वर्णाश्रम का विभाजन - division of caste

वर्णाश्रम का विभाजन - division of caste


वर्णाश्रम जैसा की पहले भी बताया जा चुका है कि वर्णाश्रम मूलतः वर्ण और आश्रम से मिलकर बना हुआ है। इनको स्पष्ट तौर पर चार-चार भागों में वर्गीकृत किया गया है, इसे हम निम्न विभाजक सारणी के आधार पर सरलता से समझ सकते हैं- 


1- ब्राह्मण


मनु के अनुसार, सभी वर्णों में, यहाँ तक कि द्विजों में भी सर्वश्रेष्ठ पद ब्राह्मण का होता है। ब्राह्मण का आधार सात्विक पद्धति, निश्चल स्वभाव. इंद्रिजेय तथा भौतिक सुखों से परे आदि पर निर्भर रहता है। ब्राह्मण के लिए कुछ कर्तव्य तथा निषेधों का वर्णन मनुस्मृति में मिलता है। उसे सदैव वेद, धर्म, ज्ञानार्जन आदि के मार्ग पर चलते रहना चाहिए. साथ ही उसे दूसरों को शिक्षा. ज्ञान आदि देने के कार्यों में भी लगे रहना चाहिए। अंतःकरण की शुद्धि, धर्म-कार्यों में कष्ट सहना, इंद्रियों का दमन, ज्ञानार्जन, पवित्रता, क्षमावान होना तथा 'सत्य का अनुभव ही ब्राह्मण का परम धर्म होता है। गीता में वर्णित इस श्लोक के अनुसार भी यह पुष्ट होता है-


"शमो दमस्तपः शौच क्षांतिरार्जवमेव च। ज्ञान विज्ञानमास्तिक्यंम ब्रम्हकर्म स्वभावजम् ॥ "


2- क्षत्रिय


मनुस्मृति में दिए गए विवरण के अनुसार क्षत्रिय दूसरा वर्ण है। इनका धर्म प्रजा की रक्षा, दान देना, अध्ययन करना तथा अपनी शक्ति का उपयोग श्रेष्ठ कार्यों में संलिप्त करना है। गीता में वर्णित विवरण के अनुसार क्षत्रियों का धर्म शूरवीरता, तेज. युद्ध-कला में निपुणता, चतुरता, दान देना तथा निःस्वार्थ भाव से प्रजा की रक्षा और सेवा करना करना है-


"शौर्य तेजो धृतिर्दाक्ष्यम् युद्धे चाप्यलायनम् । दानमीश्वरभावश्च क्षात्र कर्म स्वभावजम् ॥ "


3- वैश्य


वैश्य का मूल कार्य व्यापार करना, धन आदि को संचित करना निर्धारित किया गया है। मनुस्मृति में इसके प्रमुख सात कार्यों को बताया गया है, जो कि पशुओं की रक्षा अध्ययक करना, यज्ञ करना, व्यापार करना, व्याज पर धन देना, दान देना व कृषि करना है-


पशूना रक्षानाम् दानभिज्याध्ययनमेव च। वर्णिन्क्वथम् कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च।"


4- शूद्र


शूद्र सभी वर्गों में सबसे निचले पायदान पर है तथा उनका प्रमुख कार्य बिना किसी ईर्ष्या-भाव के उक्त तीनों वर्गों की सेवा करना निर्धारित किया गया है। हालांकि इसके बाद भी शूद्रों को निश्चित तौर पर ब्रम्ह की ही सेवा में तंलीन रहना चाहिए और उन्हीं के अधीन रहते हुए अपने कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए। ब्राह्मण के अलावा क्षत्रिय अथवा वैश्य का सेवक बनना शूद्र के लिए मात्र आजीविका की दृष्टि से ही उपयोगी है। मनुस्मृति में शूद्रों के लिए किए जाने वाले कार्यों को इस प्रकार से प्रस्तुत किया गया है


"एक एव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्। एतेशां एवं वर्णानं शुश्रुशां अनुसूसूयया।"


समस्त वर्णों के कर्तव्यों और कार्यों के निर्धारण के अलावा कुल नौ प्रकार के सामान्य अन्य धर्म-कार्यों का वर्णन किया गया है,

जो सभी वर्णों पर समान रूप से लागू होते हैं। वे धर्म कार्य हैं- सत्य बोलना, किसी से द्रोह की भावना न रखना, सरल भाव रखना, क्रोध न करना, क्षमाशील होना, धन को बांटकर उसका उपयोग करना, पवित्रता बनाए रखना, पत्नी से संतानोत्पत्ति और सभी जीवों का पालन पोषण करना। इनका पालन सभी वर्गों को लगनशीलता और निःस्वार्थ भाव से करना अनिवार्य माना गया है।


वर्ण व्यवस्था के बारे में संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करने के पश्चात इसी क्रम में आश्रम व्यवस्था का विवरण भी प्रस्तुत किया जा रहा है। आश्रम शब्द संस्कृत के 'श्रम' धातु से बना है तथा इसका अभिप्राय उद्योग, परिश्रम अथवा प्रयास होता है। पी. एन. प्रभु ने अपनी पुस्तक 'हिंदू सोशल ऑर्गनाइजेशन' में आश्रम व्यवस्था की उत्पत्ति से संबंधित दो आशयों के बारे में चर्चा की है-


1. एक ऐसा स्थान जहां पर उद्योग अथवा प्रयत्न किया जाता है। 


2. इस परिश्रम अथवा प्रयास के लिए की जाने वाली क्रिया।


ऋग्वेद में आश्रमों को कुल चार बराबर भागों में विभाजित किया गया है। ए भाग 25-25 मनुष्य की आयु वर्षों के रूप में निर्धारित किए गए हैं। ऋग्वेद के अनुसार जीवेम शरदः शतम्' अर्थात प्रत्येक मनुष्य का जीवन काल 100 वर्षों का होता है तथा इसी को आधार मानते हुए सभी आश्रमों को 25-25 वर्षों के रूप में विभाजित किया गया है


1- ब्रह्मचर्य आश्रम


यह मनुष्य के जीवन काल का प्रथम आश्रम है जो पहले 25 वर्षों के लिए निर्धारित कर्तव्यों के बारे में बालक को भावबोध कराता है। ब्रह्म' का अभिप्राय महान' तथा चर्य' का अभिप्राय लैंगिक संयम' से लगाया जाता है। हालांकि यह ब्रह्मचर्य आश्रम का केवल एक पक्ष ही प्रदर्शित करता है। स्पष्ट तौर पर यह नैतिकता, शुद्ध आचरण, पवित्रता, अनुशासन, सेवा, कर्तव्य परायणता, ज्ञान का संयम तथा मूल रूप से शुद्धता से महानता की ओर अग्रसारित होने का आश्रम है।

अपने माता-पिता, परिवार, घर आदि को छोड़कर बालक को गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करने के लिए जाना होता था तथा वहाँ प्रातःकाल से लेकर सोने के समय तक अपने गुरु द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करता था और जीवन की दैनिक क्रियाओं को सिखता था। 


2- गृहस्थ आश्रम


यह दूसरा आश्रम है तथा इसका आरंभ विवाह के उपरांत होता है। गृहस्थ आश्रम अग्रिम 25 से 50 वर्षों तक के आयु तक का काल होता है। विद्वानों द्वारा इस आश्रम को अन्य सभी आश्रमों का आधार माना है। इस आश्रम में देव-ऋण, पितृ ऋण तथा ऋषि ऋण से उऋण होने की व्यवस्था की गई है। इसके अलावा इसे धर्म, अर्थ और काम के संगम के रूप में भी विश्लेषित किया जाता है। काम की पूर्ति यहाँ किसी साध्य के रूप में नहीं है, अपितु यह मात्र साधन है। इसका एक मात्र कार्य संतानोत्पत्ति के आधार पर अपने धार्मिक कर्तव्यों की पूर्ति करना होता है।

इस आश्रम में मनुष्य को जीव हत्या, पक्षपात, असंयम, असत्य, डर, अविवेक तथा शत्रुता से परे रहना चाहिए। मनुष्य को मादक द्रव्य व्यसनों के सेवन, कुसंगति, चाटुकारिता आदि से दूर रहना चाहिए तथा अपने से बड़ों, यथा - माता-पिता, गुरुजनों, वृद्धों, ऋषियों आदि के प्रति सेवा व आदर भाव रखना चाहिए। इसके अलावा पुरुष का व्यवहार अपनी पत्नी के लिए मर्यादित, आचरणपूर्ण, धर्मानुकूल होना चाहिए। मनुस्मृति के अनुसार जो व्यक्ति गृहस्थ आश्रम के कर्तव्यों का पालन परिश्रम, लगन और निष्ठा से करता है उसे निःसंदेह स्थाई प्रसन्नता और स्वर्ग का आशीर्वाद प्राप्त होता है। 


3- वानप्रस्थ आश्रम


यह आश्रम व्यवस्था का तीसरा महत्वपूर्ण आश्रम है जो अग्रिम 50 से 75 आयु वर्षों के कर्तव्यों से मनुष्य को अवगत कराता है। वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति को घर-परिवार छोड़कर वन की ओर चल देना चाहिए। वह चाहे तो अपनी पत्नी को भी साथ ले जा सकता है। दिन में एक बार वह कंद-मूल फल आदि के रूप में भोजन करेगा. इसके अलावा इंद्रिय संयम, सांसरिक प्रेम से विमुख, जीवों पर दया और समता की भावना ही इस आश्रम के प्रमुख कार्य निर्धारित हैं।

अतिथि सत्कार, दान-धर्म, जीवों पर दया व सेवा भावना ध्यान तथा चिंतनशीलता आदि के माध्यम से परलोक को जानने व उससे संबंधित गूढ रहस्यों को समझने का प्रयास किया जाता था। इस आश्रम में मनुष्य का मूल लक्ष्य सत्य तथा ज्ञान की खोज करना था।


4. सन्यास आश्रम


यह मानव जीवन के अंतिम पड़ाव पर आधारित आश्रम होता है। इसमें प्रवेश लेने के लिए एक वानप्रस्थी को समस्त सांसारिक मोह व बंधनो का त्याग करते हुए अपनी इंद्रियों पर काबू कर लेना आवश्यक होता है तथा अंततः उसे सन्यासी हो जाना चाहिए। यहाँ व्यक्ति को केवल मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। सन्यास आश्रम में व्यक्ति के कुछ कर्तव्यों को निर्धारित किया गया है – भिक्षा पर निर्भरता, अधिक भिक्षा न मांगना. संतोष करना, वृक्ष की छाया में विश्राम करना, मोटे वस्त्रों को धारण करना, किसी का अनादर न करना, किसी जीव से घृणा न करना, आत्मज्ञान की साधना तथा योग द्वारा इंद्रियों पर विराम लगाना, सुख-दुख का अनुभव न करना।