शहरी विकास की संकल्पना - Concept of Urban Development

शहरी विकास की संकल्पना - Concept of Urban Development

हमने पूर्व की इकाई में ग्रामीण विकास से संबंधित पहलुओं की चचकी है, अब इस इकाई में हम यह जानेंगे कि शहर या कस्बों किसे कहते है? भारत में शहरी क्षेत्रों की कौन-सी समस्याएं है और उनको कम करने के लिए 1950 के बाद से किस तरह के प्रयास किए जा रहे हैं। शहरीकरण आर्थिक विकास एवं प्रगति का मुख्य घटक है। कस्बों के निवासियों की संख्या वर्तमान में लगभग 377 मिलियन है, यह लगभग 5 मिलियन प्रति वर्ष की दर से बढ़ रही है। शहरी जनसंख्या में पिछले दशक के दौरान 2.4 प्रतिशत की वृद्धि दर की तुलना में 2001-11 के दौरान 2.76 की वार्षिक वृद्धि दर रिकार्ड की है। इस कारण दिन-ब-दिन शहरी क्षेत्रों में संसाधनों के सीमित होने से जनसंख्या वृद्धि का बढ़ता प्रभाव शहरी क्षेत्रों में समस्या के निर्माण का कारण बन रहा है।

शहरी क्षेत्र क्या होता है? इस शब्द को दो अर्थों में प्रयोग किया जाता है जनसांख्यिकीय एवं समाजशास्त्रीया जनसांख्यिकीय रूप से केंद्रण जनसंख्या के आकार एवं घनत्व पर तथा अधिकांश वयस्क पुरुषों की कार्यप्रकृति पर होता है। समाजशास्त्रीय रूप से सकेंद्रण विषय-जातीयता, निर्वैयक्तिकता आत्मनिर्भरता एवं जीवन की गुणवत्ता पर होता है। भारत में जनसांख्यिकीय एवं आर्थिक संसूचक कस्बा अथवा शहर जैसे विशिष्ट क्षेत्रों को परिभाषित करने में महत्वपूर्ण है। कस्बे की जनगणना परिभाषा 1901-1951 की अवधि में न्यूनाधिक एक ही रही लेकिन 1961 में एक नई परिभाषा चुनी गई। 1951 तक कस्बे में शामिल थे.


1) एक आवासित स्थान, जिसकी कुल जनसंख्या 5000 व्यक्तियों से कम न हो।


2) प्रत्येक नगरपालिका, नगरनिगम एवं अधिसूचित क्षेत्र जिसका आकार कुछ भी हो। 


3) सभी सिविल लाइंस क्षेत्र जो कस्बे सीमाओं में शामिल न हो। 1961 में कस्बे को पुर्नपरिभाषित किया गया और अनेक आनुभविक परीक्षणों के आधार पर उनका निर्धारण किया गया, जैसे


1) जनसंख्या कम से कम 5000 हो ।


2) जनसंख्या घनत्व 1000 प्रति वर्ग मील से कम न हो।


3) कामकाजी जनसमुदाय के तीन चौथाई लोगों के व्यवसाय कृषि के अतिरिक्त हो।


4) स्थान में कुछ विशेषताएँ एवं सुखसुविधाएं हो जैसे नव स्थापित औद्योगिक क्षेत्र, बृहद आवासीय चस्तियां एवं पर्यटन के महत्व वाले स्थान व जन-सुविधाए हो। कस्बे की नई परिभाषा के परिणामस्वरूप ही 1951 व 1961 के बीच भारत में कस्बों की संख्या में कुछ कमी आई। 1961 के आधार को ही 1971, 1981 एवं 1991 की जनगणना में अपनाया गया।


भारत में शहरी क्षेत्रों को दो महानगरों के आधार पर परिभाषित किया गया। पहले राज्य सरकार विद्यमान बसावट तक नगरपालिका स्थित अर्थात कारपोरेशन नगरपालिका परिषद, अधिसूचित कस्बा क्षेत्र समिति या नगर पंचायत आदि प्रदान करते हैं। ऐसे बसावट को शहरी क्षेत्रों की जनगणना परिभाषा में नगरपालिका कस्बों के रूप में जाना जाता है। द्वितीय यदि किसी शहरी बसावट सिक्ति स्थिति नहीं है लेकिन जनसांख्यिकीय और आर्थिक मानदंड पूरा करते हैं जैसे 5000 से अधिक की जनसंख्या घनत्व 4000 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी से अधिक और गैर-कृषि क्षेत्र में 75 प्रतिशत पुरुष श्रमशक्ति लगी हो उसे जनगणना कस्बे के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। भारत में 2001-11 के दशक में 242 नगरपालिका कस्बों की वृद्धि सहित 4041 नगरपालिका कस्बे हैं। 2011 की जनगणना के डाटा में • तमिलनाडु में नगरपालिका कस्बों (721) की उच्चतम संख्या सूचित की गई है उसके बाद उत्तर प्रदेश (646), मध्यप्रदेश (364), महाराष्ट्र (256) और कर्नाटक (220) है।


उक्त शहर या कस्बे की संकल्पना को जानने के बाद हम शहरी विकास की बात करते हैं, जिसका तात्पर्य है कि विकास जीवन के भौतिक गुणवत्ता में पूर्ण सकारात्मक परिवर्तन को सूचित करता हो। इस सकारात्मक परिवर्तन में आर्थिक और सामाजिक पक्ष शामिल हो, अतएव विकास मात्र आर्थिक वृद्धि की ही नहीं, बल्कि आर्थिक संवृद्धि से सृजित लाभों के समान वितरण की भी मांग करता हो। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो शहरी विकास का अर्थ शहरी जनसंख्या में आर्थिक संवृद्धि का न्यायपूर्ण वितरण हो। इसका तात्पर्य है कि बेहतर स्वास्थ शिक्षा, उचित आवास, संपूर्ण भौतिक जीवन और सामाजिक कल्याण के माध्यम से जीवन स्तर में सुधार है।


शहरी स्थानों की वर्तमान अवस्था एवं शहरीकरण का स्थानिक एवं अस्थायी विच्छिन्नताओं के साथ एक लंबा इतिहास रहा है। शहरीकरण एक बार में नहीं हुआ, बल्कि इतिहास में समय-समय पर होता रहा, क्योंकि समाज विभिन्न कालों में शहरीकृत हुए। यह एक चालू प्रक्रिया है और कभी नहीं रुकी तथा अपने आरंभ से शायद ही धीमी पड़ी। सिंधु घाटी में शहरीकरण का प्रथम चरण2350 ईसा पूर्व हड़प्पा सभ्यता से जुड़ा हुआ है मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा नामक दो शहर हड़प्पा संस्कृति में हुए शहरी विकास के चरमोत्कर्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह महान शहरी सभ्यता 1500 ईसा पूर्व समाप्त हो गई संभवतः आयोँ के आगमन के पश्चाता


भारत में शहरी विकास का दूसरा दौर600 ईसापूर्व शुरू हुआ। इस दौरके स्थापत्यविद उत्तर में आर्य और दक्षिण में द्रविड़ा इस कालावधि के बाद लगभग 2500 वर्षों तक भारत में शहरीकरण का कमोबेश सतत इतिहास रहा। मौर्य एवं मौर्योत्तर काल में प्रारंभिक ऐतिहासिक शहरों का मनना उनकी संख्या एवं शहरों के आकार में वृद्धि भी देखी गई। मुगल कालभारत में शहरी विकास की दूसरी खास पहचान रही है। इस समय भारत में अनेक शहर स्थापित हुए है।


ब्रिटिश शासन के शुरुआती दौर में भारतीय शहरीकरण के स्तर में गिरावट देखी गई। इस काल में शहरों के पतन हेतु उत्तरदायी मुख्य कारण जो इस प्रकार है


1. भारत की संपन्नता एवं आर्थिक विकास में अंग्रेजों की रूचि का अभाव 


2. इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हुआ


डेढ़ सौ साल के अंग्रेजी शासन के दौरान भारत का शहरी परिदृश्य आमूलचूल परिवर्तन के दौर से गुजरा अंग्रेजों का भारतीय शहरी परिदृश्य में योगदान मुख्य रूप से निम्न बिरों में व्यक्त किया जा सकता है


1) तीन महानगरीय बंदरगाह शहरों का उद्य (कोलकाता, मुंबई एवं चेन्नई, जो विश्व के अग्रणी उपनिवेश-शहरों के रूप में उभरे हैं।


 2) हिल स्टेशनों (दार्जिलिंग, शिमला, महाबलेश्वर आदि) तथा असम, केरल बागान बस्तियों का निर्माणा 


3) सिविल लाइन्स एवं छावनियों की प्रस्थापना। सुरक्षा की दृष्टि से प्रमुख नगरों के निकट बनाई जाती थी।


4) रेलवे एवं आधुनिक उद्योग की शुरुआत जिसने नए औद्योगिक नगरों के निर्माण की ओर प्रवृत किया, जैसे जमशेदपुर धनबाद आदि।


5) शहरी सुख-सुविधाओं एवं शहरी प्रशासन में सुधार नगरीकरण की ती प्रक्रिया ने हमारी सामाजिक आर्थिक सरचना एवं सामाजिक व्यवस्था को इस सीमा तक प्रभावित किया है कि हमारे सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक आयाम ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, धार्मिक एवं नैतिक मूल्य भी परिवर्तित हो गए हैं। नगरीकरण की प्रक्रिया ने जहां एक ओर परंपरात संकीर्ण मूल्यों व्यवहारा व मनोवृत्तियों में परिवर्तन लाकर जीवन को आधुनिक सुखसुविधायुक्त और संकीर्ण मूल्यों व्यवहारों व मनोवृत्तियों में परिवर्तन लाकर जीवन को आधुनिक सुखसुविधायुक्त और आरामपूर्ण बनाया है वहीं दूसरी ओर समस्याओं की एक लंबी कतार खड़ी कर दी है। भूमि तथा आवास की कमी, सफाई व स्वच्छता सेवाएं, स्वास्थ्य सेवाएं, पीने के पानी, जन सुविधाओं, शिक्षा, स्थानीय परिवाहन आदि पर भारी तनाव, मलिन बस्तियों में बढ़ोत्तरी, मनोरंजन स्थलों का अभाव, बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी व्यक्ति व पारिवारिक विघटन, मानसिक तनाव व चिंता प्रदूषण आदि न जाने कितनी ऐसी समस्याओं को इसने जन्म दिया है जिनसे वर्तमान नगरीय समुदाय जूझ रहा है।

साधारणतः देखा जाए तो पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का विकास राष्ट्रीय धन का असमान वितरण, भ्रष्टाचार प्रतिस्पर्धा एवं संघर्ष आर्थिक संकद औद्योगिक झगड़े हिंसा गतिशीलता में वृद्धि सामुदायिक विघटन आदि समस्याओं का मूल नगरीय संस्कृति तथा संस्कारमें छिपा है। इन समस्याओं से निपटने के लिए ज्ञान की


विभिन्न शाखाएं व संस्थाएं अपने अपने स्तर पर प्रयास कर रही हैं। शहरी विकास का उद्देश्य प्रत्येक नगरवासी की आर्थिक जरूरतों की पूर्ति उचित स्वास्थ्य सेवाएं, संतोषप्रद जीवन निर्वाह स्तर के अतिरिक्त सहनागरिकों के साथ सामाजिक सामजस्य, उचित पर्यावरण, उपयुक्त जन सुविधाओं तथा मनोरंजन युक्त जीवन के अवसर प्रदान करना है।