प्रतिस्पर्धा का अर्थ, निर्धारक, विशेषताएं, स्वरूप, महत्व, परिणाम - Competition meaning, determinants, attributes, nature, significance, result.

प्रतिस्पर्धा का अर्थ, निर्धारक, विशेषताएं, स्वरूप, महत्व, परिणाम - Competition meaning, determinants, attributes, nature, significance, result.



नगरीकरण, औद्योगीकरण तथा श्रम विभाजन के फलस्वरूप प्रतिस्पर्धा का विकास हुआ है। आधुनिक समाजों में यह प्रक्रिया अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गयी है। क्योंकि वस्तुयें सीमित होती जा रही हैं तथा उसके प्राप्त करने वाले दिनों दिन बढ़ते जा रहे हैं। अतः उनमें एक प्रकार की होड़ लगी हुई है जिसे प्रतिस्पर्धा के नाम से जानते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि प्रतिस्पर्धा तभी होती है जब वस्तु सीमित मात्रा में होेती है और उसको प्राप्त करने वालों की, संख्या अधिक होती है। इस प्रकार हम कह कसते हैं। कि दो या दो से अधिक व्यक्तियों में सामान्य परन्तु सीमित मात्रा वाले उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किये गये प्रयत्न को प्रतिस्पर्धा कहते हैं।


प्रतिस्पर्धा का अर्थ -

1.बोगार्डस, ई0 एस0: प्रतिस्पर्धा किसी वस्तु को प्रापत करने की प्रतियोगिता को कहते हैं जो कि इतनी मात्रा मे कहीं नहीं पाई जाती जिससे मांग की पूर्ति हो सके।

2. फिचर, जे0 एच0: प्रतिस्पर्धा एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें दो या दो अधिक व्यक्ति अथवा समूह समान उद्देश्य प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं।

3. ग्रीन, ए0 डब्ल्यू0ः प्रतिस्पर्धा में दो या अधिक पार्टियाँ समान उद्देश्य के लिए प्रयत्य करती हैं जिसमें कोई भी एक दूसरे के साथ सम्मिलन के लिए तैयार नहीं होता है अथवा सम्मिलन की कोई आशा नहीं रखता है।

 हिन्दी रूपान्तर है। यदि हम इसका विश्लेषण करें तो इनकी विशेषताएं तथा इसका प्रत्यय स्पष्ट दिखता है।


 इससे स्पष्ट होता है कि प्रतिस्पर्धा में यद्यपि समान उद्देश्य होता है परन्तु सम्मिलित प्रयत्न नहीं होते हैं यदि होते भी है तो उसमें स्वार्थ की भावना अधिक होती है। जो व्यवहार उस समय होता है वह अर्थपूर्ण तथा नियोजित होता है।  आन्तरिक घृणा तथा संघर्ष की स्थिति होती है। ‘हम भावना’ के स्थान पर ‘परभावना’ महत्वपूर्ण कार्य करती है। कभी-कभी प्रतिस्पर्धा में भाग लेने वाले सभी के विषय में न तो जानकारी होती है और न ही प्राप्त की जा सकती है।



प्रतिस्पर्धा के निर्धारक 

  प्रतिस्पर्धा के लिए निम्न दशाओं का होना अनिवार्य होता है:

1. वस्तु या स्थान की सीमित मात्रा

2. वस्तु या स्थान का महत्व

3. समूह की संरचना

4. समाज में प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य व्यवस्था

5. भौतिकवादी दृष्टिकोण

6. जटिल समाज

7. व्यक्तिगत गुणों का महत्व


प्रतिस्पर्धा की विशेषताएं

1. प्रतिस्पर्धा सभी समाजों में पाई जाती है।

2. जैसे-जैसे नगरीकरण बढ़ता है, प्रतिस्पर्धा बढ़ती है।

3. भौतिकवादी दृष्टिकोण प्रतिस्पर्धा की गति तेज कर रहा है।

4. इसमें जन्म एवं जाति का महत्व कम हो जाता है।

5. वैयक्तिक गुणों का महत्व होता हैं।

6. असहयोगिक सम्बन्ध पाये जाते हैं।

7. यद्यपि संघर्ष की स्थिति नहीं होती है परन्तु व्यक्ति का व्यवहार विरोधात्मक होता है।

8. स्वार्थपरता अधिक होती है।

9. व्यक्ति के स्थान पर उसके प्रयत्नों से ईष्र्या होती हैं।

10.क्षमता तथा योग्यता के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति प्रतिस्पर्धा में भाग ले सकता है।


  प्रतिस्पर्धा के प्रकार

साधारणतया प्रतिस्पर्धा दो प्रकार की होती है-

1. वैयक्तिक

 2. अवैक्तिक

     वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा में प्रतियोगिता के सम्बन्ध में ज्ञान रहता है। उदाहरण के लिए कक्षा में प्रथम आने वाले विद्यार्थियों के बीच होने वाली प्रतिस्पर्धा वैयक्तिक होती है। अवैयक्तिक प्रतिस्पर्धा में प्रतियोगिता का ज्ञान नहीं होता है केवल उद्देश्य महत्वपूर्ण होता है। विभिन्न प्रकार की प्रतियोगितायें इसकी उदाहरण हैं।


प्रतिस्पर्धा के स्वरूप

 प्रतिस्पर्धा निम्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दे रही है या उसके निम्न स्वरूप हैं:

1.  आर्थिक प्रतिस्पर्धा - उत्पादन में प्रतिस्पर्धा विनिमय में प्रतिस्पर्धा   - वितरण में प्रतिस्पर्धा   - उपभोग में प्रतिस्पर्धा

2.  स्थिति की प्रतिस्पर्धा - रिक्त स्थान प्राप्त करने में प्रतिस्पर्धा

 प्रोन्नति में प्रतिस्पर्धा   - शक्ति प्राप्त करने में प्रतिस्पर्धा   - उपभोग में प्रतिस्पर्धा

3. राजनैतिक प्रतिस्पर्धा - शक्ति प्रदर्शन में प्रतिस्पर्धा

-सत्ता प्राप्त करने में प्रतिस्पर्धा

  - नेतृत्व प्राप्त करने में प्रतिस्पर्धा   4.  सांस्कृतिक प्रतिस्पर्धा - धर्म के महत्व को सिद्ध करने मे

 गिलिन तथा गिलिन ने प्रतिस्पर्धा के 4 मुख्य कार्य बताये हैंः

 1. प्रतिस्पर्धा में भाग लेने वाले व्यक्तियों तथा समूहों की इच्छायें अधिक अच्छे ढंग  से संतुष्ट होती है। यदि मानव कोई इच्छा रखता है और उसकी संतुष्टि प्रतिस्पर्धा में भाग लेकर हो जाती है तो वह सामान्य से अधिक संतोष प्राप्त करता है।

2. जनता की इच्छाओं, अभिलाषाओं को अच्छी प्रकार से प्रतिस्पर्धा से विजयी लोग पूरा करने में सक्षम होंगे।

3. प्रतिस्पर्धा के द्वारा लैंगिक तथा सामाजिक चयन अधिक सुचारु रूप से हो सकता है।

4. विभिन्न कार्यात्मक समूहों के सदस्यों के चयन से प्रतिस्पर्धा का कार्य     महत्वपूर्ण होता है।


 प्रतिस्पर्धा के परिणाम

1. संगठनात्मक परिणाम

 1. नये संघों, संगठनों का निर्माण

 2. उच्च एवं अच्छी सेवा

3. कार्यस्तर में वृद्धि

4. कीमत में कमी

5. नये ज्ञान में वृद्धि

6. सहकारिता की भावना का विकास

7. नवीन खोजें तथा समस्या के समाधान के नये तरीके।


2. विघटनात्मक परिणाम

1. संघर्ष की स्थिति का प्रारम्भ

2. असामाजिक तथा जाल फरेब

3. झूठ का बोल बाला

4. हिंसा का उपयोग

5. कानूनी तरीकों का अतिक्रमण

6. मान हानि का प्रयत्न

7. नकली-वस्तुओं के निर्माण में वृद्धि

8. दिखावापन


3. व्यक्तित्व के संदर्भ में परिणाम


 उचित एवं अनुचित प्रतिस्पर्धा में अन्तर

(ए) उचित प्रतिस्पर्धा                 

 1. सामाजिक भावनाओं का 

2. सम्पर्क में वृद्धि 

 3. उदार दृष्टिकोण 

4. मानसिक संतुष्टि 

 4. उन्नति के संदर्भ में परिणाम

 1. प्रतिस्पर्धा में समाज समायोजित बना रहता है।

 2. अधिक से अधिक उन्नति होती।

 3. जीवन का प्रत्येक क्षेत्र विकसित होता है।

4. व्यक्ति में चुस्ती एवं ताजगी बनी रहती है।

(बी) अनुचित प्रतिस्पर्धा

1. असामाजिक भावनाओं का विकास

2. सीमित सम्पर्क तथा गुटबाजी

3. अनैतिकता में वृद्धि

 4. तनाव तथा दबाव का अनुभव

5. वह सदैव दूसरों के क्रियाओं को जानने के लिए सचेत रहता है।

6. भौतिक तथा सामाजिक उन्नति होती है।


5. सामूहिक एकरूपता के संदर्भ में परिणाम 

1. जब तक उचित स्पर्धा रहती है तब तक सामूहिक एकरूपता बनी रहती है।

2. अनुचित स्पर्धा होने पर संगठन को जोरदार धक्का लगता है।

3. सम्बन्धों में कमी आती है।

4. एकांगी दृष्टिकोण हो जाता है।


 प्रतिस्पर्धा का महत्व

 सामाजिक विकास एवं वैयक्तिक उन्नति के लिए प्रतिस्पर्धा आवश्यक है। क्योंकि इससे:

1. वस्तु की उपयोगिता का ज्ञान होता है।

2. ज्ञान में वृद्धि होती है।

3. आविष्कार एवं अनुसंधान होते हैं।

4. व्यक्तित्व का समुचित विकास होता है।

5. व्यक्ति अधिक मेहनत करता है।

6. कार्य योग्य व्यक्तियों द्वारा करने से अच्छा कार्य होता है।

7. विशेषीकरण को प्रोत्साहन मिलता है।

8. मनोवैज्ञानिक संतुष्टि होती है।

9. उत्साह का संचार होता है।

10.अन्तः क्रियाएं गतिशील होती है।         

यद्यपि प्रतिस्पर्धा जीवन का महत्वपूर्ण अंग है परन्तु उस पर नियंत्रण होना आवश्यक होता है। असीमित एवं अनियंत्रित प्रतिस्पर्धा से अनेक बुराईयाँ उत्पन्न हो जाती है। संगठन शक्ति का हृास होने लगता है, एकाधिकार विकसित हो जाता है, वर्गों में संघर्ष होने लगता है तथा गरीब और अधिक गरीब होते चले जाते हैं। अतः प्रतिस्पर्धा पर नियंत्रण होना आवश्यक है।