संस्कृत व्याकरण में संधि
संधि
:- संधि में जब दो शब्द मिलते है तो यदि पहले शब्द
के अन्त मे ए या ओ हो तो दूसरे शब्द के प्रारम्भ के अ का लोप
हो जाता है और उसके स्थान पर अवग्रह (ऽ)
चिह्न का प्रयोग होता है, जैसे-
ते+अपित्रतेऽपि
(वे भी), क: + अपित्रकोऽपि (कोई भी)
पवित्रा
ओम को ॐ के रूप में भी लिखा जाता है।
संस्कृत
में पहले केवल विराम चिह्न (।) का प्रयोग होता था किन्तु अब प्रश्नवाचक (?),
योजक (-) आदि चिह्नों का प्रयोग भी होने लगा है।
देवनागरी
में संख्या निम्नलिखित प्रकार से लिखी जाती हैं
अन्तर्राष्ट्रीय
संख्याएँ - 1 2 3 4 5 6 7 8 9 0
देवनागरी
संख्या - १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ ०
अब
संस्कृत के कुछ वाक्य पढ़ सकते हैं। संस्कृत वाक्यो में 'है, हैं, हाँ, हो’
आदि के अर्थ वाली क्रियाओं का बहुधा प्रयोग नहीं किया जाता। निम्नलिखित वाक्य
संस्कृत में सर्वथा स्वभाविक है:
तव
नाम किम् ?
तुम्हारा नाम
क्या है?
मम
नाम गोपालः। मेरा नाम
गोपाल है।
सः
मम सखा सुरेशः। मेरा मित्र
सुरेश है।
एषः
रमेशः। सः अपि मम सखा। यह
रमेश है। वह भी मेरा मित्रा है।
सः
मम पिता। एषा मम माता। वे मेरे पिताजी हैं। ये मेरी माताजी हैं।
तत्
किम् ? तत् मम चित्राम् । वह क्या है? वह मेरा चित्रा
है।
एतत्
किम् ? एतत् तव पुस्तकम्। यह क्या है ?
यह तुम्हारी पुस्तक है।
अहं
छात्राः, त्वमपि छात्राः। मैं विद्यार्थी हँ,
तुम भी विद्यार्थी हो।
तत्रा
तव कक्षा। तुम्हारी
कक्षा वहाँ है।
सः
कः ? सः मम शिक्षकः।
वे कौन हैं ?
वे मेरे अध्यापक है।
सः
तव अपि शिक्षकः। वे तुम्हारे भी अध्यापक
हैं।
विद्या
एव चक्षुः। ज्ञानम् एव शक्तिः। विद्या ही आँख है। ज्ञान ही शक्ति है।
एतत्
सर्व सत्यम्। अत्रा न संशयः। यह सब सच है। इसमें संदेह नहीं है।
एतत् दुःखम् असह्यम्। यह दुःख असह्य है।
ईश्वरः
एव मम बन्धुः। ईश्वर ही मेरा
बन्धु है।
अत्रा
विज्ञानं, तत्रा ज्ञानम्। यहाँ विज्ञान है. वहाँ ज्ञान
है।
मम
सर्व द्रविणम् तव। मेरा सब धन तुम्हारा
है।
मम
हृदयम् अपि तव। मेरा हृदय भी
तुम्हारा है।
ओं
शान्तिः शान्तिः शान्तिः। (शान्ति की प्रार्थना)
टिप्पणी-1
और 2 वाक्यों में स: क: = वह कौन है? स: मम शिक्षक। वह मेरा अध्यापक है। स: तव अपि
शिक्षक: = वह तुम्हारा भी अध्यापक है आदि वाक्यों में आदर जताने के लिए हिन्दी
में बहुवचन का प्रयोग होता है।
अब
हम संस्कृत की बहुप्रचलित प्रार्थना को पढ़ें। लाखों भारतीय प्रतिदिन इसका पाठ
करते है। इसे सभी सरलता से गा सकते हैं। इसके सभी शब्दों से आप परिचित है। परन्तु
इसे पढ़ने से पहले ध्वनि-परिवर्तन के दो नियमों को जान लेना आवश्यक है।
१)
जब स्वर रहित (हलन्त) म् किसी शब्द के अंत में हो और उसके बाद स्वर से आरम्भ होने
वाला शब्द हो तो स्वर रहित म् बाद वाले शब्द के आदि स्वर से मिल जाता है,
जैसेः
त्वम्
+अपि = त्वमपि = तुम भी
हृदयम्
+ अपि = हृदयमपि = हृदय भी
त्वम्
+ एव = त्वमेव = तुम ही
2)
यदि शब्द के अन्त में विसर्ग ( ः ) हो और उसके बाद के शब्द के आरम्भ में च्,
छ् में से कोई व्यंजन हो तो विसर्ग श् में बदल जाता है।
बन्धु:
+ च = बन्धुश्च
शिरः
+ छेद: = शिरश्छेद:
राम:
+ च = रामश्च
श्लोक
:-
त्वमेव
माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव
विद्या द्रविणम् त्वमेव
त्वमेव सर्वम् मम देव देव॥
अर्थ:-
(हे ईश्वर), तुम्ही मेरी माता हो और तुम्हीं
मेरे पिता हो,
तुम्हीं
मेरे संबंधी हो और तुम्हीं मेरे मित्रा हो.
तुम्ही
मेरी विद्या हो और तुम्हीं मेरी धन-संपत्ति हो,
हे
परमात्मा,
तुम्हीं मेरे सब कुछ हो।
अब
हम संस्कृत पढ़ने का अभ्यास करें। नीचे एक प्रार्थना मंत्र और गीता का एक श्लोक
दिया है। इन्हें आप बोलकर पढ़े। मंत्र और श्लोक केवल लेखन और पठन के लिए है।
1.
विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव यद् भद्रं तन आ सुव॥
2.
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानं
सृजाम्यहम्॥
अर्थ
:-
1.
हे सारे जगत् के रचयिता सविता देव! आप हमारे संपूर्ण दुर्गुणों और दुर्व्यसनों को
दूर कीजिए। जो कल्याणकारी बातें हैं वह सब हमें प्राप्त कराइए।
2.
हे प्रकाश और ज्ञान स्वरूप अग्निदेव! कृपया आप हमें सभी प्रकार के ऐश्व्यो की
प्राप्ति के लिए सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दें और संपूर्ण ज्ञान और उत्ताम कर्म
प्राप्त कराएँ। आप हमसे कुटिलता वाले पाप रूप कर्मों को दूर कीजिए। इसलिए हम लोग
आपकी बहुत प्रकार से नम्रतापूर्वक स्तुति सदैव किया करे।
3.
आत्मा न तो कभी पैदा होती है और न कमी मरती है। आत्मा के बारे में ऐसा भी नहीं कह
सकते कि वह एक बार होकर दुबारा नहीं होती। आत्मा अजन्मा है,
नित्य है, अनादि काल से है और सदा रहने वाली
है। शरीर के मरने के बाद आत्मा की मृत्यु नहीं होती।
4.
हे अर्जुन! जब-जब धर्म में गिरावट आती है और अधर्म बढ़ने लगता है,
तब तब में अपने आप को प्रकट करता है और अधर्म का नाश करता है।
5.
हे अर्जुन! जो मनुष्य जिस प्रकार से मेरी उपासना करते हैं सैं उसी रूप में उन्हें
मिल जाता है। मनुष्य कहीं भी कैसे भी व्यवहार करें, वे वास्तव में, सभी प्रकार से मेरे ही बताए मार्ग पर
चलते हैं।
6.
शास्त्र इस आत्मा को काट नहीं सकते, आग
इसे जला नहीं सकती। पानी इसे गीला नहीं कर सकता और हवा इसे सुखा नहीं सकती अर्थात्
आत्मा कभी नष्ट नहीं होती नष्ट तो मनुष्य का शरीर होता है।
7.
बड़े लोग जैसा आचरण या व्यवहार करते हैं सामान्य जन भी वैसा ही आचरण करते हैं।
महापुरुष जिसे मानक बना देते हैं बाकी लोग उसी का अनुसरण करने लगते हैं।
8.
जिस प्रकार हमारे इस शरीर में आत्मा बचपन से जवानी और जवानी से बुढ़ापे तक पहु(चती
है उसी प्रकार मृत्यु के पश्चात् यह नए शरीर में प्रविष्ट होती है। इसलिए
बुद्धिमान् व्यक्ति मृत्यु के कारण विचलित नहीं होता।
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