प्राचीन भारतीय दर्शन एवं शिक्षा - Ancient Indian Philosophy and Education

प्राचीन भारतीय दर्शन एवं शिक्षा - Ancient Indian Philosophy and Education


 भारतीय दर्शन की शिक्षा संबंधी अवधारणाये अपनी-अपनी तत्वमीमांसीय अवधारणाओं पर आधारित कही जा सकती हैं। ये दर्शन ईश्वर, ब्रहम, आध्यात्म, आत्मा आदि संप्रत्ययों में विश्वास व्यक्त करते हैं। उनकी शिक्षा का उद्देश्य प्रायः उपर्युक्त की जानकारी तथा विशेष रूप से बहम साक्षात्कार एवं मोक्ष प्राप्ति है।


भारतीय दर्शन की शिक्षा संबंधी अवधारणाओं को निम्न दर्शनों के अंतर्गत समझने का प्रयास किया जा सकता है-


• न्याय दर्शन


• वैशेषिक दर्शन


• सांख्य योग दर्शन वेदांत दर्शन


• चार्वाक दर्शन


• जैन दर्शन बौद्ध दर्शन


न्याय दर्शन


न्याय दर्शन वस्तुतः ज्ञान प्राप्ति की तर्कयुक्त समीक्षात्मक प्रणाली है। युक्तियुक्त विचार करना तथा आलोचनात्मक दृष्टि से सोचना इसकी दार्शनिक प्रक्रिया की विशेषता है। न्यायशास्त्र आत्मा के दर्शन या ज्ञान का एक सशक्त उपागम है। तर्क या प्रमाण प्रस्तुत करने की विद्या ही न्याय है। वात्स्यायन ने न्याय सूत्र पर भाष्य लिखा है जिसमें न्याय का तात्पर्य अर्थ या वस्तु-तत्व की परीक्षा बताया गया है


न्याय से तात्पर्य ऐसे तर्क-युक्त साधनों से हैं, जिनके द्वारा जान की प्राप्ति की जा सकती है अतः इसे तर्कशास्त्र या बादशास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। न्याय दर्शन को 'हेतु विद्या' कहा जाता है। ललित बिस्तर ने न्याय-शास्त्र का वर्णन हेतु बिद्या नाम से किया है। न्याय-दर्शन के प्रवर्तक महर्षि गौतम थे, जो अक्षपाद के नाम से भी प्रसिद्ध है। इसी कारण न्याय-दर्शन को 'अक्षपाद दर्शन भी कहा जाता है। इसे 'आन्वीक्षिकी भी कहा गया है।


न्याय दर्शन ताकिक यथार्थवादी (यथार्थ जो तर्क पर आधारित हो) है। अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि न्याय दर्शन के अनुसार बाह्य वस्तुओं का अस्तित्व हमारे ज्ञान पर निर्भर नहीं है। वस्तुओं का अस्तित्व जाता से स्वतंत्र रहता है। मानसिक भावी यथा-हर्ष, विषाद, भय, क्रोध, आदि का अस्तित्व मन पर निर्भर करता है।

जब तक मन उनकी अनुभूति नहीं कर लेता तब तक उनका कोई अस्तित्व नहीं होता, परंतु मेज कलम आदि बाहयपदार्थों का अस्तित्व हमारे मन पर निर्भर नहीं हैं। हमें उनके बारे में कोई जान न हो तब भी उनका अस्तित्व रहेगा। अतः न्याय-दर्शन के प्रमुख विषय 'जान, ज्ञान-प्राप्ति के साधन, ज्ञान प्रक्रिया एवं संज्ञान आदि है। इस दृष्टि से न्याय दर्शन का शैक्षिक योगदान शिक्षण-प्रक्रिया के अंतर्गत हो सकता है।


शिक्षा का अभिप्राय


न्याय-दर्शन में शिक्षा का अभिप्राय तर्क पर आधारित 'विद्या और ज्ञान से है। न्याय शब्द का अर्थ है- नीयते अनेन इति न्यायः अर्थात् वह प्रक्रिया जिसके द्वारा मस्तिष्क एक निष्कर्ष तक पहुॅ चसके। इस प्रकार न्याय ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया है।

न्यायदर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम ने इन्द्रियजन्य ज्ञान पर बल दिया है। इन्द्रियजन्य ज्ञान बिना मस्तिष्क के संभव नहीं होता है। शिक्षा और सीखना इंद्रियजन्य ज्ञान प्राप्त करने प्रक्रिया है।


न्याय-दर्शन के अनुसार शिक्षा का एक अन्य अभिप्राय भी है आन्वीक्षिकी अर्थात् तर्क के द्वारा किसी विषय का अनुसंधान करना। इस प्रकार शिक्षा विद्या अथवा जान तक सीमित न रहकर एक सीढ़ी और ऊपर उठते हुए अनुसंधान का पर्याय बन जाती है।


शिक्षा के उद्देश्य


डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार यद्यपि आन्वीक्षिकी बिया का प्रयोग आध्यात्म विषयक समस्याओं की तार्किक समीक्षा के लिए हुआ है जिससे भ्रम रहित एवं निश्चित आध्यात्मिक ज्ञान तार्किक युक्तियों के द्वारा उपलब्ध किया जा सके तथापि, इस परिप्रेक्ष्य में न्याय दर्शन के निम्न उद्देश्य हो सकते हैं


◆ यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति


◆ तार्किक शक्ति का विकास


◆ मोक्ष प्राप्ति


शिक्षा की पाठ्यचर्या


न्याय-दर्शन में प्रत्यक्ष ज्ञान के लौकिक और अलौकिक दो पक्ष बताए गए हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि न्याय दर्शन के अनुसार शिक्षा की पाठ्यचर्या में लौकिक एवं आध्यात्मिक या अलौकिक विषय होने चाहिए। लौकिक विषयों में भाषा, साहित्य और व्याकरण, मानवीय एवं प्राकृतिक विषय रखे जा सकते हैं। इनका दृश्य जगत् से संबंध है।

न्यामदर्शन में तर्क शास्त्र को शिक्षा की पाठ्यचर्या का प्रमुख विषय माना गया है। तर्कशास्त्र को लौकिक ज्ञान का विषय कहा जा सकता है।


अलौकिक ज्ञान के अंतर्गत दर्शनशास्त्र, आध्यात्मशास्त्र एवं आत्मानुभूति तथा अन्तर्ज्ञान की क्रियाएँ सम्मिलित की जा सकती है। ईश्वर प्रामाण्य का विषय न्याय-दर्शन में मिति के नाम से प्रख्यात है। 


शिक्षण-प्रक्रिया


न्याय दर्शन के अनुसार ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया में चार तत्व होते हैं-


★ प्रमेय


★ प्रमाण


★ प्रमाता 


★ प्रमिति


 ज्ञान प्राप्त करने की सामर्थ्य रखने वाले जिजासु अथवा शिक्षार्थी को प्रमाता कहते हैं। जिस विषय का अध्ययन करना है, उसे प्रमेय अर्थात् जय कहा जाता है। जिसके माध्यम से ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उसे प्रमाण कहते हैं। प्रमिति उस यथार्थ ज्ञान को कहते हैं जो निश्चित तथा त्रुटि रहित होता है। पदार्थों का स्पष्ट प्रस्तुतीकरण ही जान कहलाता है। प्रमाण शास्त्र न केवल पदार्थों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने में सहायक होता है, अपितु ज्ञान की वैधता का परीक्षण करने में भी सहायक होता है। जब कभी मन में पदार्थ की यथार्थता का ज्ञान प्राप्त करने की आकांक्षा होती है, तो हमें तार्किक आलोचना के लिए एक विषय मिलता है।

यथार्थ के अन्वेषण का कार्य मानवीय क्रियाकलापों में पहले से ही विद्यमान रहता है। तर्कशास्त्र के माध्यम से यथार्थ की जानकारी अधिक सुसंगत तथा प्रभावोत्पादक रूप में प्राप्त होती है। न्याय दर्शन के अनुसार हम कभी कोरे मस्तिष्क से आरंभ नहीं करते। अपने निजी अनुभव तथा संस्कारों एवं पसराओं के आधार पर संसार के विषय में ज्ञान हमारे कोश में पहले से विद्यमान रहता है। विज्ञान की आगमनात्मक प्रणाली द्वारा हम अंतर्निहित ज्ञान का अनावरण मात्र करते हैं। न्याय नवीन ज्ञान प्रदान नहीं करता, अपितु उन भिन्न-भिन्न उपायों का वर्गीकरण करता है, जिनके द्वारा हमें पदार्थ संबंधी यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है।


शिक्षक एवं छात्र-संकल्पना


न्याय-दर्शन के अनुसार छात्र जिजानु, सुकर्म करने वाला एवं सद्ज्ञान तथा सच्चरित्र से युक्त होता है। वह आत्मानुशासित एवं आचार्य के उपदेशों का अभ्यास करने वाला होता है। राग द्वेष एवं मोह से रहित होकर विद्याभ्यास के तप में प्रवृत्त होता है। ज्ञान ग्रहण करके उसका अभ्यास एवं मनन करना विद्यार्थी का कर्म एवं धर्म दोनों है।


आचार्य अर्थात् वह व्यक्ति जिसके आदर्श आचरण को विद्यार्थी भी धारण करें वह स्वयमेव तपस्वी एवं ब्रहमचारी हो तथा सांसारिक मोह-माया से मुक्त हो कर ज्ञान प्राप्त एवं प्रदान करे वह पूर्णरूपेण अनुशासित होमन, आत्मा एवं बुद्धि से शुद्ध हो और उन पर उसका नियंत्रण भी हो।