शुक्लोत्तर हिन्दी आलोचना की मुख्य प्रवृत्तियाँ - Main trends of Shuklottar Hindi criticism
शुक्लोत्तर हिन्दी आलोचना का विकास कई रूपों में हुआ और विशिष्ट आलोचकों के साथ-साथ आलोचना की नयी धाराएँ भी सामने आई। ऊपर इस दौर के मुख्य आलोचकों के योगदान पर हम संक्षेप में चर्चा कर चुके हैं। आइए, अब उन प्रवृत्तियों और पद्धतियों की कुछ चर्चा करें जिनका विकास शुक्लोत्तर युग में हुआ। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के बाद हिन्दी आलोचना का विकास विविधतापूर्ण ढंग से हुआ और कई नयी प्रवृत्तियाँ प्रकट हुई। हिन्दी की रचनाशीलता और साहित्यिक परम्परा के मूल्यांकन में शास्त्रीय आलोचना, स्वच्छन्दतावादी आलोचना, मनोवैज्ञानिक या मनोविश्लेषणवादी आलोचना, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक आलोचना मार्क्सवादी आलोचना तथा नयी समीक्षा आदि पद्धतियों का विकास हुआ।
स्वच्छन्दतावादी आलोचना
हिन्दी में स्वच्छन्दतावादी आलोचना का विकास छायावादी काव्य के विवेचन और मूल्यांकन के साथ हुआ। द्विवेदीयुग की सुधारवादी दृष्टि और नैतिकताबोध के स्थान पर कवि के अन्तर्जगत को अभिव्यक्त करने का अभियान साहित्य में नये युग के आरम्भ का स्पष्ट सूचक था। यद्यपि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल छायावाद को स्वच्छन्दतावाद से भिन्न मानते थे। उनके अनुसार हिन्दी में स्वाभाविक स्वच्छन्दतावाद की धारा छायावाद के आरम्भ से पहले मैथिलीशरण गुप्त और मुकुटधर पाण्डेय आदि कवियों के काव्य में प्रकट हो चुकी थी । वे रहस्यवाद को छायावाद का पर्यायवाची अथवा उसी में अन्तर्भुक्त मानते थे। मुकुटधर पाण्डेय ने छायावाद के आरम्भिक लक्षणों की पहचान करते हुए अपने निबन्ध 'छायावाद क्या है ?'
में बताया कि छायावाद के कवि वस्तुओं को साधारण दृष्टि से देखते हैं। साथ ही उनकी कविता में विचित्र उन्मादकता और अन्तरंगता होती है। जिसके कारण वस्तु उसके प्रकृत रूप में न दिखाई देकर एक अन्य रूप में दिखाई देती है। वस्तु के इस अन्य रूप का सम्बन्ध कवि के अन्तर्जगत् से है। अर्थात् छायावाद 'आत्मनिष्ठ अन्तर्दृष्टि' का काव्य है।
छायावादी कवियों ने भी अपने काव्य-संग्रहों की भूमिकाएँ और आलोचनात्मक निबन्ध लिखकर अपनी नवीन काव्य-दृष्टि को समझाने का प्रयास किया। जयशंकर प्रसाद ने लिखा कि साहित्य का कोई लक्ष्य विशेष नहीं होता है और न ही उसके लिए कोई विधि या निबन्धना है।
साहित्य स्वतन्त्र प्रकृति और सर्वतोगामी प्रतिभा के प्रकाशन का परिणाम है। नैतिकताबोध के स्थान पर सौन्दर्यबोध को महत्त्वपूर्ण मानने के कारण इस आलोचना- दृष्टि को सौन्दर्यवादी आलोचना भी कहा जाता है। हिन्दी की स्वच्छन्दतावादी आलोचना और रचनाशीलता यूरोपीय स्वच्छन्दतावाद से प्रेरित और प्रभावित थी। आत्मपरकता, भावप्रवणता, प्रकृति-प्रेम और कल्पना आदि यूरोपीय स्वच्छन्दतावाद की विशेषताएँ हिन्दी के स्वच्छन्दतावाद में भी पाई जाती हैं । स्वच्छन्दतावादी आलोचकों ने छायावादी काव्य में स्वच्छन्दता के मूल्यों के निरूपण का विवेचन किया और उसके कलात्मक सौन्दर्य को उद्घाटित किया । इस आलोचना-पद्धति के विकास में आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, शान्तिप्रिय द्विवेदी और डॉ० नगेन्द्र के नाम उल्लेखनीय हैं।
प्रभाववादी आलोचना
शुक्लोत्तर आलोचना में प्रभाववादी आलोचना भी सामने आती है, यद्यपि इस धारा का हिन्दी में अधिक विकास नहीं हुआ। प्रभाववादी आलोचना या प्रभावाभिव्यंजक आलोचना में आलोचक कृति के सौन्दर्य से प्रभावित होकर उस प्रभाव की व्याख्या करता है। इसमें आलोचना को रचना की तरह सौन्दर्यात्मक भूमि पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया जाता है। कृति के विवेचन में तर्कबोध के स्थान पर भावात्मकता प्रधान हो जाती है, आलोचना रचना का सा आनन्द देने लगती है और कभी-कभी वह रचना के मूल विषय से दू चली जाती है। हिन्दी में प्रभाववादी आलोचना के संकेत पद्मसिंह शर्मा के बिहारी सम्बन्धी विवेचन में मिलते हैं,
लेकिन शान्तिप्रिय द्विवेदी की आलोचना में यह स्पष्ट रूप से प्रकट हुई है। उन्होंने छायावाद की आलोचना काव्य के स्वतन्त्र आस्वादन के आधार पर की है और सहृदयतापूर्वक उसके काव्य-सौन्दर्य की व्याख्या की है। इसमें उन्होंने किसी सिद्धान्त का आश्रय नहीं लिया है। विशेष रूप से जब वे पंत की कविता का विवेचन करते हैं तब भावविह्वल हो जाते हैं और उसकी अच्छाइयों का उल्लेख भावपूर्ण ढंग से करते हैं। यहाँ उनका आलोचनात्मक लेखन काव्यात्मक हो जाता है, वे गद्य-काव्य लिखने लगते हैं। प्रभावाभिव्यंजकता डॉ० नगेन्द्र की छायावाद सम्बन्धी आलोचना में भी है, लेकिन उनमें भावातिरेक के स्थान पर वस्तुनिष्ठ विश्लेषण का आग्रह अधिक है। प्रगतिशील आलोचक भगवतशरण उपाध्याय द्वारा गुरु भक्तसिंह 'भक्त' की 'नूरजहाँ' की आलोचना में भी प्रभाववादी आलोचना के लक्षण मिलते हैं।
वार्तालाप में शामिल हों