दक्षिण अफ्रीका में मोहनदास करमचंद गांधी - Mohandas Karamchand Gandhi in South Africa
दक्षिण अफ्रीका में मोहनदास करमचंद गांधी - Mohandas Karamchand Gandhi in South Africa
मोहनदास करमचंद गांधी का आगमन
मोहनदास करमचंद गांधी 1891 ई. में बैरिस्टर होकर भारत लौटे और अप्रैल 1893 ई. में 24 वर्ष की आयु में हिंदुस्तान से एक वर्ष के करार और 105 पौंड की फीस पर मई में डरबन पहुँचे। डरबन में पोरबंदर, गुजरात के मेमन व्यापारी दादा अब्दुल्ला की व्यापारिक फर्म और प्रिटोरिया में पोरबंदर के ही मेमन व्यापारी तैयब हाजी खान अहमद की भी व्यापारिक फर्म थी। दोनों के बीच व्यापारिक विवाद से संबंधित मुकदमों के लिए उनके द्वारा नियुक्त अंग्रेज़ वकीलों, बैरिस्टरों को गुजराती करार को अंग्रेजी में समझाने के लिए एम. के. गांधी को दादा अब्दुल्ला की तरफ से एक वर्ष के करार और 105 पौंड की फीस पर अप्रैल 1893 ई. में डरबन भेजा गया।
दक्षिण अफ्रीका की धरती पर कदम रखने वाले वे पहले भारतीय बैरिस्टर थे और पहले भारतीय जिन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त थी। मुकदमे के सिलसिले में रेल मार्ग से डरबन से प्रिटोरिया जाते समय कड़ाके की ठंड में आधी रात को मैरिसबर्ग स्टेशन पर गोरे रेलवे पुलिस के द्वारा नस्ल और रंगभेद की मानसिकता के कारण प्रथम श्रेणी की टिकट के बावजूद गांधी को अपमानित करके और धक्के मारकर उनके समान को बाहर फेंक दिया गया। रात भर प्रतीक्षालय रूम में काँपते हुए एम. के. गांधी सोचते रहे कि इस अपमान के कारण यहाँ से भाग जाना कायरता होगी।
हाथ में लिया हुआ अपना काम मुझे पूरा करना ही चाहिए। व्यक्तिगत अपमान सहकर और मार खानी पड़े तो मार खाकर भी मुझे प्रिटोरिया पहुँचना ही चाहिए" इस घटना से उनका जीवन ही परिवर्तित हो गया। गांधी जी ने उस दिन से दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार के दमन एवं भेदभाव का विरोध प्रारंभ कर दिया। प्रवासी भारतीयों को संगठित कर उन्होंने सत्याग्रह आंदोलन छेड़ दिया।
दादा अब्दुल्ला के कार्य की समाप्ति के बाद 1894 ई. में उन्होंने एम. के. गांधी की विदाई के अवसर पर एक समारोह किया। वहीं उनके हाथ 'नटाल मर्क्युटी' नामक अखबार लगी,
जिसमें एक समाचार छपा था कि नटाल सरकार हिंदुस्तानियों को मताधिकार से वंचित करने के लिए एक कानून पास करने वाली थी। इस कानून का विरोध करने के लिए सारे हिंदुस्तानियों ने गांधी को नटाल में रुकने के लिए आग्रह किया। नटाल में सुप्रीम कोर्ट में वकालत के लिए गांधी ने अरजी दिया, जो विरोध के बाद स्वीकार हुआ। दक्षिण अफ्रीका के नटाल के सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में पंजीकृत किए जाने वाले वे पहले भारतीय थे। तब से गांधी 1914 ई. तक दक्षिण अफ्रीका में रहे। यह प्रवासन उनके आध्यात्मिक, सामाजिक, राजनैतिक विकास के लिए महत्वपूर्ण था।
वे प्रवासी भारतीय समुदाय के अग्रगण्य नेता के रूप में प्रतिष्ठित हुए। जून 1894 ई. में नटाल में भारतीयों को संगठित करने, अपने अधिकार के प्रति सचेत रखने के लिए नटाल के सभी भारतीय वर्गों के सहमति और सहयोग से 'नटाल इंडियन कांग्रेस' की स्थापना की, जिसका मंत्री एम. के. गांधी को बनाया गया। 1896 ई. के मध्य गांधी जी भारत लौटे। भारत आकर दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के आंदोलन के लिए भारतीय नेताओं से समर्थन माँगा। इसी उद्देश्य से वे बंबई में फिरोजशाह मेहता, बदरूद्दीन तैयबजी, महादेव गोविन्द रणाडे, पूना में लोकमान्य तिलक, प्रो. भंडारकर, गोपाल कृष्ण गोखले जैसे बड़े नेताओं से मिलकर दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीयों की स्थिति से परिचय कराया। उसी वर्ष वे अपने परिवार के साथ पुनः दक्षिण अफ्रीका पहुँचे।
गांधी जी निरंतर दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के मानवाधिकारों के लिए ब्रिटिश गोरी सरकार के विरुद्ध संघर्षरत रहे। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की अफ्रीकी सरकार अनिवार्य पंजीकरण तथा हस्तमुद्रण, अंतःप्रांतीय अप्रवासन पर प्रतिबंध बंधक मज़दूरों पर लगाए गए कर तथा ईसाई विवाहों के अतिरिक्त अन्य सभी विवाहों को अमान्य ठहराने वाले कानूनों का डटकर विरोध किया। वहाँ उन्होंने 1899 में बोअर युद्ध के समय इंडियन एबुलेंस कोर' का गठन किया जिसने युद्ध में उल्लेखनीय सेवा कार्य किया और उसके बदले उन्हें 'बोअर युद्ध पदक' प्रदान किया गया। बोअर युद्ध की समाप्ति के बाद 1901 ई. के अंत में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे। 1902 ई. में गांधी जी को प्रवासी भारतीयों के निमंत्रण पर पुनः दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। वे ट्रांसवाल के सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में पंजीकृत हुए और ट्रांसवाल ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन' की उन्होंने स्थापना की।
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