भारतीय साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ : नाथ साहित्य

भारतीय साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ : नाथ साहित्य

सबसे पहली प्रवृत्ति, जो भारतीय वाङ्मय में प्रायः सर्वत्र समान मिलती है, नाथ साहित्य है। दो-चार को छोड़कर प्रायः सभी भाषाओं के प्रारम्भिक साहित्य के विकास में नाथपन्थी तथा शैव साधुओं का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। स्वभावतः नाथ साहित्य का सृजन दक्षिण में उत्तरी और पूर्वी भारत की अपेक्षा बहुत कम हुआ है। दक्षिण में शैव धर्म का तो अत्यधिक प्रचार था परन्तु वहाँ के कवि शैव-योगियों की अपेक्षा शिवभक्त ही अधिक थे। शैव दर्शन से प्रभावित तान्त्रिक साधना का प्रचार वहाँ नहीं था वरन् शिव की सगुण भक्ति ही वहाँ प्रमुख थी। तमिल के नायनमार, तेलुगु के पाल्कुरिकि तथा उनके परवर्ती कवि, कन्नड़ में वीरशैववाद के उन्नायक बसवेश्वर आदि उत्तर भारत के नाथ और सिद्ध कवियों से मूलतः भिन्न थे। दक्षिणात्य कवि शुद्ध भक्त कवि थे, उत्तर और पूर्व के सिद्ध और नाथ कवि योगी अथवा तान्त्रिक साधक थे। फिर भी नाथ प्रभाव सुदू दक्षिण तक पहुँच गया था । नवनाथचरित्रम (तेलुगु) आदि कृतियाँ इसका प्रमाण हैं।


मराठी और बांग्ला में नाथ साहित्य की विशिष्ट धारा प्रवाहित हुई। मराठी में तो स्वयं गोरखनाथ की ही वाणी मिलती है जिसका नाम हैं 'अमरनाथ सनवड'। इस वर्ग में दूसरा प्रसिद्ध नाम है गैगिनाथ का । बांग्ला वस्तुतः नाथ सम्प्रदाय का गढ़ था। गुण और परिणाम दोनों की दृष्टि से बांग्ला का नाथ साहित्य सर्वाधिक समृद्ध हैं। उसमें बौद्धों के सहजिया सम्प्रदाय का साहित्य और चर्यागीत की धारा भी घुलमिल गई है। असमिया तथा उड़िया के प्राचीन काव्य में यद्यपि नाथ आन्दोलन का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है किन्तु इस प्रकार की कोई स्पष्ट काव्यधारा यहाँ प्रवाहित नहीं हुई ।


बंगाल के बाद इस सम्प्रदाय का दूसरा विकास केन्द्र था पंजाब बंगाल में जहाँ बौद्ध प्रभाव में इसका पल्लवन हुआ वहाँ पंजाब में इस्लाम और सूफी प्रभाव का जोर रहा। पंजाबी के इतिहासकार गोरखनाथ और चर्पटनाथ को अपने साहित्य के आरम्भिक लेखक मानते हैं। उनके समसामयिक फ़रीद आदि कई मुस्लिम पीरों ने भी इस प्रकार के साहित्य का संवर्धन किया। इस साहित्य के स्रष्टा गुरु नाथ, सिद्ध, पीर और बाबा के नाम से प्रसिद थे। यही काव्य प्रवाह हिन्दी में भी आया और कदाचित् पंजाबी का गहरा पुट लेकर आया। वास्तव में उस युग की हिन्दी और पंजाबी में भेद करना कठिन है। नाथपन्थी साधुओं की अनेक गद्य-पद्यमयी रचनाएँ हिन्दी में उपलब्ध हैं। इस प्रकार भारतीय वाड्मय में नाथ साहित्य की एक व्यापक प्रवृत्ति विद्यमान हैं जो उत्तरी-पश्चिमी, पूर्वी और मध्यदेशीय सभी भाषाओं में परिव्याप्त है।