जी.एस. घुरिये के प्रमुख विचार - GS Ghurye's main ideas

 जी.एस. घुरिये के प्रमुख विचार - GS Ghurye's main ideas


जाति एवं प्रजाति के संदर्भ में घुरिये ने अपनी पुस्तक भारत में जाति एवं प्रजाति' में जाति का विस्तृत अध्ययन किया बाद में यही पुस्तक कुछ संशोधन और परिवर्धन के साथ समय-समय पर अगल अलग नामों से (भारत में जाति और वर्ग 1950, जाति वर्ग और व्यवसाय 1961) कई संस्करणों में प्रकाशित हुई। जाति के उद्भव के बारे में घुरिये ने कहा है कि जाति इण्डो आर्यन संस्कृति के ब्रह्मणों का शिशु है जिसका पालन-पोषण गंगा के मैदान में हुआ और वहाँ से देश के दूसरे भागों में फैला' घुरिये जाति को एक जाटिल घटना बताते हुए इसकी कोई निश्चित परिभाषा नही दी। किंतु इसकी छः विशेषताओं का उल्लेख किया है यह विशेषताएं निम्नलिखित है।


1. समाज का खण्डात्मक विभाजन


2. संस्तरण


3. भोजन तथा सहवास पर प्रतिबंध


4. विभिन्न जातियों की नागरिक और धार्मिक निर्योग्यताएँ तथा विशेषाधिकार


5. विवाह सम्बन्धी प्रतिबंध

घुरिये ने जाति एवं उपजातियों के भेद को स्पष्ट करते हुए कहा कि जिन्हें हम जातियों कहते हैं वे उपजातियाँ है। इन उपजातियों पर ही उपर्युक्त विशेषताऐं लागू होती है। जाति के उद्भव के बारे में उन्होंने रिजले के प्रजातिक सिद्धान्त का समर्थन किया है। वें आर्यों एवं अनार्यों के प्रजातीयें एवं सांस्कृतिक सम्पर्क को जाति व्यवस्था के जन्म के लिए उत्तरदायी मानते है। रक्त शुद्धता की भावना के कारण ही आर्यों एवं अनार्यों में कई उच्च एवं निम्न समूह बने इस प्रकार जाति व्यवस्था का आदि स्त्रोत आर्य एवं द्रविणों के बीच पाया जाना वाला प्रजाति भेद था। घुरिये के जाति के भविष्य सम्बन्धी विचार निराशावादी होने के साथ साथ विसंगतियों से भरा है। घुरिये के अनुसार परम्परिक व्यवसायिक विशिष्टीकरण तेजी से समाप्त होता जा रहा है, सामाजिक व्यवहार के नियम अपेक्षाकृत उदार हो गये है, अतः यह कहा जा सकता है कि जाति प्रणाली की कुछ पुरातन विशेषताये अब नही रही है। तथापि यह प्रणाली पूर्वत अपनी प्राण स्फूर्ति बनाये हुए है। जाति समाज में चाहे अन्य बातों से कितना ही बदल गया हो इसकी जाति के अन्दर के विवाह (अन्तर्विवाह) की प्राचीन विशेषता अभी भी यथावत है। घरिये ने एक अन्य स्थान पर जाति में हो रहे परिवर्तनों पर टिप्पणी करते हुए कहते है कि जाति के कुछ नियम कमजोर हुए है, अपवित्रता एवं अशुचिता की धारणा कमजोर पड़ गयी है भोजन और पेय पद्धार्थो सम्बन्धी नियमों में विशेषतया नगरों मे कॉफी शिथिलता आ गयी है। घुरिये ने जाति में परिवर्तन सम्बन्धी तीन प्रमुख धाराओं का उल्लेख किया है गांधीवादी विचारधारा, सम्मिश्रण और समूहीकरण तथा जाति की समाप्ति। गांधीवादी धारा के समर्थक जाति को अपने मौलिक वर्ण व्यवस्था के रूप में (ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) पुनः स्थापित करने के पक्ष में है। घुरिये इसे अव्यवहारिक मानते है। सम्मिश्रण और सामूहिककरण की दूसरी विचारधारा के अनुसार उपजातियों के वर्तमान स्वरूप को आर्थिक और सांस्कृतिक आधार पर वृहत जातियों में सामूहिककरण के पक्ष मे है। इस प्रक्रिया के द्वारा समान प्रस्थिति वाली जातियां धीरे-धीरे एक हो जायेंगी, अन्ततः हिंदू समाज जाति विहीन समाज में बदल जायेगा। घुरिये का इस बारे मे मत है कि सामूहीकरण की यह प्रक्रिया अत्यन्त धीमी है। इसमें शिक्षा के प्रसार और प्रगतिशील बनाने में समय लगेगा। जाति के समाप्ति की पक्षधर तीसरी विचारधारा जाति के कुछ पक्षो को अत्यन्त निकृष्ट और कुछेक को राष्ट्र विरोधी मानती है इस विचारधारा के प्रबल समर्थक अम्बेड़कर है। घुरिये का इस बारे में मत है कि रक्त सम्मिश्रण आपसी संबंधों को मजबूत करने और राष्ट्रीयता को बढ़ाने का एक प्रभावशाली उपाय है' इसके लिए उन्होंने अन्तर्जातीय विवाहों का सुझाव दिया। घुरिये जाति और प्रजाति में आंतरिक संबंध मानते हुए उन्होंने हिंदू समाज को उनकी शारीरिक विशेषताओं के आधार पर छः भागो में बाटा जो निम्नलिखित है।


1. इंण्ड्रो आर्यन


2. पूर्व द्रविण


3. पश्चिमी द्रविण


4. द्रविण


5. मुण्डा


6. मंगोलियन


जनजातियों के संदर्भ में घुरिये जाति एवं प्रजाति के साथ-साथ प्रजातियों का भी व्यापक रूप से अध्ययन करते हैं। इन्होंने अपनी पुस्तक 'अनुसूचित जनजातियों में भारत के आदिवासी जातियों का ऐतिहासिक, प्रशासनिक और सामाजिक आयामो का विश्लेषण किया। वहीं अपनी पुस्तक 'तथाकथित आदिवासी और उनका भविष्य' में उन्होंने आदिवासियों की समस्याओं का उनके ऐतिहासिक संदर्भ में चर्चा की है। घुरिये ने महाराष्ट्र की जनजाति पर एक पुस्तक लिखी। इन्होंने लिखा है कि भारतीय संविधान इन जनजातियों को पिछडी हुई जातियां मानता है, न कि चिड़ियाघर घुरिये ने भी जनजातियों की स्थिति हिन्दुओं के पिछड़े दलित वर्ग के रूप में स्वीकार करते हुए भारतीय समाज के साथ इनके एकीकरण पर जोर दिया है। इन्होंने भारतीय जनजातियों के पिछडेपन का कारण उनका हिंदू समाज में पूरी तरह एकीकृत न होना रहा है। इस तरह घुरिये भारतीय जनजातियों की समस्याओं के समाधान के लिए आत्मसात् की नीति' प्रस्तावित की। जो बेरियर एल्विन के नेशनल पार्क की नीति (अलग-थलग की नीति) और जवाहर लाल नेहरू की एकीकरण नीति (आरक्षण और विकास) से सर्वथा भिन्न है। उत्तरपूर्वी जनजातियों पर लिखी अपनी बाद की रचना में घुरिये ने अलगाववादी प्रवृत्तियों का उल्लेख किया और कहा कि यदि इन प्रवृत्तियों को रोका न गया तो देश की राजनीतिक एकता को खतरा उत्पन्न हो सकता है।


शहरीकरण के संदर्भ में घुरिये भारत में शहरीकरण के संदर्भ में अपना विचार रखते हुए कहते है कि भारत में शहरीकरण औद्योगिकरण का परिणाम नही है। भारत में हाल के वर्षों तक शहरीकरण की प्रक्रिया ग्रामीण क्षेत्रो से ही आरम्भ होती थी। उन्होंने ने इसकी पुष्टी में कुछ संस्कृत ग्रंथों और दस्तावेजों के उदाहरण दे कर बताया कि सुदूर गांवों में बाजार के आवश्यकता के कारण शहरी क्षेत्रों का विकास हुआ। वास्तव में कृषि व्यवस्था के विस्तार के कारण आवश्यकता से अधिक अनाज की पैदावार होने लगी। इसके विनिमय के लिए और अधिक मंड़ियों और बाजारों की जरूरत थी जिससे कई ग्रामीण क्षेत्रों में किसी बड़े गांव के एक भाग को मंडी या बाजार में बदल दिया जाता था। इसके फलस्वरूप ऐसे क्षेत्रो में कस्बों का निर्माण होने लगा वहां धीर धीरे प्रशासनिक, न्यायिक और अन्य संस्थाऐं बन गयी।


भारत में धार्मिक विश्वास और रीति-रिवाजो के संदर्भ में घुरिये के अनुसार प्राचीन भारत, मिस्त्र, और बेबियोलोनिया में धार्मिक चेतना धर्म स्थलों से जुडी हुई थी। भारतीय धर्म में विभिन्न देवताओं की भूमिका पर अपनी रचना में शिव, विष्णु, दुर्गा जैसे प्रमुख देवी-देवताओ का उद्भव का अध्ययन किया उनका मत है कि भारत में अनेक पंथों के विकास और विस्तार का राजनीति के साथ-साथ लोक समर्थन भी रहा था। महाराष्ट्र के गणेश उत्सव और बंगाल के दुर्गापूजा उत्सवों को लोकप्रिय बनाने में बालगंगाधर तिलक और विपिन चन्द्र पाल जैसे राष्ट्रवादियों का प्रयास शामिल था।


भारतीय संस्कृति में साधू की भूमिका के संदर्भ में घुरिये अपनी पुस्तक 'इंण्डियन साधूज' में सन्यास की दोहरी भूमिका की समीक्षा की है। भारतीय संस्कृति के अनुसार ऐसा समझा जाता है कि साधुओं एवं सन्यासियों को सभी जाति प्रतिमानो, सामाजिक परंपराओं, नातेदारियों आदि से मुक्त होना चाहियें। वस्तुतः वह समाज के दायरे से बाहर होता है। शैवमतावलम्बियों में नकली दाह संस्कार के बाद संन्यास ग्रहण किया जाता है। अर्थात वह समाज के लिए मृत सामान हो जाता है। घुरिये ने भारतीय परंपरा का ऐतिहासिक समीक्षा करते हुए कहा कि आठवीं शताब्दी के सुधारक शंकराचार्य के समय से प्रायः हिंदू समाज का मार्ग दर्शन साधुओं ने किया। ये साधु एकान्तवासी नहीं थे। इनमें से अधिकाश मठ व्यवस्था से जुड़े हुए थे जिनकी अपनी विशिष्ट परंपरा होती थी। साधु धर्म ग्रंथों के अध्ययन अध्यापन के संरक्षक थे। और बाहरी हमलों से धर्म की रक्षा करते थे। घुरिये के अनुसार इस प्रकार हिंदू समाज में संन्यास एक रचनात्मक शक्ति के रूप में था। घुरिये ने विभिन्न श्रेणियों के साधुओं पर विस्तार से विचार किया। इनमें शैवों (दशनामें) और वैष्णव (बैरागी) प्रमुख थे। इन दोनो मतो में नागा साधु थे। ये साधु हिंदू धर्म को हानि पहुचाने वाले से लड़ने को तैयार रहते थे।


बकिमचन्द्र चटर्जी का बंगला उपन्यास 'आनन्द मठ' में शैव साधुओं की कहानी है। इन साधुओं ने धर्म की रक्षा के लिए अंग्रेजो से संघर्ष किया था। आधुनिक युग में विवेकानन्द, दयानन्द सरस्वती और अरविन्द घोष जैसे कुछ प्रसिद्ध संन्यासियों ने हिंदू धर्म के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया।


सामाजिक तनाव पर विचार सन् 1968 में प्रकाशित भारत में सामाजिक तनाव नामक पुस्तक में घुरियें ने भारत में सामाजिक तनाव का व्यापक अध्ययन करते हुए हिंदू और मुस्लिम संस्कृति की ऐतिहासिक समीक्षा की है। जिसमें इन्होंने की बताया है कि अकबर के काल को छोड़कर मुगलों के भारत आगमन के बाद से ही दोनो संस्कृतियों में निरान्तर संघर्ष रहा है। घुरिये के अनुसार देश का विभाजन पृथकतावाद और विशिष्टावाद' के बाद लम्बे इतिहास के परिणामों का फल है। सन् 1947 में भारत के विभाजन के बाद भी निरान्तर हिंदू मुस्लिम तनाव रहा है। उन्होंने वोट बैंक के लिए कुछ राजनीतिक दलों के अलगाववादी राजनीति को भी सामाजिक तनाव के लिए जिम्मेदार बताया है।


घुरिये के विचारों पर प्रमुख रूप से तीन ब्रिट्रिश विचारकों पैट्रिक गीड्स, हॉबहाउस, और रिवर्स का प्रभाव पड़ा जाति सम्बन्धी उनके विचारों पर हॉबहाउस और रिवर्स के विचारों की स्पष्ट छाप दिखायी पड़ती है। घुरिये जाति व्यवस्था के पक्ष में नहीं थे। क्योंकि वें इसे सामाजिक न्याय के विरूद्ध मानते थे। उनकी दृष्टि में जाति व्यवस्था सामाजिक न्याय के सिद्धान्तों का हनन करती है। शहरीकरण से सम्बन्धी विचार घुरिये ने पैट्रिक गीड्स से ग्रहण किये थे। घुरिये के चिंतन में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय परंपरा और संस्कृति का प्रभाव रहा। घुरिये जीवन भर पौराणिक संस्कृति, साहित्य और मानवशास्त्री प्रस्थापनाओं और प्रविधियों के जरिये इतिहास और परंपरा की खोज करते रहे।