हिन्दी की जनपदीय भोजपुरी बोली के लोक-साहित्य का परिचय - Introduction to the folk literature of the regional Bhojpuri dialect of Hindi

हिन्दी की जनपदीय भोजपुरी बोली के लोक-साहित्य का परिचय - Introduction to the folk literature of the regional Bhojpuri dialect of Hindi


1. लोक-कथाएँ :


आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार लोक कथा लोक में प्रचलित वे कथानक हैं जो मौखिक परम्परा से क्रमश: एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती है। हिन्दी साहित्य कोश में लिखा है कि लोक में प्रचलित और परम्परा से चली आने वाली मूलतः मौखिक रूप से प्रचलित लोक कहानियाँ ही लोक कथा कहलाती हैं। इन कथाओं में प्रेम, जीवन का संघर्ष, न्याय की माँग, सुखान्त, रहस्य एवं रोमांच उत्सुकता और वर्णन की स्वाभाविक शैली मुख्य है। लोक-कथाओं में वीरगाथा, किंवदन्ति या जनश्रुति, प्रसिद्ध प्रेम-प्रसंग आदि इसके वर्ण्य विषय होते हैं।

भोजपुरी लोक कथाएँ जनसामान्य में बहुत अधिक प्रचलित हैं जो प्रायः उपदेशात्मक, मनोरंजन, पौराणिक, धार्मिक, हितोपदेश, सामाजिक प्रसंग, विभिन्न त्योहार, व्रत-कथाओं आदि से विषयों पर आधारित होती हैं। धार्मिक एवं सामाजिक उत्सवों के अवसर पर लोक कथाएँ सुनने और सुनाने का प्रचलन है। अक्सर ललही छठ (जिसे हलषष्ठी भी कहा जाता है), बहुला चौथ, कजरी, सावन के मौके, व्रत और त्योहार के अवसर पर कथाएँ कही और सुनी जाती हैं। मांगलिक कार्यों के दौरान सत्यनारायण की कथा भी इन्हीं लोक- कथाओं का ही उदाहरण है । इसके अतिरिक्त कुछ लोक कथाएँ सामाजिक और पारिवारिक प्रेम की अभिव्यक्ति भी करती हैं जिनमें मानिकचन्द्र की कथा का विशेष महत्त्व है।

इस कथा में एक पत्नी द्वारा कुष्ठरोग से ग्रस्त पति की सेवा कर समाज के सामने सच्चे पातिव्रत धर्म और एक आदर्श अर्द्धांगिनी का रूप प्रस्तुत किया जाता है। मानिकचन्द्र की कथा पति-पत्नी के पारस्परिक प्रेम की अभिव्यंजना है। विभिन्न राजा-रानियों की कहानी, पौराणिक कहानियाँ भी लोक कथाओं के अन्तर्गत अत्यधिक लोकप्रिय हैं। इन कथाओं में कई गद्य एवं पद्य मिश्रित कथाएँ भी हैं। जैसे, फरगुद्दी यानी गौरैया की कथा, मानिकचन्द्र की कथा, लछटकही की कथा आदि ।


फरगुद्दी की कथा का सामान्य परिचय :


एक बार एक फरगुद्दी (गौरैया) को घूमते हुए कहीं से एक चने का दाना मिल जाता है।

जिसे दरने के लिए वह उसे एक जाँत पर लाती है और उसका एक टुकड़ा जाँत की डंडी में फँस जाता है। आगे का विवरण देखिए-


बढ़ई बढ़ई खूँटा चीर। खूँटा में मोर दाल बा । का खाई का पिई, का लई जाई परदेस ॥


बढ़ई कहलस: हाँ, हम एगो दाल खातिर खूँटा चीरे जाई...? फरगुदी राजा के दरबार में अरजी


लगवलस।


राजा राजा बढ़ई डाँट ।


बढ़ई न खूँटा चीरे। खूँटा में मोर दाल बा । का खाई का पीई का लई जाई परदेस ॥


इसमें फरगुद्दी बढ़ई से खूँटा चीरने के लिए अनुनय-विनय करती है। जिसके न मानने पर वह राजा, फिर राजा से रानी, फिर रानी से साँप, फिर साँप से लाठी, फिर लाठी से आग, फिर आग से समुद्र, फिर समुद्र से हाथी और फिर हाथी के न मानने पर अन्ततः चींटी से अर्जी करती है और चींटी फरगुद्दी की सहायता के लिए राजी होती है। चींटी फरगुद्दी की सहायता के लिए चल पड़ती है।

दोनों को साथ देख हाथी डर जाता है और सोचता है कि कहीं चींटी मेरी सूंड में घुस जाएगी तो मुझे बिना मौत के मरना होगा। तब वह समुद्र सोखने के लिए राजी हो जाता है। हाथी को अपनी ओर आता देख समुद्र कौंपकर आग बुझाने के लिए तैयार हो जाता है। आग को देख लाठी साँप को मारने के लिए तत्पर हो जाती है। लाठी को अपनी ओर आता देख साँप रानी को डँसने के लिए अपनी स्वीकृति दे देता है। साँप को डसने के लिए सहमत होते देख रानी राजा को समझाने के लिए तैयार हो जाती है और रानी के समझाने पर राजा आदेश देने के लिए तत्पर हो जाता है। राजा के आदेश पर अन्ततः बढ़ई का खूँटा चीरा जाता है। खूँटा चीरते ही फरगुद्दी की दाल बाहर निकल आती है और फरगुद्दी अपनी दाल लेकर परदेस चली जाती है। इस प्रकार यह एक नन्हीं सी गौरैया की संघर्षगाथा है।


इसके अतिरिक्त कौवा हकनी एक स्त्री के सौतिया डाह की मार्मिक कथा है। इसी तरह दुखिया सुखिया दो बहनों की एक कहानी भी लोक प्रसिद्ध है, जो ज्युतिया व्रत से सम्बन्धित है। ये सभी भोजपुरी लोक कथाओं के उत्तम उदाहरण हैं।


2. लोक गाथा:


सरल वर्णनात्मक शैली में गीत के माध्यम से लोक सम्पत्ति वाली वे कथाएँ, जिनका प्रचार मौखिक रूप से हुआ हो, उसे लोक गाथा कहते हैं। लोक गाथाओं का रचयिता अज्ञात रहता है। लोक गाथा में मूल पाठ के प्रमाण का अभाव, संगीत और नृत्य का अभिन्न संयोग,

स्थानीयता का पुट, सहज शैली, दीर्घ कथानक, एक-दो पंक्ति की पुनरावृत्ति और मौखिक परम्परा विद्यमान रहती है। इन कथाओं की विषयवस्तु में प्रेमकथा, वीरगाथा, स्थानीय चरित्र और रोमांचकारी लोकगाथाएँ लोकप्रिय हैं। बिहुला बिषधरी की गाथा, नयकवा बनजारा, भरथरी चरित्र आदि प्रेमपूर्ण लोक-गाथाओं के उदाहरण हैं तो आल्हा, लोरिकायन आदि वीरगाथात्मक लोक गाथाओं के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनमें आल्हा भोजपुरी भाषा की सबसे चर्चित लोक गाथा है। यद्यपि मूलतः यह बुंदेलखंडी भाषा में कवि जगनिक द्वारा रची गई थी परन्तु वह मूल स्वरूप आज दुर्लभ है। इस वीरगाथा का कन्नौजी और भोजपुरी में भी अनुवाद हो चुका है। कालान्तर में भोजपुरी भाषा में इसे अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई। इसे गाने वालों को अल्हैत कहा जाता है।


लोरिकायन :


इस लोक कथा में सोनभद्र के लोरिक नामक एक यादव राजा की वीरता का चरित्रांकन है। अपने प्रेम को प्रकट करने के लिए लोरिक ने अपनी ब्याहता पत्नी और प्रेमिका मंजरी के कहने पर एक बड़ी-सी शिला के अपनी तलवार से दो टुकड़े कर दिए थे जो आज भी रॉबर्ट्सगंज से शक्तिनगर मार्ग पर स्थित है। इस प्रकार यहलोक कथा प्रेमाख्यानक और वीररस के गुणों को अपने में समाहित किये हुए है।


बिहला विषधरी :


यह भोजपुर क्षेत्र में प्रसिद्ध करुण रसप्रधान लोक गाथा है। इसमें बेहुला अपने पति की सर्पदंश से मृत्यु हो जाने के बाद भी अपने कठोर तप के बल पर उसके प्राण बचा लेती है। 


ए राम कोहबर में रोवे सती बिहुला ए दइवा,


सुनि लोग दउड़ि आवे आवे ए राम ।


ए राम, आइके देखल हबलिया रे दइवा,


देखि सब रोदनिया करे ए राम ।


इसके अलावा गोपीचंद भरथरी, विजयमल, राजा ढोलन, नयकवा बनजारा, नल-दमयन्ती की प्रेमकथा, चनैनी आदि लोक गाथाएँ भोजपुर में अति प्रसिद्ध हैं।

इनमें गोपीचंद भरथरी की कथा उनके वैराग्य की गाथा है। जिसे स्थानीय जोगी सारंगी बजाकर घूम-घूमकर गाते हैं।


3. लोक गीत :


भोजपुरी के अधिकांशलोक गीत त्योहारों और संस्कारों पर आधारित हैं। कजरी, फगुआ, चौताल आदि त्योहारों के लोक गीत हैं तो सोहर मांगलिक संस्कारों अवसरों पर गाये जाने वाले लोक गीत हैं। कहीं-कहीं इसे मंगल, सोहिला या ब्याई भी कहा जाता है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी सीतापति रामचन्द्र से सम्बन्धित रचना रामलला नहछू में भी सोहर नामक छन्द का प्रयोग बड़े मनोयोग से ही किया है।

इसी प्रकार मुंडन के गीत, जनेउ के गीत, विवाह के गीत, वधू पक्ष के विवाह गीत के 24 प्रकार, तो वहीं वर पक्ष के विवाह गीत के 12 प्रकार बताए जाते हैं। इन्हें अलग-अलग संस्कारों के दौरान गाये जाने का चलन है। फिर गवना का गीत, मृत्यु के गीत आदि संस्कार गीत ही हैं जबकि जैतसार, जो जाँत से चक्की चलाकर आटा पीसने, रोपन गीत धानों को रोपते हुए, सोहनी खेतों से व्यर्थ की घास और पेड़-पौधों के अलग करने अर्थात् निराते समय गाये जाने वाले लोक गीत हैं जिन्हें श्रमजन्य कार्यों के अवसरों पर गाया जाता है। कुछ लोक गीत ऐसे हैं जिन्हें जाति विशेष के लोग ही गाते हैं, जैसे- बिरहा। बिरहा में विरह सम्बन्धी भावों की अभिव्यंजना होती है।

यद्यपि वर्तमान समय में इसके स्वरूप में काफी फेरबदल हो चुका है। बिरहा गाने में अहीर जाति के लोग बड़े माहिर होते हैं। विवाह के समय बिरहा गाये जाने का प्रचलन है। अपने वास्तविक रूपानुसार गाये जाने पर इसके भाव अधिक प्रभावी रहते हैं। जैसे विरह के अवसर पर


पिया पिया कहत पियर भइल देहिया, लोगवा कहेला पिड़रोग, गंडवा के लोगवा मरमिया न जानेला, भइले गवनवा न मोर।


इसी प्रकार हरिजन जाति के लोग देवी पचरा गाते हैं। धोबी जाति के लोग धोबी गीत, गड़ेरिया जाति के लोग गिरिया और पड़ोकी मार गीत गाते हैं तो कहार जाति के लोग कहरउ और तेलियों में कोल्हू गीत गाने की प्रथा है।

इसी प्रकार अन्य जातियों के लोग भी अपनी परम्परानुसार गीत गाते हैं। इसके अलावा कुछ अन्य प्रकार के गीत भी प्रसिद्ध हैं जिनमें अलचारी प्रमुख है। अलवारी में स्त्री-वियोग का वर्णन होता है। अलचारी शब्द लाचारी से सम्बन्धित है। दरअसल अलचारी महिलाओं की पति वियोगजन्य स्थिति का परिचय देता है। जब- या तो पति परदेस गया हो और जल्दी लौट कर नहीं आया हो अथवा कुछ दिन साथ रहकर अब परदेस जाने के लिए तैयार हो तब यहाँ महिलाएँ अपने पति को परदेस न जाने के लिए किंवा शीघ्र लौटकर आने के लिए मनाती हुई दिखाई देती हैं। इसके साथ ही भोजपुरी लोक गीतों में संस्कार गीत, जिसमें सोहर, छठी, मुंडन, नामकरण, विवाह,

गौना, ज्युनार गीत, विदाई, मृत्यु गीत आदि भी प्रचलन में हैं। भारतीय परम्परा में ऋतुओं का स्वागत लोक जनमानस अपने भावों के उद्गारों द्वारा करता है। इन ऋतु-गीतों में सावन का कजरी गीत, फाल्गुन में फाग गीत और होली गीत तथा चैता (चैत्र) गीत का सम्बन्ध लोकनायिकाओं के प्रेम के संयोग-वियोग भाव से है.


का करे तब पिआ अइहै हो रामा, जब चैत बीति जइहैं। अमवा मोजरि गइले फरले टिकोरवा डारि डारि भइल मतबरवा हो रामा । सुतलपिआ के जगावे हो रामा, काइल बड़ी पापिनि ।


कजरी गीत :


इसे स्त्रियाँ सावन में झूला झूलते हुए गाती हैं-


सझियाँ रेलिया से हो बलमवा मोर बिदेसवा गइले ना । रतिया कारी मोरी भइली, निदिया भइली ना।


खेती-गृहस्थी के गीत-श्रमजीवी स्त्रियाँ अपनी थकान कम करने के लिए तथा अपने भावों की अभिव्यक्त करने के लिए काम करते वक्त गाती हैं।


4. जंतसार :


नहाए जे गइलीं हो मो बाबा के पोखरवा हो,


घोड़ा चढि अइले कुँवरवा रे ना। एक ओरि बिरन दुजे कुँवर सनेहियाँ तजि दिहली आपन देहिया ।

हँस हँसि बिरना हो डाले महजलिया, बझल आवे हरवा कंगनवा हो ना। रोई रोई कुंवर हो डाले महा जलिया बझल आवे घोंघवा सेवरवा हो ना। सिर धुनि रोवे हो राजा के कुँवरवा चलि गइलि चिरई हमार न हो।


रोपनी गीत :


धान की रोपाई के समय गाये जाने वाले लोक गीत का उदाहरण प्रस्तुत है. -


मोरे मन भावे रजपुतवा हाय रे सखी, मचरमचर करे जुतवा हाय रे सखी ।



तीज-त्योहार के गीत :


तीज-त्योहार के गीत पिड़िया, बहुरा, गोवर्धन पूजा, जन्माष्टमी, छठगीत, व्रत के गीत देश-विदेश तक गाये जाते हैं। स्त्रियाँ सूर्योपासना कर छठमाई का व्रत करती हैं-


कोपि कोपि बोललि हो छठी मइया, सुन ए सेवेते का लोग ।


मोरे घाटे दुबिया उपजली, मकड़ी लिहली बसै । कर जारि बोलेले सेवक लोग तोर घाटे दुबिया छिलैबो, मकड़ी देबो उजार।


5. लोक नाट्य :


लोक नाट्य का सम्बन्ध साधारण जनसमूह से है। यह मंच सबके लिए सुलभ है और दर्शकों में कोई वर्गभेद नहीं है।

लोक नाट्य में लोक विश्वास पर आधारित लोक कथानकों का प्रतिनिधित्व रहता है। ये नाटक लोगों से गहरे जुड़े होते हैं। इनमें गीत-संगीत, अभिनय, कथ्य सब कुछ समान रूप में रहता है। लोक नाट्य में राम लीला, रास लीला, नौटंकी, ऐतिहासिक कथानकों पर आधारित नाट्य प्रमुख हैं। भोजपुरी लोक नाट्य में भिखारी ठाकुर का बिदेसिया नाटक सर्वाधिक लोकप्रिय है। नाटक का कथानक उस बिदेसिया पति पर आधारित है जो बहुत दिनों से परदेस में गया है और अपनी नौकरी के कारण पत्नी और परिवार से कई दिनों तक मिल न पाया हो, जिससे व्यथित होकर बिदेसिया की पत्नी किसी माध्यम से अपना विरह सन्देश भिजवाती है और सन्देश पाकर पति द्रवित होकर अपनी नौकरी छोड़कर अपने परिवार के पास घर लौट आता है।


गवना कराइ सैंया घर बइठवले,


अपने गइले परदेस रे बिदेसिया ।


चढ़ली जवनिया बइरिनि भइली हमरी, केकरा लक लिखिकै मैं पतिया पठइबों,


के मोरा हरिहे कलेस रे बिदेसिया ।


केकरा से पठड़बाँ सनेस रे बिदेसिया ।


इसके साथ रविदत्त शुक्ल-कृत देवाक्षर चरित और राहुल सांकृत्यायन-कृत नइकी दुनिया, दुनमुन नेता, मेहरारुन के दरदसा, जोंक, ई हमार लड़ाई, देस रच्छक,

लरमनवा के हार निहिचय आदि नाटक लोकप्रिय हैं। गोरखनाथ चौबे- कृत उल्टा जमाना, रामविचार पाण्डेय-कृत कुँवर सिंह और रामेश्वर सिंह कश्यप कृत हास्य रस से परिपूर्ण लोहासिंह लोक नाट्य भोजपुर में मंचित होते रहे हैं।


6. प्रकीर्ण साहित्य :


प्रकीर्ण साहित्य का आशय है, लोकसुभाषित, मुहावरे, लोकोक्ति, लघुगीत, बाल गीत, खेल गीत आदि । इन सभी का अध्ययन प्रकीर्ण साहित्य के अन्तर्गत किया जाता है।

लोकोक्ति :


डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने लोकोक्ति को परिभाषित करते हुए लिखा है- "लोकोक्तियाँ मानवीय ज्ञान के चोखे और चुभते हुए सूत्र हैं।" अनन्तकाल तक धातुओं को तपाकर सूर्यराशि नाना प्रकार के रत्न-उपरत्नों का निर्माण करती हैं, जिनका आलोक सदा छिटकता रहता है। उसी प्रकार लोकोक्ति मानवीय ज्ञान के घनीभूत रत्न हैं, जिन्हें बुद्धि और अनुभव की किरणों से फूटने वाली ज्योति प्राप्त होती है। इसका सीधा सम्बन्ध मानवीय ज्ञान, अनुभव और कथन शैली से है। लोकोक्ति के उदाहरण इस प्रकार हैं. -


शठे शाठ्यम समाचरेत ।

ऊँट के मुँह में जीरा


धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का।


आछो मंत्री राज नासै।


बालगीत :


मेघराजा पानी दे, पानी दे गुड़ धानी दे।


गरम जिलेबी ठंडा पानी, पेटझरी त हम ना जानी ॥


पालना गीत :


चंदा मामा आरे आव पारे आव, नदिया किनारे आव, बबुआ के मुँह में घुटुक ।



खेल गीत :


उक्का-बुक्का तीन तलुक्का, लउवा लाची, चंदन काठी, बाग में बगैचा डोले, सावन में कनैला फूलै, इजइल बिजइल, पान फूलन, बाबजी का ढोढ़िया पचक ।


अन्य लोक प्रसिद्ध गीत का उदाहरण द्रष्टव्य है-


बम लहरी, बम-बम लहरी,


आजमगढ़ से चलल गाड़ी चल दोहरी ।