआ; उस समय मॉरीशस में सात हजार गोरे, साढ़े सात हजार स्वतंत्र दास, साठ हजार दास और छह हजार भारतीय (हिंदू और मुस्लिम) रहते थे। ये भारतीय घरेलू नौकर, मोची, सुनार आदि के रूप में कार्यरत थे।
गवर्नर फारकूहार ने सबसे पहले द्वीप का नाम बदल कर पुनः मॉरीशस रख दिया। पोर्ट नापोलाओं को पोर्ट लुई और पोर्ट एंपेरियल को ग्रां पोर्ट में परिवर्तित कर दिया। फारकूहार ने सन् 1810 ई. में द्वीप के सभी निवासियों से जार्ज तृतीय के राजभक्त होने की शपथ ली थी। गवर्नर फारकूहार ने 1816 ई. में भारतीय कैदियों की सहायता से द्वीप की अधिकांश सड़कों एवं दुर्ग का निर्माण कराया।
अंग्रेजी सत्ता के अधीन गन्ने की खेती के कारण अर्थव्यवस्था में व्यापक वृद्धि दर्ज की गई। अंग्रेजों द्वारा गन्ने की खेती को बढ़ावा देने के लिए फ्रांसीसी जमींदारों को अन्य उपनिवेशों के समान सुविधाएँ देने के कारण चीनी का उत्पादन तेजी से बढ़ा। 1834 ई. में दास प्रथा की समाप्ति के कारण मजदूरों की कमी ने चीनी उद्योग के लिए संकट पैदा कर दिया था।
इस समस्या के समाधान के लिए 1834 ई. में अंग्रेजों द्वारा एक महान प्रयोग का आरंभ किया गया।
गन्ने की खेती एवं महान प्रयोग
इंडेंचर का आरंभ बागान उपनिवेशों में हुई श्रम की कमी को पूरा करने के आरंभिक प्रयासों की विफलता के कारण हुआ और इसने सर्वप्रथम भारत की ओर ध्यान आकर्षित किया। 1834 ई. से मॉरीशस में संविदा के तहत लाए गए 36 भारतीय धांगर श्रमिक सफलतापूर्वक कार्य कर रहे थे। इस संविदा में यह निहित था कि श्रमिक प्लांटर के लिए कार्य करेगा अथवा किसी ऐसे ही व्यक्ति के लिए स्थानांतरित किया जा सकेगा,
संविदा की अवधि पाँच वर्ष के लिए पारिश्रमिक (रू. 10 प्रति माह), रसद सामग्री, वस्त्र एवं चिकित्सा सुविधा एवं संविदा पूर्ण कर लिए जाने पर कलकत्ता हेतु मुफ्त वापसी की व्यवस्था की जानी थी। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में अनुबंधित श्रमिक व्यवस्था एक विश्वव्यापी घटना थी। इसे मॉरीशस में ब्रिटिश लोगों द्वारा एक महान प्रयोग के रूप में प्रारंभ किया गया। गुलामी प्रथा की समाप्ति के बाद ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता द्वारा इस महान प्रयोग के द्वारा गुलाम मजदू की तुलना में स्वतंत्र मजदूर को बेहतर सिद्ध करने का प्रयास किया गया। इस प्रणाली के अंतर्गत भारत, चीन, अफ्रीका एवं दक्षिण-पूर्व के देशों से बड़े पैमाने पर श्रम आयातक उपनिवेशों के लिए मजदूरों का प्रवासन हुआ । मॉरीशस इस प्रणाली को लागू करने वाला पहला देश बना एवं सफल सिद्ध होने पर इसे अन्य उपनिवेशों में भी अपनाया गया।
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